देश का ‘अन्नदाता’ कब तक गरीब कहलाएगा

Edited By ,Updated: 24 Apr, 2015 11:44 PM

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आजकल देशभर में किसानों की हालत पर गोष्ठियां, बहस, भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की बातों पर घनघोर चर्चा हो रही है।

(पूरन चंद सरीन): आजकल देशभर में किसानों की हालत पर गोष्ठियां, बहस, भूमि अधिग्रहण कानून बनाने की बातों पर घनघोर चर्चा हो रही है। लगता है कि अखबारों, टी.वी. चैनलों, राजनीतिक दलों में किसान की चर्चा का फैशन निकल पड़ा है जिसमें किसान कहीं नहीं दिखाई देता। हां, वह प्रधानमंत्री, मंत्री, विपक्ष के नेताओं को बोलते हुए टुकुर-टुकुर देख जरूर रहा होता है।

मोदी घोषणा, सोनिया-राहुल हुंकार, केजरीवाल आंसू, यह सब फैशन नहीं तो क्या है? आइए, पहले एक ऐतिहासिक हकीकत पर नजर डालें। भारत में विदेशी आक्रांताओं अर्थात् अंग्रेजों तथा मुगलों से पहले भारत की कृषि व्यवस्था इतनी मजबूत थी और खेतीबाड़ी इतनी सम्पन्न थी कि हमारा देश सोने की चिडिय़ा कहलाता था।
 
अब हम आते हैं उस प्रथा पर जिसे जमींदारी कहा जाता है। विदेशी हुक्मरानों ने सोने की चिडिय़ा के पर कतरने के लिए कुछ ऐसे लोगों की फौज खड़ी की जिन्हें जागीरदार कहा गया। ये लोग ही बाद में जमींदार कहलाने लगे। मुगलों और अंग्रेजों ने असरदार लोगों को राजाओं और नवाबों के खिताब देकर उन्हें अपना फरमाबरदार बना लिया। 
 
जमींदारी के साथ-साथ मालबाड़ी और रैयतबाड़ी का चलन शुरू हो गया। ये लोग मालिक और बाकी इनकी रियाया या प्रजा। लगान वसूलना, न मिलने पर किसान की कुर्की कराने से लेकर उसकी बहू-बेटियों तक को अपना शिकार बनाना, खेत जला देना तथा सभी तरह के अमानवीय कृत्य इनकी पहचान बन गए।
 
अंग्रेजी विरासत
असल में सन् 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने इस शोषण को कानूनी जामा पहना दिया और सन् 1894 में अंग्रेजों ने भूमि अधिग्रहण संबंधी काला कानून बना दिया जिसे बदलने की याद कांग्रेस को आजादी के बाद अभी सन् 2013 में आई। कांग्रेस ने सत्ता खो दी और अब इस विकलांग कानून को दुरुस्त करने के लिए मोदी सरकार ने उसमें कुछ जोड़-घटा कर दिया जिस पर संसद से सड़क तक चर्चाएं हो रही हैं।
 
एक तथ्य और भी है और वह यह कि लगान के रूप में कर वसूलने की मशीनरी को 1950 के दशक में बंद कर दिया। जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के कदम उठाए गए। विनोबा भावे का भू-दान आंदोलन शुरू हुआ और यह अपेक्षा की गई कि जिन जमींदारों के पास बेहिसाब जमीन है, वे उसे दूसरों में बांट देंगे। यह चोर को रखवाली का काम देना साबित हुआ और बड़े-बड़े जमींदारों ने अपनी बेहिसाब पूरी जमीन को अपने परिवारजनों से लेकर मातहतों और यहां तक कि पालतू जानवरों के बीच इस तरह बांट दिया कि मालिक वही रहें और कानून की गिरफ्त से भी बचे रहें।
 
अजब संयोग
यह जो मार्च-अप्रैल के महीने हैं, पता नहीं क्या संयोग है कि किसान आंदोलन ज्यादातर इन्हीं महीनों में हुए हैं। 15 अप्रैल, 1917 को बापू गांधी द्वारा चंपारण में किसान आंदोलन की शुरूआत हुई और अब 2015 के मार्च-अप्रैल में भी किसान आंदोलन कर रहे हैं। 
 
किसान की दुर्दशा का विषय साहित्यकारों से फिल्मकारों तक को लुभाता रहा है। प्रेमचंद के ‘गोदान’ से लेकर कृष्णचन्दर के उपन्यास ‘जब खेत जागे’ और दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं पर नजर डाल लीजिए, सब में किसान और जमींदार का रिश्ता शोषित और शोषक का ही नजर आएगा। यही कथावस्तु फिल्मों में भी नजर आती है। याद कीजिए कौन-सी फिल्म में इस विषय को नहीं छुआ गया?
 
कहने का मतलब यह कि एक ओर किसान को अन्नदाता कहते हैं तथा दूसरी ओर उसे गुलाम से ज्यादा अहमियत नहीं देते तो कैसे देश की 68 प्रतिशत देहाती आबादी 32 प्रतिशत शहरी आबादी की बातों पर भरोसा करे। सन् 2013 के प्रस्तावित कानून जिसमें बहुत-सी विकृतियां थीं, उसे 2015 में रूप बदलकर ठीक करने का प्रयत्न किया गया है। यह कानून तो बन ही जाएगा क्योंकि मोदी सरकार के पास इसे पास कराने के बहुत से विकल्प हैं।
 
इससे पहले कि वर्तमान कानून के गुण-दोष पर विचार करें, यह समझ लेना जरूरी है कि किसान वह प्राणी है जो सूरज निकलने से पहले अपने काम पर चला जाता है और दिन भर मेहनत करने के बाद रात को भी अक्सर खेतों पर  ही होता है। उसके परिवार के सभी लोग उसके साथ काम करते हैं। 
 
मतलब यह कि किसान के पास इतना वक्त ही नहीं होता कि अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और उनका करियर बनाने के बारे में सोचे या फिर इस बात की जानकारी ले कि सरकार की कौन-सी योजना उसके फायदे की है। उसे तो गांव के मुखिया और जमींदार की सेवा करनी है। वह मुफ्तखोर जमींदार के खेत पर बेगार करने को मजबूर है क्योंकि उसकी अपनी जमीन इतनी कम है कि उसका गुजारा होना भी कठिन हो जाता है।
 
सरकारी योजनाओं से उसे अगर सबसिडी या कर्ज मिल भी गया तो दलाली का हिस्सा कटने के बाद उसके हाथ जो रकम आती है, वह इतनी नहीं बचती कि वह खेतीबाड़ी में बढ़ौतरी कर सके। यह रकम उसकी घरेलू जरूरतों को पूरा करने में खर्च हो जाती है और वह साहूकार के साथ-साथ सरकार का भी कर्जदार हो जाता है।
 
चोर चोर मौसेरे भाई अब हम आते हैं वर्तमान प्रस्तावित बिल पर, जिसमें केवल कुछेक सुधार कर लिए जाएं तो यह एक महत्वपूर्ण और किसान के फायदे का सौदा हो सकता है। इस बिल में जो इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की बात कही गई है, उसमें यह कहीं नहीं बताया गया कि यह क्या और कैसा होगा। इसी तरह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पी.पी.पी.) किन चीजों के लिए की जाएगी और इंडस्ट्रियल कॉरीडोर में किन चीजों के कल-कारखाने लगेंगे।
 
कदाचित यह सब इसलिए नहीं बताया गया कि ज्यादातर राजनीतिक दलों की गति चोर चोर मौसेरे भाइयों की होती है। असलियत को छिपाना इनका धर्म और सबसे पहले अपना फायदा देखना इनका कर्म होता है।
 
ये सब वे राजनीतिज्ञ हैं, वोट बैंक की योजनाएं बनाना जिनका ध्येय होता है। नौकरशाहों को अपनी शतरंजी चाल के मोहरे समझते हैं और कानून इनकी जेब में होता है। यह सब हकीकत आए दिन हमारे सामने उजागर होती ही रहती है। चलिए शायद इनके कानों पर कोई जूं रेंग जाए, कुछ सुझाव देते हैं। 
 
जो जमीन सरकार अपने कब्जे में ले, उस पर खेतीबाड़ी की जरूरतों को पूरा करने वाला इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया जाए, जैसे कि कृषि के आधुनिक औजार बनाने के कारखाने; कृषि की नई तकनीकों  पर आधारित उद्योग; फूड प्रोसैसिंग, डेयरी उत्पादन, हॉर्टीकल्चर, फ्लोरीकल्चर, फिशकल्चर जैसी यूनिटें। इन कारखानों के खुलने से किसान के बच्चों को रोजगार मिल जाएगा और वह उसे खुशी से अपनाएगा क्योंकि इनका संबंध उसकी खेतीबाड़ी से होगा। इन सबकी सम्पूर्ण रूपरेखा आप देश के सामने रख दीजिए और फिर देखिए कि किसान आपका समर्थन करता है या नहीं?
 
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