कबीर जी के प्रकटोत्सव पर उनकी जीवन साधना से मन की आंखें खोलें

Edited By ,Updated: 02 Jun, 2015 08:53 AM

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कबीर साहब ने अपनी वाणी के उपदेश को साखी कहा है। साखी के बिना हम अज्ञानता के अंधकार में डूबे रहते हैं। साखी अज्ञानता के अंधकार को प्रकाश में बदल देती है। साखी भीतर की अज्ञानता को दूर करती है। संसार जो बंधनों में बंधा हुआ है और इनको सच मान कर अपने...

कबीर साहब ने अपनी वाणी के उपदेश को साखी कहा है। साखी के बिना हम अज्ञानता के अंधकार में डूबे रहते हैं। साखी अज्ञानता के अंधकार को प्रकाश में बदल देती है। साखी भीतर की अज्ञानता को दूर करती है। संसार जो बंधनों में बंधा हुआ है और इनको सच मान कर अपने आपको गुमराह कर रहा है। कबीर साहब की साखियां मन की आंखें खोलती हैं और सत्य तक पहुंचाती हैं। कबीर साहब ने अपनी साखियों में कहा है कि सच तक पहुंचने के लिए ज्ञान का होना परम् आवश्यक है।

पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय, ढाई  अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थात: पौथी पढ़-पढ़ कर सारा संसार मर गया पर कोई पंडित नहीं हुआ। पर जो आपसी प्रेम और भाईचारे का अक्षर पाठ पढ़ लेता है वही पंडित है :

प्रेमी ढूंढत मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोई।
प्रेमी को प्रेमी मिलै, तब सब अमृत होइ।

कबीर साहब कहते हैं मैं ईश्वर-प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हूं परंतु मुझे सच्चा ईश्वर-प्रेमी कोई नहीं मिला। जब एक ईश्वर-प्रेमी दूसरे को मिल जाता है तो विष प्रेमरूपी अमृत में बदल जाता है।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
कह कबीर पिड पाइए, मनहीं की परतीत।


मनुष्य की मन के हारने से हार होती है और मन के जीतने पर मनुष्य की जीत होती है। कबीर साहब कहते हैं कि मन में विश्वास पैदा करना जरूरी है तभी परमात्मा रूपी प्रिय मिलता है।

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब वनराय।
सत समुंद्र की मसि करूं, हरि गुन लिखा न जाए।


सब धरती को कागज बना दूं और सारे वन वृक्षों को लेखनी बना दूं और सातों समुद्रों को स्याही बना कर  भी अगर मैं हरि के गुणों को लिखना शुरू करूं तो हरि के गुणों को लिखा नहीं जा सकता।

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरस्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मा, हरी भई वणराइ।


कबीर साहब उपदेश देते हैं कि ईश्वरीय कृपा का बादल हम पर बरसा और अपार कृपा हुई। उस कृपा की वर्षा से अंतर्रात्मा पूर्णत: भीग गई। वह वनराशि (शरीर) हरी-भरी हो गई यानी जीवन में आनंद ही आनंद छा गया और सारा संसार आनंदमय महसूस होने लगा।

कबीर सोई पीर है जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर।


कबीर साहब उपदेश देते हैं कि वही पीर है जो दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को जानता है। जो दूसरों की पीड़ा को नहीं जानता अर्थात अन्य प्राणियों के प्रति प्रेम भाव नहीं रखता तो वह निर्दयी कहलाता है।

   —राजेश कुमार भगत

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