गैर-सरकारी संस्थाओं को परेशान करना ‘दुर्भाग्यपूर्ण’

Edited By ,Updated: 06 May, 2015 04:20 AM

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दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संस्थाओं) को परेशान कर रही है।

(कुलदीप नैयर) दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संस्थाओं) को परेशान कर रही है। शायद पार्टी के नेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि इसके कई सदस्य कभी खुद एन.जी.ओ. थे। इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन के खिलाफ सफल लड़ाई लडऩे के बाद जनसंघ जनता पार्टी में मिल गया। वे लोग उस समय मानवाधिकारों को बचाने की लड़ाई का हिस्सा थे जब कांग्रेस ने मानवाधिकारों को निर्ममता से कुचल डाला था। वही लोग अब एन.जी.ओ.-विरोधी कैसे हो सकते हैं?
 
स्वयंसेवी संस्थाओं की खाता-बही की जांच और पड़ताल वित्त मंत्रालय नियमित रूप से करता है। सभी विदेशी धन सरकार के जरिए ही आता है। किसी ठगी की कम ही गुंजाइश है। प्रक्रिया में बदलाव का मतलब परेशानी के अलावा और कुछ नहीं है। सरकार की अनुमति  पहले लेने का मतलब है कि उस धन के लिए कभी खत्म नहीं होने वाला इंतजार कीजिए जिसे उस जगह बिना देरी के पहुंचना चाहिए जहां समाजसेवी काम करते हैं। 
 
मुझे आश्चर्य है कि उस जांच को भाजपा भूल गई जो 1980 में सत्ता में वापस आने के बाद इंदिरा गांधी ने गांधी शांति प्रतिष्ठान के खिलाफ कराई थी। उस समय के जनसंघ के कार्यकत्र्ताओं को बेवजह दंडित किया गया था। भाजपा उस जनसंघ का ही नया अवतार है जिसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार और बोलने की आजादी के लिए होने वाले आंदोलनों में हिस्सा लिया था।
 
मैं तीस्ता सीतलवाड़ और जावेद आनंद, दोनों को जानता हूं। वे अपनी  बेदाग ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनकी लगातार लड़ाई सैकुलरिज्म के इतिहास में चमकने वाला पन्ना है। यह तो कहा जा सकता है कि  भाजपा का हिन्दू विचारधारा की ओर झुकना दुर्भाग्य की बात है। इसका मतलब यह नहीं कि जो संविधान की सैकुलर भावना को सामने लाने के लिए संकीर्णता के खिलाफ लड़  रहे हैं वे गलत समझते हैं।
 
आजादी हासिल करने के बाद संविधान सभा ने कई तरह की सरकारों के बारे में बहस की लेकिन जिसे समाज के हर तबके का समर्थन मिला वह थी सैकुलर शासन व्यवस्था। इसे खत्म करने का मतलब है लोकतांत्रिक, सैकुलर गणतंत्र स्थापित करने के लिए दी गई लाखों लोगों की कुर्बानी का मजाक उड़ाना।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिनके बारे में कहा जाता है कि उन गुजरात दंगों के पीछे उनका हाथ था जो हजारों की संख्या में मुसलमानों की हत्या के लिए जिम्मेदार था, ने भी यह समझ लिया है कि धार्मिक आधार पर समाज को बांटने का कोई अर्थ नहीं है। यह एक स्वस्थ बात हुई है कि मोदी खुद कहते हैं सबकी सरकार, सबका विकास।
 
मुझे याद है कि जब मैं लंदन में  हाई कमिश्नर था तो यहूदियों का एक प्रतिनिधिमंडल मुझसे मिला था। वह भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करने आया था जो सहनशीलता का प्रतीक बन गया है।  उन्होंने कहा कि दुनिया में यही एक देश है जहां यहूदियों को कभी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। उस समय नई दिल्ली ने इसराईल को मान्यता नहीं दी थी लेकिन उन्होंने इसे मुद्दा नहीं बनाया।
 
सबसे बेचैन करने वाली बात यह है कि सैकुलरिज्म को अब तक अपनी जड़ें गहरी कर  लेनी चाहिए थीं लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाया। आजादी के 68 सालों में जितनी आॢथक तरक्की भारत को करनी चाहिए थी उसने की। संभव है तेज विकास इसका उत्तर हो। इस मामले में गांवों का पिछड़ापन हमारी असफलता का सबूत है। किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़  हैं लेकिन वे ही सबसे ज्यादा तकलीफ झेल रहे हैं। देश के सभी हिस्सों में उनकी आत्महत्या का मतलब है कि उत्पादन का फायदा उन तक नहीं पहुंचा है। यहां तक कि पीने का साफ पानी भी उनके लिए एक मृगतृष्णा है।
 
सम्पन्न महाराष्ट्र में एक और किसान ने आत्महत्या कर ली है। मार्च के बाद हुई आत्महत्याओं में यह नौवीं है। बाकी राज्यों से आ रही खबरें भी परेशान करने वाली हैं। किसान खेती की बढ़ती लागत का खर्चा नहीं उठा पा रहा है। राजस्थान के एक किसान की नई दिल्ली की आम सभा में आत्महत्या के बाद मुझे लगा था कि उसकी मौत शासन करने वालों की भावना को छुएगी और राष्ट्र गंभीरता से इस पर फोकस करेगा कि किसानों की दशा किस तरह सुधारी जाए।
 
ठीक है कि संसद में हंगामा हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपना शोक व्यक्त किया लेकिन जल्दी ही सब कुछ वैसे हो गया जैसा चल रहा था। किसानों को भुला दिया गया। मैं इसका कोई खाका तैयार नहीं कर सका हूं कि किसान की दशा कैसे बेहतर बनाई जाए। वास्तव में भूमि अधिग्रहण बिल का संसद में पेश होने का मतलब है कि कार्पोरेट सैक्टर की ही चली है।
 
सबसे जरूरी है किसानों की चिंता लेकिन उसे छोड़ दिया गया है। मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। यहां तक कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में विरोधी दलों का राष्ट्रपति भवन की ओर मार्च भी बीते अतीत की बात हो गई। मुझे यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि देश के 67 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर करते हैं लेकिन अब खेत जान लेने वाले क्षेत्र बन चुके हैं।
 
बेशक कार्पोरेट सैक्टर नौकरी देता है लेकिन उसे महत्व देना आजादी की लड़ाई की भावना के खिलाफ है। महात्मा गांधी ने ग्रामीण इलाकों के लोगों पर ध्यान दिया और एक बड़े शहर को छोड़कर वर्धा जैसी छोटी जगह में चले गए। वर्धा बाद में हमारे देश का एक महत्वपूर्ण शहर बन गया। एन.जी.ओ. महात्मा के कामों को आगे ले जा रहे हैं। 
 
करीब 900 एन.जी.ओ. को अनुदान बंद कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने अपना हिसाब-किताब ठीक से नहीं रखा था। उनकी आमदनी की जांच करने का उद्देश्य यह होना चाहिए कि धन की कुल मिलाकर हुई चोरी के बारे में पता लगाया जाए। उनसे यह उम्मीद करना गलत नहीं है कि वे हिसाब-किताब ठीक रखें लेकिन आखिरी पैसे का भी हिसाब मांगना ज्यादती है क्योंकि एक्टिविस्ट जमीन पर रोज के काम में लगे होते हैं।

शायद तीस्ता और आनंद ने जो काम शुरू किया है वह सत्ताधारी पार्टी को पसंद नहीं हो क्योंकि विचारधारा के हिसाब से दोनों अलग-अलग छोरों पर हैं। पहला मिले-जुले समाज में यकीन करता है, जबकि दूसरा वैसे लक्ष्य में लगा है जो बांटने वाला है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। आजादी सैकुलर लोकतांत्रिक समाज के लिए लड़ी गई थी और समाज उसी पर टिका रहेगा। 

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