सुभाष चन्द्र बोस बारे ‘सच’ सामने आना जरूरी

Edited By ,Updated: 17 Apr, 2015 01:28 AM

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अभी हाल ही में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार के द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की दशकों तक जासूसी कराए जाने के खुलासे से स्वाभाविक रूप से मन में कई संदेह उठ रहे हैं।

(बलबीर पुंज): अभी हाल ही में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार के द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की दशकों तक जासूसी कराए जाने के खुलासे से स्वाभाविक रूप से मन में कई संदेह उठ रहे हैं। सन् 1948 से 1968 के बीच सरकार ने नेताजी के परिजनों की गहन जासूसी क्यों की? इन 20 सालों में 16 साल पं. नेहरू प्रधानमंत्री थे। नेताजी के करीबी परिजन, शरत बोस, अमिय नाथ बोस, शिशिर कुमार बोस, सुरेश बोस के पत्राचारों, उनकी गतिविधियों और उनके मेल-मुलाकात पर कड़ी नजर रख नेहरू सरकार कौन-सी जानकारी पाने को बेताब थी? या फिर इन सबके पीछे नेताजी की मृत्यु से जुड़ा रहस्य नेहरू की बेचैनी का कारण था?

देश के राजनीतिक इतिहास में महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस, भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनके बाद उनकी विरासत संभालने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की असमय मृत्यु आज तक पहेली बनी हुई है। इनमें दीनदयाल जी की तो मुगलसराय स्टेशन पर हत्या हुई थी, किन्तु हत्यारा कौन था, यह आज भी रहस्य है। किन्तु क्या यह महज संयोग है कि ये चारों लोग पं. नेहरू के व्यक्तिगत विरोधी भले न हों, किन्तु वे पं. नेहरू की विचारधारा और उनके बाद पोषित नेहरूवाद के प्रखर आलोचक थे?
 
पं. दीनदयाल और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु पं. नेहरू के देहावसान के बाद हुई। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद समझौते के लिए शास्त्री जी ताशकंद (रूस) गए थे। जिस दिन समझौते पर हस्ताक्षर हुए, उसी रात रहस्यमय परिस्थितियों में शास्त्री जी की मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि उन्हें हृदयाघात हुआ था, किन्तु उनके व्यक्तिगत चिकित्सक डा. आर.एन. चुघ के अनुसार उन्हें कभी हृदय रोग की समस्या ही नहीं थी। वह भले-चंगे थे। उनके पाॢथव शरीर का दर्शन करने वालों और उनके परिजनों के अनुसार उनका सारा शरीर नीलापड़ा था, अर्थात उन्हें विष देकर मारा गया था। इस साजिश का पर्दाफाश कांग्रेस ने कभी नहीं किया। क्यों?
 
जिन परिस्थितियों में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत हुई, उससे पं. नेहरू की संलिप्तता पर भी सवाल खड़े होते हैं। आधिकारिक तौर पर जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय होने के बाद उसकी बागडोर पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को सौंप दी थी।  तब कश्मीर में प्रवेश करने के लिए परमिट लेने का कानून भी बनाया गया। शेख अब्दुल्ला की इस पाकपरस्ती के खिलाफ जम्मू की देशभक्त जनता उठ खड़ी हुई। 
 
देश की अस्मिता व सम्प्रभुता के साथ हो रहे खिलवाड़ का प्रतिकार करने के लिए डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना परमिट के जम्मू जाने का निर्णय लिया। अपने साथियों समेत डा. मुखर्जी जम्मू की सीमा में स्थित रावी के पुल पर पहुंचे तो कश्मीर मिलिशिया उनका रास्ता रोककर खड़ी हो गई। कठुआ के पुलिस सुपरिंटैंडैंट ने उन्हें राज्य की सीमा में न घुसने का आदेश दिया। डाक्टर साहब ने इसे मानने से इन्कार कर दिया, जिस पर उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। 
 
नजरबंदी के 43वें दिन अर्थात 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। डा. मुखर्जी की शहादत आज भी एक रहस्य है। परिजनों व राष्ट्रनिष्ठ संगठनों के लाख निवेदन के बाद भी पं. नेहरू ने उनकी मौत की जांच कराने की आवश्यकता नहीं समझी। क्यों?
 
देश की आजादी में नेताजी और आजाद हिन्द फौज के साथ अनेक क्रांतिकारियों के अमूल्य योगदान व बलिदान को केवल इसलिए हाशिए पर डालने की कोशिश की गई क्योंकि वैचारिक तौर पर वे गांधी जी और पं. नेहरू के विचारों से साम्य नहीं रखते थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता पाने के लिए क्रांतिकारी मार्ग के हिमायती होने के साथ इस बात के प्रबल पक्षधर थे कि ब्रितानी सरकार भारतकी आजादी की समयसीमा निर्धारित करे। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो इसके खिलाफ  प्रबल आंदोलन चलाना चाहिए। गांधी जी इसके खिलाफ थे। 
 
1928 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के ‘स्वशासन’ की मांग को ‘पूर्ण स्वाधीनता’ में बदलने के लिए संशोधन प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी किन्तु कांग्रेस ने भावनात्मक ब्लैकमेङ्क्षलग करते हुए कहा कि यदि यह प्रस्ताव पारित होता है तो गांधी जी समझेंगे कि कांग्रेस का उन पर विश्वास नहीं रह गया है और वह कांग्रेस से संन्यास ले लेंगे। परिणामस्वरूप संशोधन प्रस्ताव 973 के मुकाबले 1350 मतों से परास्त हो गया। 
 
1938 में कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में नेताजी को कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया जबकि गांधी जी ने अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया था। गांधीजी ने इसे अपनी हार मानते हुए नेताजी के सामने संकट खड़ा करदिया। अंतत: उन्हें फारवर्ड ब्लॉक का गठन करना पड़ा।  
 
देश के अंदर सरकार का विरोध कर जेलों में पड़े रहने की बजाय विदेश जाकर देश को स्वतंत्र कराने का प्रयास करने की वीर सावरकर की सलाह को मानते हुए नेताजी 1941 में ब्रिटिश सरकार को चकमा देते हुए पेशावर गए। पेशावर से काबुल और फिर वहां से जर्मनी गए, जहां उन्होंने हिटलर से भेंट कर भारत की स्वतंत्रता में हिटलर का सहयोग प्राप्त किया। यहां उन्होंने इटली और जर्मनी में बंदी भारतीय सैनिकों से मिलकर मुक्ति सेना का गठन किया। 
 
उधर रासबिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज और इंडिया इंडिपैंडैंस लीग की स्थापना के बाद 1943 में नेताजी को टोक्यो आमंत्रित किया। इस अवसर पर नेताजी ने कहा था, ‘‘विश्वयुद्ध के कारण जो अवसर आया है, वैसा शायद अगले 100 साल में भी नहीं आए। अत: हमारा निश्चित मत है कि भारत की आजादी के लिए इसका पूरा लाभ उठाया जाए। स्वतंत्रता का मूल्य चुकाने के लिए अपना खून देना हमारा कत्र्तव्य है।’’ 
 
नेताजी हथियार का जवाब हथियार से देने के हिमायती थे। आजाद हिन्द फौज की कमान संभालने के बाद नेताजी ने अस्थायी सरकार की स्थापना की घोषणा की। अस्थायी सरकार को जर्मनी, इटली, बर्मा, जापान, कोरिया आदि राष्ट्रों ने मान्यता प्रदान की थी। अंडमान और निकोबार द्वीप को जापान ने नेताजी को सौंप दिया, जहां उन्होंने तिरंगा लहरा कर ब्रितानियों को खुली चेतावनी देने के साथ देश का आह्वान किया, ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’’ किन्तु विश्वयुद्ध में जापान और जर्मनी की पराजय के कारण नेताजी ने टोक्यो लौट जाना उचित समझा। उसके बाद उनके साथ क्या हुआ, इस पर आज तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है। सरकार के पास ‘टॉप सीक्रेट’ और ‘वैरी सीक्रेट’ की मोहर तले जो दस्तावेज गोपनीय रखे गए हैं, उनके खुलासे से सारे खेल का राज खुल सकता है। 
 
देश के जनमानस में नेताजी को लेकर तमाम तरह की अटकलें हैं। यह स्थापित सत्य है कि देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं कांग्रेस की भी पहली पसंद सरदार पटेल थे, किन्तु गांधी जी ने अपने वीटो का प्रयोग कर पं. नेहरू के नाम पर मोहर लगवा दी। पं. नेहरू को नेताजी की लोकप्रियता का पता था, इसलिए उन्हें लगता था कि यदि वह परिदृश्य में सामने आ गए तो देश की जनता उनके पीछे चल पड़ेगी। 
 
नेताजी के परिजनों की जासूसी क्या उसी खौफ के कारण थी? पं. नेहरू बिना किसी ठोस सबूत के इस बात का दावा करते थे कि नेताजी की मृत्यु फोरमोसा (अब के ताईवान) में एक विमान दुर्घटना में हो गई। वहीं कुछ का मानना है कि स्टालिन के रूस में उन्हें मृत्युदंड दिया गया। इसके साथ ही एक बहुत बड़ा वर्ग मानता है कि नेताजी ने गुमनामी बाबा के रूप में फैजाबाद में अपने अंतिम दिनकाटे। इन आशंकाओं का समाधान होना चाहिए ताकि देश महान क्रांतिकारी के बलिदान का सच जान सके। 
 
‘मिशन नेताजी’ में जुटे पत्रकार अनुज धर की पुस्तकें-‘बैक फ्रॉम डैड: इनसाइड द बोस मिस्ट्री’, इंडियाज बिगेस्ट कवर अप’ और ‘नो सीक्रेट्स’ में नेताजी से संबंधित कई चौंकाने वाले खुलासे हैं। 
 
राष्ट्रवादी ताकतों के निरंतर दबाव के बाद पं. नेहरू ने नेताजी की मौत की जांच के लिए शाहनवाज समिति का गठन तो किया, किन्तु यह भी सुनिश्चित किया कि समिति की रिपोर्ट में विमान दुर्घटना की बात ही सामने आए। इसीलिए समिति के सदस्य और नेताजी के भाई सुरेश बोस ने रिपोर्ट को सिरे से नकार दिया। 
 
1970 में विपक्ष के दबाव में इंदिरा गांधी ने जी.डी. खोसला समिति का गठन किया। इस समिति ने भी विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु होने की पुष्टि की। शाहनवाज और खोसला समिति की रिपोर्ट को 1978 में मोरारजी देसाई की सरकार ने खारिज कर दिया। इसके बाद सरकार ने 1999 में जस्टिस मुखर्जी समिति का गठन किया। इस समिति ने 2006 में रिपोर्ट सौंपते हुए यह बताया कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में न होकर रूस में बंदी जीवन में हुई। कांग्रेस नीत यू.पी.ए. सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया। आखिर कांग्रेस किन दस्तावेजों के बूते विमान दुर्घटना को ही अंतिम सत्य मानती है और यदि वे अकाट्य साक्ष्य हैं तो उन्हें जनता के सामने रखने से क्यों कतराती रही? 
 
वास्तव में यह सारी कवायद देश के स्वाधीनता संग्राम को एक वंश विशेष के नाम करने की साजिश से जुड़ी है। ब्रितानी हुकूमत से सत्ता संभालने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष के बलिदानी क्रांतिकारियों को हाशिए पर धकेल दिया गया। पंडित नेहरू के आसपास ऐसा आभामंडल विकसित किया गया, जैसे उन्होंने ही अपने बूते देश को आजादी दिलाई हो। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का आधिकारिक इतिहास लिखने वाली समिति से इसी कारण त्यागपत्र दे दिया था। वह स्वतंत्रता संघर्ष को गांधी-नेहरू की विरासत मानने से इन्कार करते थे।
 
भारत को आजाद कराने में अपने प्राण उत्सर्ग करने वाले बलिदानियों को स्वतंत्र भारत में यथोचित सम्मान देने की जगह सुनियोजित तरीके से उनके योगदान को विस्मृतकरने का प्रयास किया गया। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को भारत में आजादी के सिपाही का दर्जा नहीं दिया गया, जबकि मो. अली जिन्ना ने फौजके मुस्लिम सिपाहियों को सेना में भर्ती कर सम्मानित किया। 
 
‘‘कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाए जा,’’ इस क्रांतिकारी गीत के रचयिता आजाद हिन्द फौज के सिपाही कैप्टन राम सिंह ठाकुर को अनेकों अन्य वीर सेनानियों के साथ मुफलिसी में अंतिम दिन काटने पड़े। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक वंश विशेष के मृतकों के लिए तो दिल्ली के हृदय स्थल में यमुना का कछार समॢपत है, वहीं नेताजी का कोई स्मारक तक नहीं है। उन्हें संसद में भी जगह नहीं दी गई। 
 
1978 में जब पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार दिल्ली में आई तो केन्द्रीय कक्ष में नेताजी का चित्र लगना संभव हुआ। यक्ष प्रश्न है कि स्वतंत्रता संग्राममें अपने जीवन की आहूति देने वाले अमर क्रांतिकारियों के यशगान से कांग्रेस को विरक्ति क्यों है? 
 
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