आज भी अंग्रेजों की नीतियों के ‘गुलाम’ हैं हम

Edited By ,Updated: 29 May, 2015 11:45 PM

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अंग्रेजी राज की काली करतूतों को सरंजाम देने वाले लार्ड मैकाले का नाम नफरत से लिया जाता है क्योंकि उसने हमारी शिक्षा व्यवस्था को तहस-नहस कर उससे केवल अंग्रेजपरस्त बाबुओं की फौज खड़ी करने का काम किया था।

(पूरन चंद सरीन): अंग्रेजी राज की काली करतूतों को सरंजाम देने वाले लार्ड मैकाले का नाम नफरत से लिया जाता है क्योंकि उसने हमारी शिक्षा व्यवस्था को तहस-नहस कर उससे केवल अंग्रेजपरस्त बाबुओं की फौज खड़ी करने का काम किया था।

उसके बाद हुआ सन् 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम जिसे कुचलने और फिर कभी दोबारा कोई भारतवासी ऐसी जुर्रत न कर सके, का पुख्ता इंतजाम करने के लिए इम्पीरियल सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) की शुरूआत कर दी। आजादी मिलने तक आई.सी.एस. अधिकारियों ने हरेक भारतीय की नाक में नकेल कसने का काम किया और ऐसे-ऐसे कानून बनाए जिनका इस्तेमाल सिर्फ अंग्रेजों के फायदे के लिए ही हो सके। हमारी तसल्ली के लिए भारतीयों को भी आई.सी.एस. बना कर उनके जैसे हुक्मरान बनने का चारा डाला गया जो एक  तरह से  हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को नष्ट करने का ही प्रयास था।
 
आजादी के बाद कांग्रेसी सरकार ने अंंगे्रजों की छोड़ी काली शिक्षा नीति को सिर्फ लीपापोती कर हम पर थोप दिया और शासन के लिए आई.सी.एस. को आई.ए.एस. और एलाइड सर्विसिज में बदलकर गुलामी की परम्परा को आजाद भारत में भी जारी रहने दिया। ये दोनों नीतियां ही आज हमारी ज्यादातर दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। न जाने किन हालात में लौह पुरुष सरदार पटेल ने आई.सी.एस. को बढिय़ा कहा और न जाने क्यूंं नेहरू जी ने अंग्रेजों की शिक्षा नीति को बरकरार रखा और कहा कि अब भारतीयों को ब्रिटिश शासन की विरासत के रूप में अंग्रेजी भाषा ज्यादा अच्छी आती है।
 
खैर जो भी हो, इस हकीकत को हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भांप लिया और तब ही शिक्षा नीति को बदलने और अखिल भारतीय सेवाओं में अकादमिक, प्रोफैशनल और विज्ञान तथा टैक्नोलॉजी के क्षेत्रों से लोगों को लाए जाने की अपील की।
 
दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल केन्द्र सरकार पर अधिकारियों की नियुक्ति को लेकर दखलअंदाजी करने के आरोप लगा रहे हैं। ये आरोप अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी लगाते रहे हैं।
 
उपराज्यपाल द्वारा श्रीमती गैमलिन की नियुक्ति किए जाने पर केजरीवाल ने उन पर भ्रष्ट होने का सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाया। उसके जवाब में गैमलिन ने बड़ा ही मिमियाता-सा प्रतिरोध किया जबकि होना यह चाहिए था कि इस आरोप को सिद्ध करने की बात कही जाती, जांच बिठाने से लेकर स्वयं त्यागपत्र देने तक की बात कही जाती लेकिन ऐसा नहीं हुआ। केन्द्र सरकार से एक नोटिफिकेशन जारी होता है, हाई कोर्ट द्वारा उस पर अमल करने से रोक लगा दी जाती है। केजरीवाल सरकार केन्द्र सरकार को अंगूठा दिखा देती है।
 
यह सब क्या है, और कुछ नहीं, एक-दूसरे की पीठ सहलाते हुए जनता को मूर्ख समझने और बातों के जाल में उलझाने की प्रक्रिया है ताकि विकास की तरफ से ध्यान बंटाया जा सके। आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई. एफ.एस. और दूसरी प्रशासनिक सेवाओं में ऐसा क्या है कि युवा वर्ग इनका आकर्षण महसूस करता है और ‘एक बार ट्राई करने’ के बारे में अवश्य सोचता है।
 
यह आकर्षण है निरंकुश अधिकार, मादक सत्ता और विशेष सम्पन्न वर्ग का दर्जा। इसमें यह और जोड़ दें कि रिश्वत के लेन-देन को बेशर्मी की हद तक पहुंचा देना भी इन सेवाकर्मियों का कर्म है। ऐसे लोगों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है जिन्होंने अपनी कुर्सी से ऊपरी कमाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और ईमानदारी व निजी स्वार्थ को परे रखकर नौकरी करने वाले अधिकारियों को चिराग लेकर खोजना पड़ेगा।
 
असीमित भ्रष्टाचार हमारी प्रशासनिक सेवाओं को दुनिया की सबसे खराब व्यवस्था माना जाता है। हांगकांग स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय एजैंसी ने हमें 10 में से केवल 9.2 अंक दिए हैं जो हमारे मान-सम्मान पर न केवल ठेस है बल्कि शर्म से सिर झुकाने को भी जी चाहता है। खुद सरकार के प्रशासनिक सुधार विभाग ने 2012 में इन सेवाओं मेंं घोर भ्रष्टाचार होने की बात को स्वीकार किया है। इसीलिए नवम्बर 2011 में 15 साल की नौकरी के बाद उन्हें रिटायर कर दिए जाने का प्रस्ताव रखा। 
 
उल्लेखनीय है कि भ्रष्ट अधिकारियों के पकड़े जाने पर इनके पास से कुछ लाख या करोड़ रुपए नहीं मिलते बल्कि सैंकड़ों करोड़ रुपए नकद और सम्पत्ति के रूप में मिल जाते हैं। पिछले वर्षों में जितने भी घोटाले हुए हैं क्या वे ऊंचे पदों पर बैठे हुए सचिव और समकक्ष अधिकारियों की मिलीभगत के बिना हो सकते थे? इस तरह की खबरें आए दिन टी.वी. और समाचारपत्रों में आती ही रहती हैं।
 
50 हजार की संख्या वाली यह फौज सवा सौ करोड़ देशवासियों की किस्मत लिखती है। दो-चार अपवादों को छोड़कर ज्यादातर अधिकारियों को काम के बदले अपना हिस्सा मांगने में कोई लज्जा अनुभव नहीं होती। सरकारी नौकरी के दौरान केवल दो विकल्प होते हैं ; रिश्वत के सागर में गोते लगाए जाएं या इस्तीफा देकर कुछ और किया जाए। ज्वाइंट सैक्रेटरी से लेकर सैक्रेटरी, चीफ सैक्रेटरी और विभिन्न विभागों के प्रमुखों तक की नियुक्ति का आधार केवल सीनियोरिटी होता है, उनकी कार्यक्षमता या उस विषय की पूरी जानकारी नहीं।
 
अब होता यह है कि जब तक प्रमुख पद पर बैठा दिया गया अधिकारी साल-दो-साल में अपना काम समझ पाता है, उसकी पदोन्नति हो जाती है या वह किसी मलाईदार पोसिंटग पर जाने का जुगाड़ कर लेता है। ट्रांसफर और पोसिंटग को एक इंडस्ट्री  के रूप में चलाए जाने का मनीष सिसोदिया का आरोप गलत नहीं है।
 
आम नागरिक की मजबूरी
अब चक्की के दो पाटों के बीच कौन पिसता है? एक तो साधारण जनता और दूसरा वह अधिकारी वर्ग जो टैक्नीकल बातों का जानकार होने के नाते पूरे मंत्रालय, विभाग या उद्यम को चलाने की धुरी है लेकिन उसकी हैसियत एक बंधुआ मजदूर से अधिक नहीं होती। उसकी हालत यह है कि वह जिस टैक्नीकल पद पर नियुक्त होता है, रिटायर होने तक सामान्यत: उसी पद पर रहता है। इसके विपरीत आई.ए.एस. तथा एलाइड सॢवस वाले धड़ाधड़ पदोन्नति की सीढिय़ां चढ़ते जाते हैं, चाहे वे उसके योग्य हों या नहीं। ब्यूरोक्रेट और टैक्नोक्रेट की वास्तविकता यह है कि एक शोषणकत्र्ता है और दूसरा शोषित। यह असमानता ही योजनाओं पर वर्षों तक अमल न करने देने के लिए जिम्मेदार है।
 
प्रोजैक्टों के समय पर पूरा न होने और सरकारी योजनाओं का लाभ लाभार्थी तक न पहुंचाने देने के लिए भी यही प्रशासनिक व्यवस्था जिम्मेदार है। क्या अब समय नहीं आ गया है कि वर्तमान व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने की दिशा में कदम उठाया जाए, राजीव गांधी के राज में रुपए में से कुछ पैसे ही जनता के हिस्से में आते थे, मोदी जी का संकल्प कि पूरा रुपया जनता की झोली में आए तो उसके लिए पूर्ण बहुमत वाली  वर्तमान  सरकार  को अगर संविधान में संशोधन भी करना पड़े तो क्या यह जरूरी नहीं है?
 
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