ऐसी दशा में कन्या स्वयं अपने लिए योग्य वर ढूंढे

Edited By ,Updated: 24 Apr, 2015 01:13 PM

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वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं।

वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। साथ ही दोनों की पत्रिका में ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इनका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? यह भी सटिक अंदाजा लगाया जाता है। यदि दोनों की कुंडलियां के आधार इनका जीवन सुखी प्रतीत होता है तभी ज्योतिषी विवाह करने की बात कहता है।

 
कुंडली मिलान से दोनों ही परिवार वर-वधू के बारे में काफी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो और इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए। 
 
कुंडली के सही अध्ययन से किसी भी व्यक्ति के सभी गुण-दोष जाने जा सकते हैं। कुंडली में स्थित ग्रहों के आधार पर ही हमारा व्यवहार, आचार-विचार आदि निर्मित होते हैं। उनके भविष्य से जुड़ी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। कुंडली से ही पता लगाया जाता है कि वर-वधू दोनों भविष्य में एक-दूसरे की सफलता के लिए सहयोगी होंगे या नहीं। वर-वधू की कुंडली मिलाने से दोनों के एक साथ भविष्य की संभावित जानकारी प्राप्त हो जाती है इसलिए विवाह से पहले कुंडली मिलान किया जाता है।
 
इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का पूर्ण रुप से समाजीकरण हो जाता था। संतानोत्पत्ति द्वारा वह अपने वंश को जीवित रखने और उसको शक्तिमान बनाने और यज्ञों द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रतिज्ञा करता था। साथ ही वह व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करके धर्म संचय करके, अपने जीवन के लक्ष्य- मोक्ष की ओर अग्रसर होता था।
 
भारतीयों की धारणा थी कि बिना पत्नी के कोई व्यक्ति धर्माचरण नहीं कर सकता। मनु के अनुसार इस संसार में बिना विवाह के स्त्री- पुरुषों के उचित संबंध संभव नहीं है और संतानोत्पत्ति द्वारा ही मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त कर सकता है। प्राचीन भारत में यह समझा जाता था कि पत्नी ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्रोत है।
 
पुत्री का विवाह करना पिता का परम कर्तव्य समझा जाता था। यदि यौवन प्राप्त करने पर भी कन्या के अभिभावक उसका विवाह न करें, तो वे बड़े पाप के भागी होते थे। धर्मशास्कारों ने लिखा है कि ऐसी दशा में कन्या स्वयं अपने लिए योग्य वर ढ़ूढ़ कर विवाह कर सकती थी।
 
पंडित ‘विशाल’ दयानंद शास्त्री

vastushastri08@gmail.com

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