मरणोपरांत करेंगे अंग दान तो पाएंगे देवों के समान प्रतिष्ठा और सत्कार

Edited By ,Updated: 19 Aug, 2015 03:43 PM

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मानव शरीर का प्रत्येक अंग उपयोगी है। जब तक जीवन है तब तक इस शरीर का मोल है मरणोपरांत शरीर तो मिट्टी में मिल जाता है तो क्यों न अपने शरीर के वो अंग जो किसी दूसरे के काम आ सकें उन्हें दान कर दिया जाए जिससे संसार से जाते- जाते पुण्य अर्जित किया जा सके।

मानव शरीर का प्रत्येक अंग उपयोगी है। जब तक जीवन है तब तक इस शरीर का मोल है मरणोपरांत शरीर तो मिट्टी में मिल जाता है तो क्यों न अपने शरीर के वो अंग जो किसी दूसरे के काम आ सकें उन्हें दान कर दिया जाए जिससे संसार से जाते- जाते पुण्य अर्जित किया जा सके।

धर्म शास्त्रों में अंग दान करने वाले का आने वाला कल कैसा होगा इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन विद्वान मानते हैं की अंग दान करके किसी का जीवन संवारने वाला सर्वोत्तम पद प्राप्त करता है। प्राचीन शास्त्रों पर दृष्टि दौड़ाएं तो बहुत सी कथाओं से ज्ञात होता है की अंग दान करने वालों को देवों के समान प्रतिष्ठा और सत्कार मिलता है।   

रक्तदान, नेत्रदान, अवयवदान आदि सब दान अभयदान, स्वास्थ्यदान हैं। स्कंदपुराण में इस बारे में कहा गया है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का साधन शरीर है। किसी को स्वास्थ्य प्रदान करने का अर्थ है उसे परिपूर्ण जीवन प्रदान करना।

आईए जानें कुछ कथाएं

प्रथम कथा

एक बार देवराज इंद्र अपनी सभा में बैठे थे। उसी समय देव गुरु बृहस्पति आए। अहंकारवश गुरु बृहस्पति के सम्मान में इंद्र उठ कर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गए। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बना कर काम चलाना पड़ा किन्तु विश्व रूप कभी-कभी देवताओं से छिपा कर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इंद्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़ कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।

ब्रह्मा जी की सलाह से देवराज इंद्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिए गए। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा, ‘‘प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियां हमें दान दे दीजिए।’’

महर्षि दधीचि ने कहा, ‘‘देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिए मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूं।’’

महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इंद्र बच गए और तीनों लोक सुखी हो गए। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिए सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।

दूसरी कथा

व‌िष्‍णु जी प्रतिदिन शिवलिंग की 108 कमल फूलों से पूजा करते थे। एक दिन भगवान शिव ने सोचा क्यों न आज व‌िष्‍णु जी की परिक्षा ली जाए। उन्होंने उनके 108 पुष्पों में से एक फूल गायब कर दिया। जब विष्णु जी ने देखा एक फूल कम है तो उन्होंने अपनी एक आंख को निकाल कर पुष्प के स्थान पर दान कर दिया। भगवान शिव उनके इस समर्पण से बहुत खुश हुए और उन्होंने उन्हें भेंट स्वरूप सुदर्शन चक्र दिया।  

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