क्या ‘एमरजैंसी’ को दोहराया जा सकता है

Edited By ,Updated: 29 Jun, 2015 02:11 AM

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राजनीति के भीष्म पितामह अडवानी की मानें तो 25 जून, 1975 के इतिहास को पुन: दोहराया जा सकता है। चालीस वर्ष पहले जैसा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया

(मास्टर मोहन लाल): राजनीति के भीष्म पितामह अडवानी की मानें तो 25 जून, 1975 के इतिहास को पुन: दोहराया जा सकता है। चालीस वर्ष पहले जैसा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया कोई भी प्रधानमंत्री दो-तिहाई बहुमत लोकसभा में लेकर ऐसा कर सकता है। यानी एमरजैंसी लगाई जा सकती है। यानी यदि देवकांत बरूआ, बंसी लाल चौधरी, सिद्धार्थ शंकर रे, ज्ञानी जैल सिंह, संजय गांधी या आर.के. धवन जैसे पांच-छ: राजनेता इकठ्ठे हो जाएं और उन्हें एक श्रीमती इंदिरा गांधी मिल जाए तो देश पुन: कैदखाना बनाया जा सकता है। एक बार पुन: जनता के मौलिक अधिकारों को छीना जा सकता है, प्रैस का गला दबाया जा सकता है, तुर्कमान गेट पर बुल्डोजर फेरा जा सकता है, जबरदस्ती नसबंदी की जा सकती है और विरोधी पार्टियों के सभी नेताओं को जेलों में ठूंसा जा सकता है।

कम से कम मैं तो लाल कृष्ण अडवानी जैसे कद्दावर नेता के कथन पर उंगली नहीं उठा सकता। वह भारतीय जनता पार्टी को मौजूदा शिखर पर पहुंचाने वाले अकेले नेता हैं। यह सच है कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को इस मुकाम पर पहुंचाने के लिए सौम्य अटल बिहारी वाजपेयी को आगे रखा। उनका तर्क केवल यहां तक सीमित है कि अगर कहीं देश में 1971 से 1975 तक का राजनीतिक वातावरण पुन: बन गया और कहीं उपरोक्त नेताओं जैसी जुंडली राजनीति में पुन: बन गई तो 25 जून, 1975 के ‘स्याह दिन’ की पुनरावृत्ति हो सकती है।
 
पर 2015 ऐसा संकेत नहीं देता। राजनीति में 1975 से 2015 के बीच में बहुत पानी पुल के नीचे से बह चुका है। ऊपर से स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अर्श से फर्श पर आते भारत की राजनीति देख चुकी है। निरंकुश शासक को सहन करना भारत की राजनीति का स्वभाव नहीं। लोकतंत्र हमारे खून में समा चुका है। सोलह लोकसभा चुनाव यहां का लोकतंत्र करा चुका है। लोकतंत्र हमारी जीवन धारा बन चुका है।
 
अडवानी जी ने वर्तमान पीढ़ी को चौकस किया है कि वह लोकतंत्र की विरासत को आंच न आने दे। फिर भी 25 जून, 1975 के ‘स्याह दिन’ के घटनाक्रम को आज की पीढ़ी के सामने लाना तर्कसंगत होगा। श्रीमती इंदिरा गांधी पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट कर ‘दुर्गा’ बन गई थीं। लोकसभा के 1971 के चुनावों में इंदिरा गांधी को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था। कांग्रेस महज इंदिरा कांग्रेस बन चुकी थी। प्रचंड बहुमत से इंदिरा जी निरंकुश हो गई थीं। उनके पिता देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू इस देश में लोकतंत्र के स्वप्र दृष्टा थे, परन्तु इसके बिल्कुल उलट तब ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ जैसे नारे बुलंदी पर थे। हुआ क्या कि 1971 के लोकसभा चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से जीत गईं। 
 
उनसे हारने वाले राज नारायण ने उनके चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चैलेंज कर दिया। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा के चुनाव को रद्द कर दिया। चुनाव में भ्रष्ट साधन अपनाने, सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करने के जुर्म में उन्हें लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहरा दिया। उन्हें छ: साल तक चुनाव लडऩे के भी अयोग्य ठहराया गया। बस फिर क्या था इंदिरा गांधी गद्दी छोडऩा नहीं चाहती थीं जबकि देश का संविधान व देश की जनता उन्हें लोकतंत्र का सम्मान करने को कह रहे थे। विरोधी पाटयां जलसे, जलूस, सत्याग्रह और बड़ी-बड़ी रैलियां कर श्रीमती इंदिरा गांधी को न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने का आह्वान कर रही थीं। तत्कालीन राजनीति में विरोधी पाॢटयां जय प्रकाश नारायण को अपना ‘मसीहा’ मान चुकी थीं। गुजरात, बिहार तब विद्यार्थी आंदोलनों का गढ़ बन चुके थे। सब कहीं यही नारा बुलंद था:
 
‘सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।’
 
उधर समस्त भारत में रेल कर्मचारी अपनी मांगों के लिए आंदोलन की राह पर थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनके आंदोलन को कुचल दिया था। इस आंदोलन में कई रेलवे कर्मचारी पुलिस की गोली का शिकार हुए थे। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर था। विद्यार्थी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों को छोड़ सड़कों पर आ चुके थे। देश में सब कहीं शांतिमय आंदोलनों का दौर था। ऐसे में श्रीमती इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी। 
 
24 जून, 1975 को जस्टिस बी.आर. कृष्णा अय्यर ने हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया। संसद में वोट डालने से रोक दिया परन्तु उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की आज्ञा दे दी। अगले दिन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सारे विपक्ष की एक विशाल रैली दिल्ली में की गई जिसमें पुलिस और सेना से निवेदन किया गया कि वे सरकार के गलत फैसलों को न मानें। बस फिर क्या था इंदिरा गांधी ने अपने पक्ष को सच सिद्ध करने के लिए अपने आवास पर जलसे-जलूसों का दौर शुरू कर दिया। नए-नए नारे गढ़े गए ‘‘मैं देश से गरीबी हटाना चाहती हूं, विरोधी पार्टियों वाले मुझे ही हटाना चाहते हैं। 
 
जय प्रकाश नारायण पुलिस और सेना को भड़का रहे हैं, देश में अराजकता फैला रहे हैं।’’ इंदिरा आवास पर नित भीड़ जुटाई जाती जो नारे लगाती ‘इंदिरा जी तुम आगे बढ़ो देश तुम्हारे साथ है।’ बस इन्हीं हालात में 25 और 26 जून, 1975 की रात को आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इंदिरा जी ने विरोधी पाॢटयों के नेताओं को ही जेलों में नहीं डाला बल्कि अपनी पार्टी के भी युवा तुर्क चन्द्रशेखर, मोहन धारिया, राम धन और कृष्ण कांत तक को जेल भेज दिया। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवानी, मोरारजी भाई देसाई, मधु लिमये, मधु दंडवते, नाना जी देशमुख जो भी छोटा-बड़ा नेता विरोधी पार्टी का मिला सब जेल में। राष्ट्रीय सेवक संघ पर प्रतिबंध। 
 
यहां तक कि किशोर कुमार के गानों को भी रेडियो-टैलीविजन पर बंद कर दिया। ‘आंधी’, ‘किस्सा कुर्सी का’, ‘आज का एम.एल.ए.’ सरीखी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया। प्रैस पर सैंसरशिप बैठा दी। कोई बोल नहीं सकता था। किसी को पता ही नहीं कहां क्या हो रहा है। सब डरे हुए, सहमे हुए। रेडियो-टैलीविजन पर सिर्फ इंदिरा या उनके पुत्र संजय गांधी की जय- जय होती थी। लगभग 1,40,000 बेकसूर नेता जेलों में ठूंस दिए। शिरोमणि अकाली दल और संघ ने योजनाबद्ध तरीके से गिरफ्तारियां दीं। बूढ़े जय प्रकाश नारायण को डायलिसिस और कड़े पहरे में जेल में रखा गया। मीसा जैसे काले कानून के तहत नेताओं की न कोई वकील न दलील। यह काला दौर भारत की राजनीति में 21 महीने चला।
 
लोकतंत्र में भय का कोई स्थान नहीं। सत्य का हमेशा सत्ता से संघर्ष रहा है। न जाने एकाएक श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में क्या आया कि 18 जनवरी, 1977 को नए चुनावों की घोषणा कर दी। मार्च में चुनाव हुए। ज्ञात हो कि इस चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी हार गईं और संजय गांधी भी। सारे उत्तर भारत में कांग्रेस लुढ़क गई। हां, तब भी कांग्रेस ने दक्षिणी राज्यों में अपना वर्चस्व बनाए रखा। दक्षिण में तो कांग्रेस का किला मई 2014 के चुनावों में ही ढहा। 
 
दुर्भाग्य से श्रीमती इंदिरा गांधी की हार के बाद जनता पार्टी की सरकार भी सिर्फ अढ़ाई साल चली। जनता पार्टी के नेता आपस में ही लड़ मरे। 1980 में लोकसभा के पुन: चुनाव हुए। यह एक अलग गाथा है। पर वर्तमान और आगामी पीढ़ी यह स्मरण रखे कि लोकतंत्र में निरंकुशता के लिए कोई स्थान नहीं। ‘मौलिक अधिकारों’ पर प्रत्येक मानव का व्यक्तिगत अधिकार है। प्रत्येक स्वतंत्र नागरिक को स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने और सम्मानपूर्वक मरने का अधिकार है। लोकतंत्र में प्रैस चौथा स्तम्भ है इसे दबाया नहीं जा सकता। भगवान करे 25 जून, 1975 जैसा आपातकाल पुन: न दोहराया जाए। अडवानी जैसे नेता सशंकित न हों। नेता और प्रजा अपने-अपने कत्र्तव्यों के प्रति भी जागरूक बनें।
 
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