सभी राजनीतिक दलों की नजर अब 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर

Edited By ,Updated: 27 May, 2016 01:43 AM

political parties on the assembly elections in 2017

इस वर्ष 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के रोमांच के बाद अब ध्यान पहले ही 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों की ओर स्थानांतरित हो चुका है।

(कल्याणी शंकर): इस वर्ष 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के रोमांच के बाद अब ध्यान पहले ही 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों की ओर स्थानांतरित हो चुका है। अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर तथा गोवा में चुनाव होने हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, ‘आप’ तथा अकाली दल सहित सभी राजनीतिक दलों पर ऊंचे दाव लगे हैं। चुनावों से पहले कुछ चुनावी गठबंधन होने लाजमी हैं।

 
पांच राज्यों में से अकाली-भाजपा गठबंधन का पंजाब तथा भाजपा का गोवा में शासन है। उत्तराखंड तथा मणिपुर कांग्रेस शासित राज्य हैं। उत्तर प्रदेश पर दो क्षेत्रीय क्षत्रपों का दबदबा है-बसपा प्रमुख मायावती तथा सत्ताधारी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का। कांग्रेस, सपा तथा भाजपा को अपने-अपने राज्यों में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। 
 
उत्तर प्रदेश में लड़ाई काफी तीखी होगी, विशेषकर भाजपा के लिए, जिसने राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 72 जीती थीं। यदि मोदी 2019 में फिर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश में उनका जादू चलते रहना चाहिए। यह एक प्रश्र चिन्ह है क्योंकि स्थानीय मुद्दे विधानसभा चुनावों पर हावी रहते हैं। दूसरे, लड़ाई सपा तथा बसपा के बीच है क्योंकि भाजपा तथा कांग्रेस तीसरे व चौथे स्थान पर आती हैं। 
 
उत्तर प्रदेश स्पष्ट तौर पर मोदी की शीर्ष प्राथमिकता है। लोकसभा 2014 की कारगुजारी दोहराने के लिए उन्हें भाग्य की जरूरत है। गत दो दशकों के दौरान भाजपा का विधानसभा चुनावों का रिकार्ड धूमिल रहा है। 1996 में प्राप्त 174 सीटों के मुकाबले 2012 में सीटों की संख्या कम होकर 47 पर आ गई। लगभग 200 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जो पार्टी ने गत 15 वर्षों से नहीं जीती हैं और 60 सीटें ऐसी हैं, जिन पर अभी तक इसे विजय नहीं मिली।
 
असम में विजय से उत्साहित भाजपा अब यू.पी. में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए एक स्थानीय चेहरे पर विचार कर रही है और स्थानीय मुद्दों पर भी अधिक ध्यान केन्द्रित कर रही है। दलितों को लुभाने के लिए केशव प्रसाद मौर्य, जो एक दलित हैं, को इसका प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। सामाजिक जोड़-तोड़ का भी सहारा लिया जा रहा है। राम मंदिर निर्माण निश्चित तौर पर एजैंडे में है। भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के साथ बेहतर तालमेल सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस को कोसने सेमदद नहीं मिलेगी क्योंकि चुनौती सपा तथा बसपा से है। 
 
कांग्रेस, जिसने उतार-चढ़ाव देखे हैं और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, को नेतृत्व संकट के साथ-साथ गिरे हुए मनोबल का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी ने मुसलमानों तथा दलितों सहित अपने प्रमुख मतदाता खो दिए हैं। यह संगठन व्यावहारिक तौर पर उत्तर प्रदेश में अपना अस्तित्व खो चुका है जो दशकों तक कांग्रेस शासित रहा है। इसके पास दूसरी पंक्ति का कोई नेता नहीं है, जबकि बेनी प्रसाद वर्मा जैसे ‘आयातित’ वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर सपा में वापस चले गए हैं। पार्टी ने प्रशांत किशोर को नियुक्त किया है, जो 2014 में चुनाव रणनीतिकार के तौर पर मोदी की टीम में थे मगर उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। 
 
समाजवादी पार्टी 5 वर्षों में किए गए अपने विकास कार्यों के साथ-साथ मुस्लिम व यादव वोटों पर निर्भर है। इसको सबसे बड़ा खतरा सत्ता विरोधी लहर तथा कानून व्यवस्था के मोर्चे पर इसकी असफलता से है। सपा अब बसपा पर हमले करने तथा मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के मामले में पहले के मुकाबले कमजोर धरातल पर है। सपा को अपने वायदे पूरे करने में असफल रहने पर जवाब देना होगा। 
 
2014 के लोकसभा चुनावों में कोई भी सीट हासिल न करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती वापसी के लिए चुपचाप कड़ी मेहनत कर रही हैैं। उनके पास कुछ तरकीबें हैं और उनकी योजना मुसलमानों के बसपा के खेमे में वापसी की उम्मीद के साथ अकेले चुनाव लडऩे की है। दलित-मुस्लिम वोटों का इक_ा होना संभवत: भाजपा विरोधी मतदाताओं को उनकी ओर देखने को प्रभावित करे। जनता दल यूनाइटिड (जद यू) तथा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) संभवत: अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के साथ गठबंधन बनाकर उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत आजमाएं। स्पष्ट है कि बिहार के विधानसभा चुनावों में अपने महागठबंधन की महा सफलता के बाद वे काफी आशान्वित हैं।
 
पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन दो कार्यकाल से शासन में है तथा सत्ता विरोधी लहर इसके आड़े आ रही है। नए खिलाड़ी आम आदमी पार्टी के प्रवेश करने के बाद इन रिपोर्ट्स के चलते कि ‘आप’ अच्छी कारगुजारी दिखा सकती है, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस तथा सत्ताधारी गठबंधन के समक्ष खतरा उत्पन्न हो गया है। केजरीवाल पंजाब तथा गोवा तथा बाद में गुजरात में एक भूमिका निभाएंगे। उन्होंने पणजी में एक बड़ी रैली के साथ गोवा में अपना प्रचार अभियान पहले ही शुरू कर दिया है। केजरीवाल की रणनीति उन राज्यों में अपना विस्तार करना है, जहां भाजपा तथा कांग्रेस सीधी लड़ाई में हैं और ‘आप’ को एक विकल्प के तौर पर पेश करना है, जैसा कि उन्होंने दिल्ली में सफलतापूर्वक किया था। 
 
यह सुनिश्चित नहीं कि गत माह एक फ्लोर टैस्ट के बाद अदालत द्वारा कांग्रेस का शासन बहाल किए जाने के बाद उत्तराखंड किस ओर जाएगा। लड़ाई कांग्रेस तथा भाजपा के बीच है। मणिपुर कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं दिखाई दे रहा क्योंकि असंतोष तथा अनुशासनहीनता पार्टी को नुक्सान पहुंचा रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह 2019 के लोकसभा चुनावों की ओर अग्रसर है। कांग्रेस अस्तित्व के संकट तथा गिरे हुए मनोबल का सामना कर रही है। पार्टी को राजनीतिक खतरा न केवल भाजपा से बल्कि क्षेत्रीय क्षत्रपों से भी है। यदि कांग्रेस मणिपुर तथा उत्तराखंड गंवा देती है तो पार्टी के पास केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, मेघालय तथा मिजोरम बचेंगे। असम में शानदार जीत के बाद भाजपा की नजर मिजोरम तथा मेघालय पर है। 
 
सबसे बढ़कर, 2017 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में अपना भाग्य जगाने के लिए भाजपा को अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों में अच्छी कारगुजारी दिखाने की जरूरत है। पार्टी को प्रतिष्ठित लड़ाई जीतने के लिए 1.85 लाख वोटें कम पड़ रही हैं, जिसमें 10.98 लाख वोटों का एक इलैक्टोरल कालेज शामिल है। उत्तर प्रदेश में एक शानदार प्रदर्शन, जहां एक विधायक की वोट की कीमत 83,824 है, पार्टी को एक ऐसा झोंका दिला सकता है, जिसकी जरूरत उसे अपना नामांकित व्यक्ति आगे बढ़ाने के लिए चाहिए। हर तरह से 2017 सभी राजनीतिक दलों के लिए करो या मरो की स्थिति वाला होगा।
 
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