शनिदेव की बहन रक्षा बंधन पर कर सकती है भाई-बहन के रिश्ते का नाश, आईए जानें कैसे

Edited By ,Updated: 29 Aug, 2015 09:55 AM

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शनिदेव की वक्र दृष्टि को भला कौन नहीं जनता। क्रोधित शनि की वक्र दृष्टि राजा को भी रंक बना देती हैं। इसी कारण ज्योतिषशास्त्र में शनि को कंटक माना

शनिदेव की वक्र दृष्टि को भला कौन नहीं जनता। क्रोधित शनि की वक्र दृष्टि राजा को भी रंक बना देती हैं। इसी कारण ज्योतिषशास्त्र में शनि को कंटक माना गया है। शनिदेव की भांति इनकी बहन भद्रा भी अशुभ मानी जाती है। भद्रा ग्रहों के स्वामी सूर्य और छाया की पुत्री हैं और शनिदेव की बहन हैं। ज्योतिषशास्त्र अनुसार सूर्य पुत्री भद्रा का स्वरुप अत्यंत भयंकर है। शनिदेव की बहन भद्रा का वर्ण श्याम है इनके केश लंबे और दांत विकाराल हैं। जन्म लेने के तुरंत बाद भद्रा संसार को ग्रास करने हेतु दौड़ पड़ी थी। भद्रा ने बाल्यकाल में ही यज्ञों को नष्ट कर शुभ कार्यों को बाधित कर दिया इसी कारण सभी देवगणों ने भद्रा से विवाह करने से इंकार कर दिया। भद्रा गर्दभ अर्थात गधे के मुख और लंबे पूंछ और 3 पैरयुक्त उत्पन्न हुई। सूर्यदेव ने जब भद्रा के विवाह हेतु स्वंवर का आयोजन किया तो भद्रा ने उसे भी तहस-नहस कर दिया। 

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भद्रा के स्वभाव को नियंत्रित करने हेतु ब्रह्मदेव ने भद्रा को ज्योतिष कालगणना के पंचांगखंड के करण में सातवें स्थान पर स्थापित किया। ब्रह्मदेव के वर अनुसार भद्रा यात्रा, गृहप्रवेश, खेती, व्यापार और मांगलिक कार्य में विघ्न उत्पन्न करेगी। ब्रह्मदेव के अनुसार जो व्यक्ति भद्रा का आदर नहीं करेगा उसका कार्य ध्वस्त होगा। भद्रा ने ब्रह्मदेव के वर को स्वीकार किया व ज्योतिष के अंश में विराजमान हो गई इसलिए किसी भी शुभ काम का आरंभ भद्रा काल में नहीं किया जाता है। भद्रा काल में कोई भी शुभ कार्य वर्जित माना जाता है।

एक किवदंती है कि सर्वप्रथम सूर्पणखा ने अपने बड़े भाई रावण को भद्रा काल में राखी बांधी थी। जिसके कारण रावण का सर्वनाश हो गया। ज्योतिष शास्त्रनुसार शब्ध "पंचांग" पांच प्रमुख अंगों से निर्मित हुआ है। पंचांग के पांच प्रमुख अंग हैं तिथि, वार, योग, नक्षत्र व करण। पांच अंगों में करण एक महत्वपूर्ण अंग होता है। इसे तिथि का आधा भाग माना जाता है।

ज्योतिषशास्त्र अनुसार करण की संख्या 11 होती है। यह चर और स्थिर में बांटे गए हैं। चर करण हैं बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि। स्थिर करण में शकुनि, चतुष्पद, नाग व किंस्तुघ्न। इन 11 करणों में सातवें करण विष्टि का नाम ही भद्रा है। विभिन्न राशिनुसार भद्रा तीनों लोकों में विचरण करती है। भद्रा जब मृत्युलोक में विचरण करती है, तब शुभ कार्यों का नाश करती है। जब चंद्रदेव कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि में गोचर करते है तब भद्रा का विष्टी करण योग बनता है इसी दौरान भद्रा का निवास पृथ्वीलोक में होता है। इस समायावधि में शुभकार्य वर्जित माने गए हैं। इसके दोष निवारण के लिए भद्रा व्रत का विधान भी धर्मग्रंथों में बताया गया है। ज्योतिषशास्त्र अनुसार कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी व शुक्ल पक्ष की चर्तुथी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी-चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी-पूर्णमासी के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है। 

जब चंद्र मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशि में विचरण करता तब भद्रा का निवास स्वर्ग में होता है। जब चंद्र कन्या, तुला, धनु, मकर राशि में गोचर करता है तब भद्रा पाताल में निवास करती है। जब चंद्र कर्क, सिंह, कुंभ, मीन राशि में गोचर करता है तब भद्रा का निवास पृथ्वी पर होता है। शास्त्रनुसार पृथ्वीलोक की भद्रा सर्वाधिक अशुभ मानी जाती है। तिथि के पूर्वार्ध की दिन की भद्रा कहलाती है। तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा को रात की भद्रा कहते हैं। यदि दिन की भद्रा रात्री में व रात्रि भद्रा दिन में आए तो भद्रा शुभ मनी जाती है। शुक्ल पक्ष की भद्रा वृश्चिकी है। कृष्ण पक्ष की भद्रा सर्पिणी है। दिन की भद्रा सर्पिणी व रात्रि की भद्रा वृश्चिकी कहलती है। भद्रा का मुख कार्य का नाश करता है। कंठ की भद्रा धन का नाश करती है। हृदय की भद्रा प्राण का नाश करती है। पुच्छ की भद्रा विजय व कार्य सिद्धि कराती है। 

आचार्य कमल नंदलाल

ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com

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