‘जल्दबाजी और जिद’ से मचा ‘आप’ में तूफान

Edited By ,Updated: 01 Apr, 2015 02:30 AM

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बड़ी उम्मीदों के साथ सत्ता में आई आम आदमी पार्टी नाउम्मीदी को बढ़ा रही है।

(विजय विद्रोही) बड़ी उम्मीदों के साथ सत्ता में आई आम आदमी पार्टी नाउम्मीदी को बढ़ा रही है। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार और अजीत झा को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर किए जाने के बाद चारों को पार्टी से ही निकालने की तैयारी चल रही है। चारों ने भी हार नहीं मानी है।
 
बयानबाजी का दौर जारी है। आनंद कुमार ने तो यहां तक कह दिया है कि उनके पास अभी बहुत से सिंट्ग हैं और अगले कुछ महीनों तक मीडिया को मसाला मिल सकता है। बकौल आनंद कुमार ‘‘बात निकलेगी तो बहुत दूर तक जाएगी; अंधेरों तक जाएगी; बैडरूम तक जाएगी।’’ यानी साफ है कि बहुत गंदगी अभी बाहर आनी बाकी है। बहुतों के चेहरों से नकाब उतरना बाकी है।
 
दिल्ली की जनता सोच रही है कि क्या यही सब देखने के लिए वोट दिया था। देश की जनता भी सोच रही है कि ये लोग तो देश की व्यवस्था बदलने निकले थे लेकिन दूसरे राजनीतिक दलों से भी नीचे गिर गए हैं। क्या यह अतिपारदर्शिता के कारण हो रहा है? क्या ये सब असल लोकतंत्र की वजह से हो रहा है? या फिर कुछ नेताओं की महत्वाकांक्षाएं जोर मार रही हैं? या फिर केजरीवाल को विरोध से परहेज है, आलोचना पसंद नहीं है और सवाल उठाने वाले उनके दुश्मन हो जाते हैं?
 
हैरानी की बात है कि चारों को किस कसूर की सजा मिली है, यह बात अभी भी उन्हें बताई नहीं गई है। हैरानी की बात यह भी है कि क्या किसी आदमी को एक कसूर की दो बार सजा दी जा सकती है? यहां तो तीसरी बार सजा देने की तैयारी चल रही है। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पी.ए.सी. से निकाला जा चुका था तो फिर राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी बाहर निकालने की जरूरत क्यों आन पड़ी? आखिर रोज-रोज तो इसकी बैठकें होती नहीं हैं। 
 
जिस राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अरविन्द केजरीवाल ने संयोजक की हैसियत से भाषण दिया और जिसमें उन्होंने दोनों को जमकर कोसा वह क्या एक संयोजक की गरिमा के अनुरूप था? अगर केजरीवाल को आरोप लगाने ही थे तो उन आरोपों को सुन रहे आरोपियों की भी क्या सुनी नहीं जानी चाहिए थी? क्या यह  अच्छा लोकतांत्रिक तरीका नहीं होता कि केजरीवाल के बाद यादव-भूषण भी अपनी बात रखते? उसके बाद वोटिंग या हाथ खड़े करवा के परिषद का मन टटोला जाता और विपरीत नतीजा आने पर चारों वहीं इस्तीफा दे देते। 
 
क्या यह संभव था कि ऐसा होने पर चमत्कारिक ढंग से केजरीवाल खड़े होते, चारों को माफ करने की भावुक अपील करते और सभी के गले मिलने की तस्वीरें जारी हो जातीं? अगर ये सब होना था तो इसके लिए भूमिका भी केजरीवाल को ही बनानी थी और बड़ा दिल भी दिखाना था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका, उलटे केजरीवाल तो बच्चों की तरह अड़ गए कि या तो ये रहेंगे या फिर वह। साफ था कि केजरीवाल को चारों फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे और चारों को निकाल कर ही उन्होंने दम लिया।
 
यहां एक सवाल योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार से भी किया जाना चाहिए। अभी फरवरी में पार्टी जीती थी। दिल्ली में भाजपा को जबरदस्त चोट पहुंचाई थी। मोदी के रथ के पहिए निकाले थे। कुछ क्षेत्रीय दल केजरीवाल में नई संभावना तलाश रहे थे। केजरीवाल को भी दिल्ली में खुद को साबित करना था। केन्द्र की मोदी सरकार से वित्तीय मदद जुटानी थी। हरियाणा की भाजपा सरकार से पानी लेना था। मुफ्त पानी और आधे दाम पर बिजली के वायदे को पूरा करने के लिए पैसे जुटाने थे। दिल्ली के लिए इस बार की गर्मियां कहर बरपाने वाली हो सकती हैं। खुद केजरीवाल पानी की किल्लत होने की आशंका जता चुके हैं। 
 
ऐसे में इन चारों को इतनी क्या हड़बड़ी थी, जो 5 सवाल इस चौकड़ी ने रखे, उन्हें क्या कुछ महीनों के लिए टाला नहीं जा सकता था? क्या क्रांति को 31 मार्च से पहले ही सम्पन्न होना था। 
 
यहीं केजरीवाल पर भी सवाल उठते हैं। जब 5 सवाल रखे गए थे (पार्टी को सूचना के अधिकार के तहत लाना, स्थानीय चुनावों में भाग लेने का फैसला राज्य इकाइयों पर छोडऩा, वालंटियर को अधिकार देना, छापेमारी, शराब की पकड़ और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की कोशिशों की जांच करवाना और सम्पत्ति की घोषणा सभी के लिए अनिवार्य करना) तो केजरीवाल को चाहिए था कि वह यादव और भूषण के साथ बैठते। जिन मांगों को तुरन्त पूरी तरह से माना जा सकता था या आंशिक रूप से माना जा सकता था, उस पर सहमति देते। बाकी की मांगों पर 3-4 महीनों का समय मांग लेते। कह देते कि दिल्ली की गर्मी में जनता को पानी-बिजली दे दूं तो बरसातों में आगे की बात करते हैं। 
 
बहुत संभव है कि यादव और भूषण इस पर मान जाते और संकट टल जाता। बीच के रास्तों से ही राजनीति चलती है। लेकिन केजरीवाल ने दोनों को बुलाया नहीं और दोनों ने भी अपना दबाव कम किया नहीं। 
 
केजरीवाल अपनी जिद पर अड़े रहे और दूसरे दोनों भी कम जिद्दी नहीं निकले, भारी बहुमत से जीती पार्टी को विस्तार देना जरूरी है। देश भर में फैले कार्यकत्र्ताओं को नया काम देना भी जरूरी है। 
 
इस घटना के बाद केजरीवाल का इकबाल कम हुआ है। उनकी दिल्ली सरकार की साख पर चाहे आंच नहीं आई हो, लेकिन जनता की नजर में तो कई सवाल तैरने लगे हैं। अब  ‘आप’ कैसे कहेगी कि हम दूसरों से अलग हैं? अलग राजनीति करने आए हैं और लोकतांत्रिक हैं? सवाल ये भी उठ रहे हैं कि क्या केजरीवाल को उनकी आलोचना करने वाले, उनके फैसलों पर संदेह जताने वाले और उनकी नीतियों को चुनौती देने वाले पसंद नहीं? लेकिन कुछ सवालों से योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण भी नहीं बच सकते। 5 सवालों के लिए कुछ समय तो देते। मीडिया में आने से कुछ तो बचते। नई सरकार को दिल्ली में काम करने का कुछ वक्त तो देते।  
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