यह ‘नई दिशा की राजनीति’ हरगिज नहीं

Edited By ,Updated: 27 Mar, 2015 01:29 AM

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दशक की शुरूआत से सारा विश्व राजनीतिक करवट ले रहा था। कई आन्दोलन क्रांति में बदल रहे थे। सूचनाएं भारतीय जनमानस पर भी अपना असर छोड़ रही थीं।

(दर्शन ‘रत्न’ रावण): दशक की शुरूआत से सारा विश्व राजनीतिक करवट ले रहा था। कई आन्दोलन क्रांति में बदल रहे थे। सूचनाएं भारतीय जनमानस पर भी अपना असर छोड़ रही थीं। तभी अन्ना और उनके साथी (शायद कुछ जल्दबाजी में) उस जमीन पर उतर आए। मीडिया साथ खड़ा होगया। देखते ही देखते लोग सोचने लगे कि अब कुछ होगा। 

बेलगाम भाषण दिए जाने लगे। देश  के संविधान, हमारी संसदीय प्रणाली को गाली दी जाने लगी। बीच-बीच में माफी मांगते भी देखे गए। मगर उमड़ती भीड़ को देख बदजुबानी जारी रही। मंच के अधिकांश नेता अपने आपको ‘भगत सिंह’ समझने लगे। मगरथा सब कुछ बिना सोचे-समझे। 10-20 लोगों की एन.जी.ओ. चलाने वाले लाखों आदमी देख लडखड़़ाने लगे।
 
जब सरकार जुबानी और लिखती दोनों बातों से मुकरने लगी, आन्दोलनकत्र्ता हताश व ठगे महसूस करने लगे। तब योगेन्द्र यादव और उनके साथी नए विचार के साथ आगे आए कि जनशक्ति ही सरकार बनाती है और चलो उस शक्ति को ही अपने हाथ में लें और एक राजनीतिक दल बनाएं। केजरीवाल और उनके साथी अच्छे से समझने लगे कि यह स्वप्नबाग दिखाना जरूरी है। इस बहकावे से ही सत्ता तक पहुंचा जा सकता है।
 
 जब हकीकत का सामना हुआ तो उम्मीद के इतने विपरीत निकला कि संसद और विधानसभा को लोगों की उपस्थिति में बीच मैदान में लगाने की बात कहने वालों ने सबसे पहले अपने सचिवालय के दरवाजे मीडिया के लिए बंद कर दिए। यही लोग अदालत की कार्रवाई की वीडियो रिकार्डिग चाहते थे, अब अपनी मीटिंग की कार्रवाई तो दूर, मैम्बरों को बाहर बात करने से रोकने लगे।
 
नेतृत्व में सामना करने की हिम्मत होनी चाहिए। पहले दिल्ली विधानसभा चुनावों के समय मोदी से बचने के लिए केजरीवाल उनका मुख्यमंत्री खुद तय करने लगे। 2-2 बार अपनी ही पार्टी की मीटिंग में आने से भागते दिखे। यह कैसा नेता? कारण साफ था कि मैं सारे फैसले अकेले लूंगा। लोकपाल का नारा बुलन्द करने वाले अपने ही लोकपाल से घबराने लगे। भला क्यों? 
 
भ्रष्टाचार के विरुद्ध नारे लगाते हुए आगे बढऩे वाली इस पार्टी के पास दिखाने को अगर कुछ था तो वह थी प्रशांत भूषण द्वारा जीवन भर कोर्ट में जनहित याचिका के माध्यम से बड़े-बड़े धन्ना सेठों के विरुद्ध लड़ी बेबाक लड़ाई। जिसमें शामिल हैं बहुचर्चित कोल व 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाला। दुखी हो कर प्रशांत भूषण ने एक पत्र लिखा। उसके 3 प्रमुख मुद्दे प्रस्तुत हैं:
 
1. हमने मांग रखी थी कि सभी राजनीतिक पार्टियां सूचना अधिकार (आर.टी.आई.) के दायरे में आएं और हमने सूचना आयोग के निर्देश को निरस्त करने के लिए भाजपा और कांग्रेस की कड़ी निन्दा भी की थी। आर.टी.आई. के दायरे में आना तो दूर, हमने चंदे का ब्यौरा तो डाला है, पर खर्चों का ब्यौरा नहीं दिया है। 
 
2. पार्टी संविधान के अनुसार जरूरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी (एन.ई.)  और राजनीतिक मामलों की समिति (पी.ए.सी.) की नियमित बैठक तक नहीं होती है। पी.ए.सी. अथवा एन.ई. मीटिंगों के निर्णयों और कार्रवाई का कोई ब्यौरा नहीं रखा जाता है। जो थोड़ी-बहुत पी.ए.सी. की बैठकें होती भी हैं, उनकी सूचना तक कुछ पी.ए.सी. सदस्यों को नहीं दी जाती है। क्षेत्रीय व लिंग संतुलन के लिए पी.ए.सी. के पुनर्गठन की जरूरत है।
 
3. दिल्ली चुनाव के लिए सम्भावित उम्मीदवारों की सूची वैबसाइट पर डाल कर आम जनता से उनके बारे में जानकारी मांगना तो दूर, उन नामों को पी.ए.सी. तक को नहीं बताया। 49 दिन की सरकार के इस्तीफे के बाद तय किया था कि कांग्रेस का समर्थन नहीं लिया जाएगा पर जून में उप-राज्यपाल को पत्र लिख कर गुप-चुप तरीके से कांग्रेस का समर्थन लेकर दोबारा सरकार बनाने की कोशिश की जाती रही।
 
असली भूल तब हुई जब योगेन्द्र यादव द्वारा 13.8.2013 को मुख्यमंत्री पद के लिए केजरीवाल का नाम आगे बढ़ाया गया। आम आदमी की बात कहने वाली पार्टी का एक खास चेहरा बनने लगा। एक वहम यह हो गया कि केजरीवाल के चेहरे को वोट मिला। ऐसा बिल्कुल नहीं। इसके कई कारण थे। एक तो लोग कांग्रेस और भाजपा का विकल्प चाहते थे। दूसरा मुफ्त बिजली-पानी जैसे लालच। तीसरा झाड़ू का निशान, जिसे वाल्मीकि समाज ने बिना कुछऔर विचार किए पकड़ लिया। दिल्ली में विधानसभा की70 सीटों में छोटी-बड़ी 500 वाल्मीकि कालोनियां हैं।
 
पहले-पहल दलितों में इस पार्टी को लेकर संशय की स्थिति थी। कारण साफ था कि केजरीवाल और उनके साथी जे.एन.यू. और ‘एम्स’ में आरक्षण विरोधी हुड़दंग का नेतृत्व करते रहे हैं लेकिन सामाजिक सरोकार से जुड़े योगेन्द्र यादव जो ‘वामसेफ ’ से लेकर ‘आधस भारत’ के मंचों पर अपना सामाजिक बराबरी का एजैंडा दोहराते रहे हैं, के चेहरे को देख वे आश्वस्त हो गए।
 
प्रशांत भूषण व योगेन्द्र यादव के कारण एक अद्भुत परम्परा जरूर सामने आई। वह यह कि पहली बार किसी राजनीतिक दल का फैसला मत-विभाजन से हुआ। उसका भी पर्दाफाश करते हुए अरविन्दमोहनने अपने लेख में लिखा कि 11 में 4 ऐसे लोग थे,जिन्होंने केवल एक जिद की खातिर मजबूरी में वोट दिया।  
 
अन्ना आन्दोलन से थोड़ा पहले की स्थिति पर चर्चा करें। प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, मेधा पाटेकर और मयंक गांधी अपनी एक अलग पहचान पहले से रखते थे। उन्हें इस आन्दोलन से लाभ नहीं मिला, बल्कि उनकी वजह से आंदोलन और आम आदमी पार्टी को लाभ हुआ। अब जैसा कि होता है, चमचा ग्रुप आगे बढ़ेगा और गाली-गलौच की भाषा तक जाएगा। यह नई राजनीति हरगिज नहीं हो सकती।
 
अदालत से रोज टकराने वाले प्रशांत भूषण व सड़कों पर पिछले 20 वर्ष से आन्दोलनरत योगेन्द्र यादव हैरानीजनक तरीके से चुप हैं। शायद इसलिए कि वे लोगों की उम्म्मीद तोडऩा नहीं चाहते। अब आपका भविष्य केजरीवाल, संजय सिंह व साथियों की सार्थक भूमिका पर निर्भर है।

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