संत अगर न होवते तो जल मरता संसार

Edited By ,Updated: 05 May, 2015 09:46 AM

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ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से जब भारत की जनता त्रस्त हो रही थी तथा दो विश्व युद्धों के कारण समस्त संसार दुख, अशांति, वैर-विरोध, घृणा के वातावरण से जूझ रहा था तो संवेदनशील मानवीय गुणों से भरपूर, प्रेम, शांति करुणा के मूर्तमान रूप, ईश्वरीय प्रेम के...

ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से जब भारत की जनता त्रस्त हो रही थी तथा दो विश्व युद्धों के कारण समस्त संसार दुख, अशांति, वैर-विरोध, घृणा के वातावरण से जूझ रहा था तो संवेदनशील मानवीय गुणों से भरपूर, प्रेम, शांति करुणा के मूर्तमान रूप, ईश्वरीय प्रेम के मसीहा परमसंत महाराज बूढ़ सिंह जी ‘बीर’ का अवतरण अमृतसर के निकट तुंगवाला गांव में 3 मई, 1905 में हुआ।

शिक्षा काल में ही यह ईश्वरीय प्रेम से ओत-प्रोत तथा मानवीय संवेदनाओं को जगाने वाली कविताएं लिखने लगे थे। प्रभु प्रेम में स्वाभाविक रूप से लीन रहने के कारण इन्हें छोटी आयु में ही ईश्वरीय साक्षात्कार हो गया था। इन्हें संसार में गृहस्थ जीवन अपनाते हुए मध्यम मार्ग का प्रचार करने का आदेश हुआ।

इनका विवाह माता जोगिन्द्र कौर से हुआ तथा तीन पुत्रों और दो पुत्रियों के पिता बने। जीवन-यापन के लिए नौकरी की तथा सांसारिक जीवन को कुशलतापूर्वक निर्वाह करते आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हुए। ‘काम करते चलो नाम जपते चलो’ पर स्वयं चले तथा अन्यों को चलने के लिए प्रेरित किया।

इन्हें अनेक भाषाओं इंगलिश, संस्कृत, उर्दू, हिन्दी, पंजाबी, फारसी आदि का ज्ञान था। इन्होंने फारसी में भी ‘वाणी’ की रचना की है। ईश्वर द्वारा इन्हें प्रदत्त ज्ञान इनकी पांच पवित्र किताबों में संकलित है। इनका ईश्वर प्रदत्त ज्ञान तीन सूत्रों पर आधारित है।

एक जोत सर्वव्यापक : सब प्राणीमात्र में एक ही ईश्वरीय ज्योति है। अत: जात-पात, धर्म, ऊंच-नीच, रंग में भेदभाव किए बिना सबसे निष्काम प्रेम करें। ईश्वर रूप देख उनकी सेवा करें। अपने अंदर मौजूद अहंकार मिटा आत्म तत्व की पहचान कर आत्मिक आनंद की प्राप्ति करें।

श्री प्रेम जी सहाय : ईश्वर प्रेम हैं तथा प्रेम ही ईश्वर है। समस्त जीवों में परमात्मा देख सब से प्रेम करें। प्रेम के द्वारा ही मानव आत्म ज्ञान तथा आनंद की प्राप्ति कर सकता है। 

‘तेरी मौज तू ही जान’ : यह सूत्र स्वीकार भाव पर आधारित है। वास्तव में ईश्वर ही सब कर्मों का कर्ता है। परमात्मा की रजा तथा हुक्म मान हंसते-हंसते सुख-दुख, मान-अपमान आदि को सम जान स्वीकार कर ईश्वर को कर्ता मानते हुए सर्वहितकारी कार्य करें।

महाराज बीर जी ने अपने जन्म दिवस पर लाहौर में 3 मई, 1947 को ‘रूहानी सत्संग प्रेम समाज’ की स्थापना की। तीन शब्दों के प्रचार द्वारा हजारों प्रेमियों के दिल में प्रभु प्रेम की ज्योति जगाई। विभाजन के बाद उन्होंने लाडोवाल (लुधियाना) में ‘रूहानी सत्संग प्रेम समाज’ को स्थानांतरित किया। जिसकी शाखाएं आज देश-विदेश में सत्य का प्रचार कर रही हैं। हजूर परम संत बीर जी अंतिम दिन तक सत्संग व प्रचार कार्य करते हुए 21 फरवरी, 1995 में ज्योति जोत समा गए तथा जाने से पूर्व इस मिशन की बागडोर हजूर कमलबीर जी के समर्थ हाथों में सौंप गए।

—प्रोफैसर राजकौल

 

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