‘समझौते का महत्व’ समझ गए हैं मोदी

Edited By ,Updated: 23 May, 2015 11:23 PM

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प्रधानमंत्री के रूप में एक वर्ष की अवधि ने शायद नरेन्द्र मोदी को समझौते और आपसी समझ-बूझ का महत्व सिखा दिया है।

(वीरेन्द्र कपूर): प्रधानमंत्री के रूप में एक वर्ष की अवधि ने शायद नरेन्द्र मोदी को समझौते और आपसी समझ-बूझ का महत्व सिखा दिया है। गुजरात में उन्होंने अपनी मर्जी चलाई और अपनी पार्टी अथवा हतोत्साहित हो चुके विपक्ष की कभी परवाह नहीं की। वैसे जो भी उनकी पसन्द की बातें थीं जिन्हें उन्होंने काफी हद तक व्यावहारिक रूप दिया वे गुजरात के भले के लिए ही थीं।
 
लेकिन राष्ट्र का शासन चलाना बिल्कुल ही एक अलग बात है। लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के बावजूद अपना संवैधानिक एजैंडा आगे बढ़ाने के लिए अभी भी विपक्ष के साथ अच्छे संबंध बनाने की जरूरत है।
 
राज्यसभा में केवल संख्या बल की कमी ही एकमात्र ऐसा मुद्दा नहीं जिसके चलते विपक्ष के प्रति उन्हें समझौतावादी रुख अपनाने की जरूरत है। यदि वह राज्यसभा में भी बहुमत हासिल कर लेते हैं तो भी संसद के अंदर और बाहर सुचारू रूप से काम चलाने के लिए सरकार विपक्ष को प्रसन्न रखने का प्रयास करती ही रहेगी।
 
चूंकि गैर-सरकारी पार्टियों के लिए सदा ही अपनी गतिविधियां चलाने  के लिए लंबी-चौड़ी गुंजाइश मौजूद रहती है इसलिए सदन के अंदर सदस्यों की संख्या कम होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि संसद से बाहर भी उनकी स्थिति इतनी ही महत्वहीन है। जिसके पक्ष में अधिक वोटें निकलती हैं वही उम्मीदवार विजयी घोषित हो जाता है लेकिन अन्य उम्मीदवारों के साथ भी काफी लोग होते हैं।
 
बहुत प्रसन्नता की बात है कि भूमि अधिग्रहण कानून में प्रस्तावित बदलावों सहित कुछ अन्य कुंजीवत विधेयकों के मामले में मुंह की खाने के बाद मोदी ने विभिन्न विपक्षी गुटों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने में कोई सुस्ती नहीं दिखाई। वैसे कांग्रेस पार्टी से किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद करना एकदम व्यर्थ है क्योंकि यह पार्टी बिना किसी विशेष कारण से केवल इसलिए हर मुद्दे पर सरकार का विरोध करने पर तुली हुई है कि मोदी के कारण ही नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से राजनीतिक सत्ता फिसल गई है। यह खानदान अभी तक इस भ्रम में है कि भारत पर शासन करने का इसने लाइसैंस ले रखा है। 
 
फिर भी अन्य विपक्षी गुट इस प्रकार की मानसिकता के शिकार नहीं हैं और उन्होंने सरकार की ओर से बढ़ाए गए दोस्ती के हाथ को स्वीकार कर लिया है। 
 
मोदी बहुत तेजी से सबक सीखते हैं। इसलिए पूरी सम्भावना है कि संसद का मानसून सत्र बिना किसी झंझट के सम्पन्न होगा और परिवार नियंत्रित कांग्रेस पार्टी की ढीठताई के बावजूद सत्तारूढ़ गठबंधन कुंजीवत विधेयकों  को पास करवाने में सफल रहेगा। भूमि अधिग्रहण और जी.एस.टी. जैसे विधेयक संसद में पारित हो ही जाएंगे, बेशक कांग्रेसी नेता स्वचालित मशीनों की तरह मोदी के विरुद्ध गरीब-विरोधी  व किसान विरोधी होने का कितना भी ढोल पीटते रहें। 
 
प्राइवेट बातचीत में यू.पी.ए. के प्रमुख नेता यह बात मानते हैं कि भूमि अधिग्रहण कानून के प्रस्तावित संशोधन आधारभूत ढांचे और पब्लिक सैक्टर परियोजनाओं को विस्तार देने के लिए अत्यंत जरूरी हैं।
 
फिर भी मोदी सरकार की प्रथम वर्षगांठ पर आम लोग सरकार की कारगुजारी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं हैं। वैसे इस सरकार की कारगुजारी का आकलन करने का समय अभी आया भी कहां है? यह समय तो 2019 में आएगा। किसी के मन में भी यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि अन्य किसी की तुलना में मोदी ही लोगों के साथ किए गए वायदों को पूरा करने के लिए कहीं अधिक प्रतिबद्ध हैं। 
 
वह अपने काम के प्रति इतना जुनून की हद तक समॢपत हैं कि उनसे आयु में 10-15 साल छोटे मंत्री भी उनके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। अक्सर ही ऐसा होता है कि वह बड़े तड़के ही किसी मंत्री को फोन ‘खड़का’ देते हैं और किसी विशेष परियोजना के विवरण पूछने शुरू कर देते हैं।
 
वरिष्ठ नौकरशाह, जो अनेक सरकारों के साथ काम करने का अनुभव रखते हैं, खुलेआम यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने आज तक ऐसा प्रधानमंत्री नहीं देखा जो हर मुद्दे पर सटीक जानकारी रखता हो। अपने विचारों को अमलीजामा पहनाने के मामले में वह इतने एकाग्र भाव से समपत हैं कि कोई छोटा-मोटा विवरण भी उनकी नजरों से ओझल नहीं होता।
 
वास्तव में प्रधानमंत्री में यदि कोई नुक्स निकाला जा सकता है तो वह केवल इतना है कि वह सरकार के उच्च पदों  पर आसीन हर व्यक्ति को कार्य की सामान्य अवधि के बाद भी काफी समय तक रोके रखते हैं। पूर्व सरकार की तुलना में यह बहुत ताजा-दम करने वाली बात है। उस सरकार के दौरान तो हर कोई अपने मन की मौज के अनुसार काम करता था और जहां तक निर्णय प्रक्रिया की बात है वह पार्टी के उच्च कर्णधारों और मुठ्ठी भर कार्पोरेट घरानों को ‘आऊटसोर्स’ कर दी गई थी एवं जिन्होंने इस धंधे से अपार धन कमाया।   

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