क्या भाजपा, क्या कांग्रेस-सभी पार्टियां एक जैसी

Edited By ,Updated: 07 May, 2015 12:29 AM

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खेमका पुराण अभी खत्म नहीं हुआ। पीछे अखबारों में बड़े-बड़े शब्दों में खबर छपी थी कि हरियाणा के आई.ए.एस. अधिकारी श्री अशोक खेमका को ट्रांसपोर्ट कमिश्रर की

(ईश्वर डावरा): खेमका पुराण अभी खत्म नहीं हुआ। पीछे अखबारों में बड़े-बड़े शब्दों में खबर छपी थी कि हरियाणा के आई.ए.एस. अधिकारी श्री अशोक खेमका को ट्रांसपोर्ट कमिश्रर की ग्लैमरस पोस्ट से एक निष्प्रभावी व परिणाम-रहित पोस्ट पर अचानक इसलिए बदल दिया गया था कि वह कायदे-कानून जरा ज्यादा ही सख्ती से लागू करके राज्य में अराजकता फैला रहे थे। दूसरे शब्दों में, सरकार की सोच यह थी कि कायदे-कानून बना तो दो परन्तु उन्हें पब्लिक की मर्जी के बिना लागू मत करो। बिल्कुल वैसा ही जैसा कवि इकबाल ने किसी वक्त कहा था :

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रकाा क्या है। इल्जाम यह नहीं था कि खेमका के लगाए कायदे-कानूनों में कोई त्रुटि थी या बदनीयती थी पर उन्हें एकदम व सख्ती से लागू कर राज्य में धड़ल्ले से कानून की उल्लंघना कर रहे मालवाहक वाहनों को उन्होंने 3 बार हड़ताल पर जाने को विवश किया। अब दोष तो सरकार का है कि वह सिर्फ कानून बना कर सुरखुरू होना चाहती है, उन्हें लागू करने-न करने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं। यह एक अजीब स्थिति है जिसमें फंसे ईमानदार अधिकारी कई बार दुर्घटनाएं होने की सूरत में कानून की पालना न करने के जुर्म में सूली पर लटका दिए जाते हैं। अब यह मानने वाली बात नहीं कि कोई जिम्मेदार अधिकारी अचानक ही रातों-रात ओवरलोडिड ट्रकों पर शिकंजा कस के अफरा-तफरी मचा देगा।
 
ऐसे हालात में पहले कसूरवारों को चेतावनी दी जाती है-एक बार नहीं कई बार-पर कार्रवाई नहीं होती-भ्रष्टाचार व राजनीतिक कारणों से। जब सब्र का प्याला भर जाता है तभी खेमका जैसे अधिकारी सख्त कार्रवाई करते हैं।
 
अब क्योंकि हर राज्य में ट्रांसपोर्ट लॉबी एक मजबूत वोट बैंक है और उन्होंने कई छोटे-बड़े राजनेता भी गांठ रखे होते हैं तो उनके लिए सरकार पर दबाव डाल कर गुस्ताख अफसरों को खुड्डे लाइन लगवा कर अपनी मनमानी करते रहना कोई बड़ी बात नहीं।
 
श्री खेमका ने ट्रांसपोर्ट दिग्गजों की कानून लागू करने से पहले ‘रकाा’ नहीं ली तो सरकार ने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी से दुव्र्यवहार कर उनका गुस्सा ठंडा कर दिया। बाकी सभी बातें केवल अप्रासंगिक हैं और ‘भाजपा भी ऐसी ही निकली’ जैसे आरोप लगाने का भी क्या फायदा? सारे राजनेता चाहे वे किसी पार्टी के हों, अपने फायदे के लिए एक ही रास्ते पर चलते हैं।
 
हिन्दी फिल्मों का रोमांटिक युग
1948 में जब कई छिटपुट फिल्मों में काम करने के बाद राज कपूर ने अपने फिल्मी बैनर के तहत पहली फिल्म ‘आग’ बनाने की सोची तो उसे किसी अच्छे स्टूडियो की तलाश थी। ‘आग’ के लिए वह पहले से ही दो हीरोइनों को तो साइन कर चुका था-निगार सुल्ताना और कामिनी कौशल। दोनों उस वक्त की मशहूर अभिनेत्रियां थीं। कामिनी कौशल तो ‘शहीद’, ‘नदिया के पार’ व ‘शबनम’ जैसी फिल्मों में दिलीप कुमार के साथ काम करके उसकी रोमांटिक सहचरी बन चुकी थी, पर समाज की अड़चनें इस रोमांस को स्वतंत्र ढंग से विकसित होने नहीं दे रही थीं।  
 
फिल्म ‘आग’ की कहानी भी इंद्रराज आनंद ने लिख रखी थी, शूटिंग के लिए स्टूडियो की तलाश शुरू हुई तो किसी ने राज को नर्गिस की मां जद्दन बाई से सलाह लेने के लिए कहा। वह ताजी-ताजी अपनी बेटी की फिल्म ‘रोमियो जूलियट’ मुकम्मल कर फारिग हुई थी। जब राज जद्दन बाई के मैरीन ड्राइव फ्लैट पर पहुंचा तो दरवाजा खोला 18 वर्षीय नर्गिस ने- एक खूबसूरत चेहरे पर बिखरे बालों और गीले आटे के नाक पर बने निशान लिए राज के लाल सुर्ख चेहरे को कौतूहल से परखती उसकी बड़ी-बड़ी आंखों ने राज के दिलो-दिमाग पर नर्गिस की रोमांटिक छवि का ऐसा इम्प्रैशन छोड़ा जिसे वह उम्र भर मन में संजोए रहा-यहां तक कि 1973 में अपने बेटे ऋषि कपूर की फिल्म ‘बॉबी’ में डिम्पल कपाडिय़ा से उस अविस्मरणीय रोमांटिक छटा की पुनरावृत्ति करवा दी।
 
जद्दन बाई तो घर पर थी नहीं, पर नर्गिस के आटे से सने फेस की कल्पना करते-करते राज ने फैसला कर लिया कि यह लड़की फिल्म ‘आग’ की हीरोइन होगी। ‘आग’ से पहले भी नर्गिस कई फिल्मों में काम कर चुकी थी। उसकी बाल्यकाल की फिल्मों को नजरअंदाज कर दें तो वह फिल्म ‘तकदीर’ व ‘हुमायूं’ फिल्म में मोती लाल व अशोक कुमार के साथ काम करने के अलावा उस वक्त के प्रख्यात अभिनेता दिलीप कुमार के साथ फिल्म ‘अनोखा प्यार’ व ‘मेला’ में काम कर चुकी थीं। दोनों फिल्मों के गाने आज भी सुनाई दे जाते हैं वरना उनमें सिवाय गानों व अच्छे अभिनय के कुछ नहीं था। ‘मेला’ व ‘आग’ 1948 में रिलीज हुईं। 
 
‘आग’ फिल्म से पहले ही राज व नर्गिस की आपसी रोमांटिक कैमिस्ट्री की कहानियां मशहूर हो चली थीं। ‘आग’ की शूटिंग के दौरान ही नर्गिस ने अपनी सह-कलाकार व फ्रैंड नीलम के कानों में डाला था कि ‘पिंकी (राज का पैट नाम) छेड़छाड़ करता है।’ फिल्म ‘आग’ को औसत सफलता मिली। ‘बरसात’ राजकपूर ने 1949 में रिलीज की। ‘मदर इंडिया’ के बाद नर्गिस की दूसरी यादगारी फिल्म ‘अन्दाज’ भी 1949 में आई थी। ‘अंदाज’ दिलीप कुमार पर केंद्रित थी पर जो सफलता ‘बरसात’ को मिली वह ‘अंदाज’ को न मिल सकी। ‘अंदाज’ में सब कुछ था- जबरदस्त कहानी, शानदार संगीत-तीनों महान सितारों-दिलीप, नर्गिस व राज का न भूलने वाला अभिनय। 
 
‘अंदाज’ एक क्लासिक फिल्म थी परन्तु ‘बरसात’ में बनी राज व नर्गिस की रोमांटिक कैमिस्ट्री के आगे वह दर्शकों को फीकी लगी। ‘बरसात’ में हमारे दर्शकों ने पहली बार किसी युवा प्यार की विश्वसनीय छटा देखी-राज व नर्गिस की जोड़ी के ‘एक-दूजे के लिए’ वाली स्क्रीन इमेज से मंत्रमुग्ध हुए रोमांस के दिलदादा दर्शकों ने ‘बरसात’ बार-बार देखी जबकि ‘अंदाज’ की कोई रिपीट वैल्यू नौजवान दर्शकों में नहीं थी। ‘बरसात’ में भारतीय दर्शक राज और नर्गिस की दैहिक कैमिस्ट्री व उन्मुक्त प्यार देख कर उन पर ऐसे फिदा हुए कि राज कपूर ने नर्गिस को लेकर जो-जो फिल्में बनाईं ‘आवारा’, ‘श्री चार सौ बीस’, ‘आह’ सभी को अपार सफलता मिली। 
 
हैरानी इस बात की है कि इन दोनों की अन्य नॉन-आर.के. फिल्मों को वैसी सफलता नहीं मिली-‘बेवफा’, ‘जान-पहचान’, ‘पापी’, ‘आशियाना’, ‘अनहोनी’ वगैरह पर ‘चोरी-चोरी’ राज और नर्गिस के चोंचलों व रोमांटिक अभिनय के कारण काफी चली।
 
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि नर्गिस हिन्दी फिल्मों की महानतम अभिनेत्रियों में से थी। देश ने नर्गिस की उपलब्धियों की कद्र करते हुए उसे ‘पद्मश्री’ से नवाजा, राज्यसभा का सदस्य बनाया, उसके पति सुनील दत्त ने भी अभिनय व राजनीतिक जीवन में बहुत सफलता पाई, बेटी नम्रता भी सांसद है। अफसोस यही रहा कि सफलता के शिखर पर पहुंचा कर जिन्दगी ने 50 वर्ष की अल्पायु में ही उसका साथ छोड़ दिया। नर्गिस की पुण्यतिथि थी 3 मई।  
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