Edited By ,Updated: 13 Oct, 2015 02:05 AM
भारत में किसानों की हत्या दर चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है। 1997-2006 दशक के दौरान भारत में कम से कम 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की।
(वरुण गांधी): भारत में किसानों की हत्या दर चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी है। 1997-2006 दशक के दौरान भारत में कम से कम 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की। वैसे यह आंकड़ा वास्तविक संख्या से काफी कम है क्योंकि इसमें ग्रामीण भूमिहीन मजदूरों और महिलाओं की संख्या शामिल नहीं की गई।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) के अनुसार गत वर्ष 5650 किसानों ने आत्महत्या की जिनमें से 75 प्रतिशत सीमांत किसान थे। कुल संख्या में से 90 प्रतिशत आत्महत्याएं तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में हुईं। महाराष्ट्र में 2011-13 के बीच 10,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र के केवल मराठवाड़ा क्षेत्र में ही चालू वर्ष के दौरान 200 से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
किसानों की हत्याएं प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत से भी अधिक दर से बढ़ती जा रही हैं। देश में आत्महत्या करने वाले पुरुषों में से हर पांचवां व्यक्ति किसान होता है। जब उन्हें अंधकारमय जीवन मुक्ति हासिल करने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता तो वे आत्महत्या की शरण लेते हैं।
आंकड़ों को जरा अलग रख कर भी देखें तो भी मानवीय त्रासदी कोई कम भयावह नहीं। सीतापुर जिले के नाढी गांव के उमेश चंद शर्मा ने इसी वर्ष 10 मई को आत्महत्या की थी। उसका बेटा इस सदमे से उभर नहीं पाया और एक सप्ताह बाद उसने भी गांव में आम के पेड़ से फंदा लेकर जीवनलीला समाप्त कर ली। यू.पी. के ही बिजनौर जिले के गांव शाहपुर धमेड़ी के चौधरी अशोक सिंह बैंक ऋण अदा न कर पाने और गन्ना मिलों से पैसे की अदायगी न होने के कारण आत्महत्या करने को मजबूर हुए।
जिला बहराइच के गांव सरसा में आत्महत्या करने वाले किसान लक्ष्मी नारायण शुक्ल के परिवार को अपने एक दौरे के दौरान मुझे मिलने का मौका मिला और मैंने उनकी हरसंभव सहायता की। विपत्तियों में घिरे हुए इन परिवारों के प्रतिनिधि के रूप में मैंने अपना संसदीय वेतन अगले 5 वर्षों के लिए यू.पी. के किसानों की सहायता हेतु अॢपत कर दिया था और अन्य सांसदों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरणा दे रहा हूं। किसानों को आत्महत्या करने की बजाय जिंदा रहने के लिए अधिक दिलेरी दिखाने की जरूरत है।
भारत का कृषि संकट लगातार प्रचंड होता जा रहा है जिससे किसानों की जिंदगी में उथल-पुथल बढ़ गई है। उन्हें उपजीविका के वैकल्पिक अवसर मिल नहीं पा रहे हैं जबकि परम्परागत अवसर उनके हाथ से निकलते जा रहे हैं और उनका जीवन अधिक से अधिक दूभर होता जा रहा है। भारत में कुल 12.10 करोड़ कृषि जोतों में से 9.9 करोड़ केवल छोटे और सीमांत किसानों के स्वामित्व वाली हैं और इनका मिश्रित भू क्षेत्र देश की कुल कृषि भूमि का 44 प्रतिशत बनता है जबकि इन किसानों की संख्या कुल खेतीहर जनसंख्या का 87 प्रतिशत बनती है। वे कुल सब्जी उत्पादन में 70 प्रतिशत एवं खाद्यान्न उत्पादन में 52 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं।
एन.एस.एस.ओ. के अनुसार एक तिहाई किसानों की कृषि जोत का आकार 0.4 हैक्टेयर से कम है। 50 प्रतिशत से अधिक किसान परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं और उनमें से प्रत्येक किसान पर 47,000 रुपए का औसतन ऋण है।
यू.पी. के सुल्तानपुर जिले में गत 5 वर्षों दौरान कृषि लागतों में प्रति हैक्टेयर 33 प्रतिशत से भी अधिक वृद्धि हुई है जबकि सरकार ने कृषि सबसिडियों को सीमित कर रखा है। इसके फलस्वरूप इन किसानों की कंगाली लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि भूमि उत्पादकता साल-दर-साल घटती जा रही है और समय बीतने के साथ-साथ भू स्वामित्व के टुकड़े-दर-टुकड़े होते जा रहे हैं। फसलों का झाड़ कई मामलों में इतना कम हो गया है कि खेतीबाड़ी करना अब उपजीविका कमाने का लाभदायक तरीका नहीं रहा।
भारत में फसल उत्पादन एवं मुआवजे की नुक्सदार पद्धति के चलते किसानों के दुख लगातार बढ़ते जा रहे हैं। खुश्क इलाकों में रहने वाले किसानों को भूजल लगातार गिरते जाने के बावजूद गेहूं और धान की अधिक झाड़ देने वाली किस्मों की खेती करने के लिए उत्साहित किया जाता है। 61 प्रतिशत कृषि सिंचाई पर ही निर्भर है। ऐसे में पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों के उत्पादन से लाभ की बजाय नुक्सान ही होता है। राजस्थान और महाराष्ट्र में तो सम्पूर्ण कृषि लाभोपार्जन के स्तर से नीचे खिसक चुकी है क्योंकि भूजल का जरूरत से अधिक दोहन हो चुका है। हल्की गुणवत्ता वाली जमीनों में तो गेहूं-धान के फसलीचक्र ने किसानों का सत्यानाश ही कर दिया और उनके जीवन के पिछड़ेपन और अस्थिरता में कई गुणा अधिक वृद्धि हो गई है।
फसल-मार होने पर किसानों को मुआवजा देने की वर्तमान पद्धति त्रुटिपूर्ण होने के साथ-साथ गरीब किसानों की तुलना में बड़े-बड़े जमींदारों के पक्ष में झुकी हुई है। यह पद्धति भू स्वामित्व के रिकार्डों पर निर्भर करती है जबकि वर्तमान में जितनी भी भूमि पर खेती होती है उसका केवल 0.4 प्रतिशत ही मौजूदा कृषि मालिकी कानूनों के अंतर्गत पंजीकृत है। इसके अलावा फसलों को पहुंचे नुक्सान का आकलन करने और किसानों को तदनुरूप मुआवजा आबंटित करने की प्रक्रिया को भी सुधारने की जरूरत है।
उचित दस्तावेजीकरण की कमी के कारण मुआवजा, सस्ता ऋण एवं फसली बीमा उपलब्ध करवाने वाली अफसरशाही और स्थानीय प्रशासक न केवल भ्रष्ट हैं बल्कि नालायक भी हैं। जमीनी मालिकी के अधिकारों और जमीन से संबंधित न्यायिक सुधारों में पारदशता लाने से संस्थागत प्रणालियों को मजबूती मिलेगी। यदि फसलों को पहुंचे नुक्सान का आकलन करने के लिए उपग्रह तस्वीरों और सस्ते ड्रोन्ज का प्रभावी ढंग से प्रयोग किया जाता है तो नुक्सान के आकलन और मुआवजा आबंटन में लगने वाले समय में भारी कमी आ सकती है।
किसानों की आत्महत्याओं का कर्ज के बोझ से हाड़ मांस का नाता है। किसान बिना सोचे-समझे न केवल उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेते हैं बल्कि इसे अधिकतर मामलों में गैर उपजाऊ मदों पर खर्च करते हैं जिसके फलस्वरूप उनकी विशुद्ध आमदन उनकी उम्मीदों से कहीं अधिक नीचे गिर जाती है। आत्महत्या के अनगिनत मामलों में पाया गया है कि किसान अधिक झाड़ और शानदार कृषि मूल्यों की पहले से उम्मीद लगा लेते हैं और भारी-भरकम ऋण ले लेते हैं।
उदाहरण के तौर पर ट्यूबवैल, पम्प सैट और कुएं लगाने के लिए किसान इस उम्मीद से भारी कर्ज ले लेते हैं कि उन्हें बहुत कम गहराई पर पानी उपलब्ध हो जाएगा लेकिन लगातार गिरते भूजल स्तर ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। सिंचाई की लागतें लगातार बढ़ती जा रही हैं और खेतीबाड़ी में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव आने लगे हैं।
ऐसे में किसानों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए संस्थागत वित्त पोषण उपलब्ध करवाए जाने की जरूरत है। ड्रिप इरीगेशन ही सिंचाई लागतें कम करने उर्वरकों की प्रभावशीलता में भी सुधार की जरूरत है। बैंक चूंकि छोटी कृषि जोतों को कर्ज देने से परहेज करते हैं इसलिए छोटे-छोटे किसानों को मिलकर अपने भूखंडों को एकजुट करके आॢथक रूप में लाभप्रद इकाई में परिवर्तित करना चाहिए। वास्तव में किसान आत्महत्याएं नहीं करते बल्कि जीवन के लम्बे और कठोर संघर्ष में बार-बार पराजित होने के कारण हताश हो गए हैं।