मोदी की ‘चार देवियों’ का निजी चरित्र व सार्वजनिक भाव भंगिमा

Edited By ,Updated: 30 Jun, 2015 12:06 AM

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ताड़ का तिल बनाना या तिल का ताड़ बनाना? ये 2 प्रश्न प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देवियों के बारे में राजनीतिक दिल्ली में चर्चा में हैं।

(पूनम आई कौशिश): ताड़ का तिल बनाना या तिल का ताड़ बनाना? ये 2 प्रश्न प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देवियों के बारे में राजनीतिक दिल्ली में चर्चा में हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ललित गेट में तो केन्द्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी जाली डिग्री और महाराष्ट्र की महिला तथा बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे 230 करोड़ रुपए के घोटाले में चर्चा में हैं। स्पष्ट है कि मोदी की कुंडली में औरतों से सुख नहीं है और इसलिए उन्हें इनके चलते बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। 
 
ललित गेट आज भी चर्चा में है और विपक्ष का कहना है कि वे राजे धर्म निभा रहे हैं न कि राज धर्म। जबकि भाजपा ने राजे की इस स्वीकारोक्ति का बचाव करने का निर्णय किया है कि उन्होंने पूर्व आई.पी.एल. प्रमुख के ब्रिटेन आव्रजन आवेदन के शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किए और मोदी द्वारा उनके बेटे के होटल कम्पनी में किया गया निवेश कानूनी है तथा इसे प्राधिकारियों को पहले ही बताया जा चुका था। 
 
वाक् कुशल और ट्विटर प्रेमी नमो ने इस मामले में मौनी बाबा की भूमिका अदा की और उनके विद्वान वित्त मंत्री ने स्पष्टत: कहा कि कोई भी दागी नहीं है। गृह मंत्री ने कहा कि राजे द्वारा की गई सिफारिश उन्होंने पूर्णत: व्यक्तिगत हैसियत से की है और सुषमा ने मानवीय आधार पर उनकी सहायता की क्योंकि ललित मोदी की पत्नी की कैंसर की सर्जरी होनी थी। 
 
यही नहीं शहरी विकास मंत्री ने कहा कि हमारी सरकार पूर्णत: ईमानदारी और पारदर्शिता से कार्य कर रही है। आज हमारे राजनेता जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाली कहावत का पालन करते हैं और गैंग ऑफ वासेपुर की तरह कार्य करते हैं। आज नेताओं की स्थिति यह हो गई है कि वे साधारण मामलों और जटिल मुद्दों से निपट नहीं सकते हैं। यह बताता है कि हमारे नेताओं में शर्म जरा सी भी नहीं रह गई है या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना नहीं चाहते हैं या जनता के प्रति जवाबदेह भी बनना नहीं चाहते हैं।
 
मुद्दा यह नहीं है कि राजे और स्वराज त्यागपत्र देती हैं या नहीं या यह मामला यहीं समाप्त होता है या नहीं किन्तु उनके कार्यों से तीखे और महत्वपूर्ण प्रश्न उठे हैं तथा लगता है हमारे नेता उन्हें नहीं समझ पाए। ये मुद्दे हैं कि राजनेताओं के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन के बीच की रेखा कौन-सी है? क्या राजनेता मुद्दों को बहुत ही व्यक्तिगत रूप से लेने लग गए हैं या उन्हें मीडिया जांच के लिए तैयार रहना चाहिए? क्या उनके निजी जीवन का जनता से कोई सरोकार है? 
 
जरा सोचिए! राजे कहती हैं कि उन्होंने ललित मोदी के ब्रिटेन आव्रजन आवेदन के समर्थन में पत्र व्यक्तिगत हैसियत से लिखा है किन्तु ऐसा नहीं है। उन्होंने यह पत्र विपक्ष की नेता के लैटर हैड पर लिखा है। दूसरा, उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि इस पत्र को भारतीय प्राधिकारियों से गोपनीय रखा जाए। यदि यह व्यक्तिगत है तो फिर इसमें गोपनीयता क्यों? तीसरा, उनका लिखा पत्र कभी भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया क्योंकि उन्होंने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। 
 
प्रश्न यह भी उठता है कि  यदि कोई नेता अपने व्यक्तिगत जीवन में अनैतिक है तो क्या वह सार्वजनिक जीवन में नैतिक हो सकता है? क्या हमारी अपने नेताओं से अवास्तविक अपेक्षाएं हैं? यह सच है कि ललित मोदी द्वारा राजे के बेटे की फर्म में निवेश से उन्हें 31 करोड़ का लाभ हुआ है। 
 
प्रश्न यह भी उठता है कि उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र की लगभग बंद पड़ी कम्पनी में क्यों निवेश किया? क्या यह उन पर की गई कृपा के लिए रिश्वत थी? यदि हम सुषमा स्वराज द्वारा ब्रिटिश उच्चायुक्त से की गई बात को मानवीय आधार पर भी देखें तो भी इस मुद्दे में हितों का टकराव है। मोदी न केवल प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के लिए वांछित थे अपितु उनके पति और बेटी दोनों ललित मोदी के वकील भी थे। एक संवैधानिक पद पर रहते हुए स्वराज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कानून का पालन करें और उस व्यक्ति के पक्ष में न बात करें जो भारत में वांछित है और यदि वह ललित मोदी की सहायता करनी चाहती थी तो उन्होंने विदेश सचिव से इस मुद्दे को ब्रिटेन के विदेश सचिव से उठाने के लिए क्यों नहीं कहा? 
 
कुछ लोगों का तर्क है कि हमारे नेताओं के व्यक्तिगत जीवन और कार्य तब तक राजनीतिक चर्चा का विषय नहीं रहते जब तक ये सार्वजनिक हित प्रभावित नहीं करते हैं। यह कहना भी सही है कि किसी नेता की सुर्खियों में रहने की क्षमता उसके राजनीतिक कार्यों और कुकर्मों से होती है न कि उसकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से। 
 
इसीलिए हमारे संविधान में प्राइवेसी के बारे में कोई प्रावधान नहीं है जबकि विश्व के अनेक देशों में ऐसा है। साथ ही लोकहित केवल वह मुद्दा नहीं है जिसमें लोगों की रुचि हो। व्यक्तिगत नैतिकता का किसी व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता से स्वत: संबंध नहीं होता है। अनेक महान राजनीतिक नेताओं के व्यक्तिगत जीवन दागी रहे हैं जबकि जिन नेताओं के व्यक्तिगत जीवन बेदाग रहे हैं वे अपने पद पर विफल भी रहे हैं। 
 
कुछ लोगों का यह मानना है कि सार्वजनिक व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन पारदर्शी होना चाहिए। वे गांधी जी के इन विचारों का पूर्ण समर्थन करते हैं कि सार्वजनिक व्यक्ति के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं होता है। उसका व्यक्तिगत जीवन उसका चरित्र, सत्यनिष्ठा और मूल्यों को दर्शाता है। 
 
गांधी जी का स्पष्ट मत था कि किसी व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन तब तक स्वच्छ नहीं हो सकता जब तक उसका निजी जीवन स्वच्छ न हो और ये दोनों अविभाज्य हैं। हम चाहते हैं कि हमारे नेतागण साधारण नागरिकों से ऊपर हों। वे नैतिकता और सत्यनिष्ठा की प्रतिमूर्ति हों ताकि उनका आदर किया जा सके और उसके लिए उन्हें अपनी प्राइवेसी की कीमत चुकानी पड़ती है तथा सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने के बाद उनसे जवाबदेही की अपेक्षा करते  हैं।
 
लोकप्रिय और प्रसिद्ध बनने की सबसे बड़ी कीमत यह है कि ऐसे लोगों की हमेशा जांच-पड़ताल होती है। यदि हमारे नेता सत्ता और पद के विशेष लाभों को उठाना चाहते हैं तो फिर उन्हें सत्यनिष्ठा और ईमानदारी की कीमत चुकानी होगी। यदि कोई व्यक्ति छोटी-छोटी बातों में झूठ बोले तो बड़ी बातों के लिए उस पर कैसे विश्वास किया जाए। आम आदमी को अपने नेताओं के बारे में सब कुछ जानने का अधिकार है क्योंकि उसके वेतन का भुगतान जनता द्वारा किया जाता है और उन्हें अपने नेताओं के बारे में सभी जानकारियां प्राप्त होनी चाहिएं। उदाहरण के लिए कोई मंत्री या सांसद जनसेवा करते हुए स्विस बैंक में खाता कैसे खोल सकता है? उसके पास फरारी गाड़ी या मोनाको में विला कैसे हो सकता है? 
 
राजे-स्वराज प्रकरण की त्रासदी यह है कि इससे हमारे टैफलॉन की परत चढ़े नेताओं में कोई अंतर देखने को नहीं मिला। हमारे नेताओं के चाल, चरित्र और चेहरे की जांच का कोई प्रभावी तरीका न होने के कारण स्थिति और बदतर हो गई है। समय आ गया है कि हमारे नेता इस बात को समझें कि कई बार राजनीतिक कार्य साधकता का गणित निरर्थक हो जाता है। संसदीय लोकतंत्र में सभ्य चर्चा ही इसका उत्तर है और आज भारत एक नैतिक चौराहे पर खड़ा है।
 
हमारी राजनीतिक प्रणाली तथा राजनीतिक बदलाव के लिए एक लंबा और कठिन संघर्ष करना होगा। राजनीतिक नैतिकता तथा जवाबदेही सुशासन और स्थिरता के लिए अत्यावश्यक है। सच्चे लोकतंत्र में झूठ और धोखा का कोई स्थान नहीं है तथा सच्चाई का निर्धारण बहुमत से नहीं होता है।  
 
कुल मिलाकर हमारे देश को जनशक्ति तथा निरंकुश राजनीतिक प्रणाली के बीच संतुलन बनाना होगा और यह स्पष्ट है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था यथास्थिति से आगे नहीं बढ़ सकती है। समय आ गया है कि हम पूरी सजगता के साथ राजनीति में बढ़ी इन विकृतियों पर रोक लगाएं अन्यथा हमारी राजनीतिक व्यवस्था कमजोर और दयनीय हो जाएगी। 
 
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