क्या बेकसूर लोगों के हत्यारे आतंकी किसी ‘दया के हकदार’ हैं

Edited By ,Updated: 04 Aug, 2015 02:05 AM

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भारत के संविधान में मौत की सजा का प्रावधान इसलिए नहीं कि भारतीय खून के प्यासे हैं और ‘आंख के बदले आंख या दांत के बदले दांत’ की नीति पर चलते हैं

(किरण बेदी): भारत के संविधान में मौत की सजा का प्रावधान इसलिए नहीं कि भारतीय खून के प्यासे हैं और ‘आंख के बदले आंख या दांत के बदले दांत’ की नीति पर चलते हैं बल्कि इसलिए है कि भारत आतंकवाद को प्रोत्साहित नहीं करेगा। आतंकियों को यह अनुमति नहीं देगा कि वे जब चाहें हमला करें, लोगों की हत्या करें, सम्पत्ति बर्बाद कर दें या लोगों को घायल करें और खुद सुरक्षित बच जाएं ताकि दोबारा इसी तरह की करतूतों को अंजाम दे सकें।

अपने लोगों को सुरक्षित रखने और उनका जीवन शांति व समरसता से भरने के लिए भारत कत्र्तव्यबद्ध है क्योंकि यही युगों-युगों से इसकी संस्कृति रही है और आज भी है। 
 
भारत एक मजबूत न्यायपालिका वाला लोकतांत्रिक देश है। यहां कानून की उचित प्रक्रिया काम करती है और देश के प्रत्येक नागरिक या यहां रहने वाले व्यक्ति को न्यायपूर्ण अदालती सुनवाई का अधिकार है। प्रत्येक नागरिक को समानता, जीवन, स्वतंत्रता, सम्पत्ति, अभिव्यक्ति, मजहब और अन्य अनेक प्रकार के मूलभूत अधिकार उपलब्ध हैं जो हमारे संविधान में बाकायदा दर्ज हैं। यही अधिकार परम-पवित्र हैं। लेकिन यह याद रखें कि अधिकारों के साथ जिम्मेदारियां भी जुड़ी होती हैं। अधिकारों के साथ-साथ न्यायोचित अपवाद भी मौजूद हैं। 
 
उदाहरण के तौर पर समानता के अधिकार की मशीनी ढंग से यह व्याख्या नहीं की जा सकती कि प्रत्येक मामले में दंड भी बराबर होगा। इसका कारण यह है कि प्रत्येक अपराध अपने आप में अप्रतिम होता है। इसका अपना विशेष समय, स्थान और परिप्रेक्ष्य होता है। 
 
जहां हमें जीवन का अधिकार है वहीं हमारा यह भी कत्र्तव्य है कि हम किसी दूसरे की जान न लें और यदि कोई अपराध (जैसे कि हत्या) करता है तो कानून के अंतर्गत उस पर मुकद्दमा चलेगा, उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा और उसे अपना पक्ष न्यायोचित ढंग से प्रस्तुत करने का मौका दिया जाएगा। यदि वह असंदिग्ध रूप में दोषी सिद्ध होता है तो उसे सजा मिलेगी, जिसे भुगतने के लिए उसे जेल में बंद कर दिया जाएगा। 
 
ऐसे मामलों में जहां असंदिग्ध रूप में पाशविकता दिखाई गई हो, वहां अदालतें  मौत की सजा तक सुनाती हैं। फिर भी भारतीय अदालतों ने इस प्रावधान को ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामलों में ही प्रयुक्त किया है। आपको केवल 2 वर्ष पूर्व अंजाम दिए गए निर्भया सामूहिक दुष्कर्म मामले में सुनाई गई मौत की सजा का उदाहरण याद होगा।  आतंक का अपराध घोर पाशविकता है। यह नृशंस हत्या है। इसके साथ ही साथ यह देश की एकजुटता और सुरक्षा पर भी आघात है। यह समुदायों के अंदर आपसी विश्वास और सम्मान की भावना की जड़ों  में तेल देकर व बदले की भावना को भड़का कर व्यापक विनाश, खूनखराबे, पीड़ा, क्लेश, साम्प्रदायिक फूट, दुश्मनी को अंजाम देकर 120 करोड़ लोगों के देश पर हमला करता है। 
 
भारतीय लोकतंत्र सभी को (समेत आतंकवादियों के) कानून की जानदार प्रक्रिया प्रदान करता है। अपराध कितना भी पाशविक क्यों न हो आरोपी को अपना बचाव करने के सभी अधिकार उपलब्ध हैं। 
 
पीड़ितों के अधिकार सत्ता तंत्र की जिम्मेदारी हैं जिन्हें समय की सरकार (केंद्र या राज्य सरकार) द्वारा अपने समस्त संस्थानों, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के माध्यम से कार्यान्वित करती है। 
 
पीड़ितों को शासकीय तंत्र द्वारा संतोषजनक सुरक्षा उपलब्ध न कराने जाने के मामले में उन्हें न केवल कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है बल्कि तत्कालीन गवर्नैंस और व्यवस्था में उनका भरोसा भी टूट जाता है। जो राजनीतिक पाॢटयां सत्ता पर आसीन हों, लोगों की नजरों में गिर जाती हैं। ऐसे में अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों को सुरक्षित रखने के लिए उनमें मुकाबलेबाजी की राजनीति भी निश्चय ही किसी न किसी हद तक चलती है और राजनीतिक पैंतरेबाजी भी देखने को मिलती है। 
 
आतंकी हमलों के पीड़ित भी अपनी आवाज बुलंद करने के लिए खुद को एक्टीविस्टों के समूहों के रूप में संगठित कर लेते हैं ताकि अपने अधिकारों को शक्तिशाली ढंग से प्रयुक्त कर सकें। अनेक हाईप्रोफाइल और प्रभावशाली आरोपियों के मामले में देखा गया है कि वे धन बल, मीडिया में पैठ/समुदाय विशेष में अपने अनुयायियों/वोट बैंक और कथित ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ को अपने समर्थन में खड़ा कर लेते हैं। भारत गत कई दशकों से आतंक की गंभीर चुनौती झेल रहा है। इसके हजारों निर्दोष आम नागरिक, पुलिस के जवान व महिलाएं और सशस्त्र बलों के कर्मी शहीद हुए हैं। देश के विभिन्न भागों में आतंकी हमले रोज-रोज की बात बन गए हैं। 
 
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के रूप में मैं अक्सर यह नोट करती रही हूं कि जब भी किसी आतंकी को मृत्युदंड सुनाया जाता है तो बिना इस बात की परवाह किए कि उसने कितने लोगों की जान ली है और कितनी नृशंस करतूतें की हैं, ‘बुद्धिजीवी’ लोग उसके पक्ष में बहुत हाल-दुहाई मचाते हैं। 
 
अभी कुछ ही दिन पूर्व गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले में मारे गए एक एस.पी. अपने जवानों सहित शहीद हुए हैं। लेकिन इन शहीदों की जिंदगियों की कीमत की पिंट, विजुअल तथा सोशल मीडिया में उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी एक आतंकी को जीवनदान के लिए बुद्धिजीवी वर्ग ने मुखर होकर दुहाई मचाई है। यह बात कहां तक न्यायोचित है? क्या यह पूरे राष्ट्र के लिए शर्म की बात नहीं? क्या हम अपने देशवासियों पर हुए अत्याचार को केवल इसलिए भूल जाएं कि हमें तो आंच नहीं आई? क्या हम केवल इसलिए अन्य लोगों की पीड़ा और कष्टों की अनदेखी कर दें कि हम अपनी जगह सुरक्षित हैं? 
 
जब कहीं भी निर्दोष और असहाय लोगों की जान जाती है तो क्या हमारे दिलों में पीड़ा महसूस नहीं होनी चाहिए? क्या यह पीड़ा केवल वर्दीधारी लोगों के दिल में ही पैदा होनी चाहिए जोकि आंतरिक और बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करने वाले हमारे वास्तविक रक्षक हैं? 
 
मुझे मृत्युदंड को समाप्त करने की वकालत करने वाले एक जाने-माने व्यक्ति से इस संबंध में सवाल करने का मौका मिला, ‘‘क्या गुरदासपुुर आतंकी हमले में शहीद हुए एस.पी. बलजीत सिंह और उनके साथी जवानों के लिए आपका दिल दर्द महसूस नहीं करता?’’ 
 
मुझे इसका संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। चलो इस बात को भी छोड़ो, क्या हमारे दिलों में इतना दर्द भी पैदा नहीं हो सकता कि हम आपराधिक न्याय प्रक्रिया को अधिक प्रभावी, मजबूत और व्यापक बनाने की आवाज उठाएं? क्या हम यह सवाल नहीं पूछ सकते कि ट्रायल कोर्ट अधिक संख्या में क्यों नहीं स्थापित की जाती? कानूनों और कानूनी प्रक्रियाओं को समयानुकूल एवं कठोर क्यों नहीं बनाया जाता? जांच दलों की गुणवत्ता क्यों नहीं सुधारी जाती? गुप्तचर प्रणालियों को मजबूत करके उन्हें अच्छा प्रशिक्षण देते हुए आधुनिकतम साजो-सामान से लैस क्यों नहीं किया जाता? और आतंकियों को ऐसी सजा क्यों नहीं दी जाती कि दूसरे लोगों को चेतावनी मिले? 
 
इसके विपरीत हम देखते यह हैं कि निर्दोष लोगों के हत्यारों को जीवनदान दिलाने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा बेकार गंवाई जाती है जबकि इसका नतीजा हमारे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने वाला होता है। 
 
यदि किसी आतंकवादी को जिंदा पकड़ लिया जाता है तो पुलिस हिरासत में भी वह ‘एक जिंदा बम’ के समान होता है। सच्चाई यह है कि आतंकियों को बहुत जबरदस्त वैचारिक प्रशिक्षण दिया गया होता है और छिटपुट मामलों को छोड़कर उनके सुधरने की कोई उम्मीद नहीं होती। जेल प्रबंधन के खुद के अनुभव के आधार पर मैं यह बात कह रही हूं। 
 
आज भारत को आतंक और आतंकवादियों को बिना कोई ढिलाई दिखाए एक स्वर में आवाज बुलंद करनी चाहिए। दिन-प्रतिदिन हमारी सुरक्षा को चुनौतियां और धमकियां बढ़ती ही जा रही हैं। वैसे दुनिया भर में ऐसा ही हो रहा है। फिर भी देश के अंदर आतंकियों के विरुद्ध राजनीतिक पार्टियां मिलकर खड़ी नहीं हो रही हैं। सभी को यह स्मरण रखना होगा कि जो लोग आग से खेलते हैं वे अपने ही हाथ जला बैठते हैं।
 
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