विदेशों से लौटने वाले प्रतिभाशाली लोगों के साथ भी हो सकता है राजन जैसा सलूक

Edited By ,Updated: 26 Jun, 2016 01:40 AM

with talented people returning from abroad will also be treated as rajan

मैं न तो अर्थशास्त्री हूं और न ही कोई प्रशासक। इसलिए मेरी इस राय का कोई खास मोल नहीं है कि रघुराम राजन को रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में तैनात रहना चाहिए था

(करण थापर): मैं न तो अर्थशास्त्री हूं और न ही कोई प्रशासक। इसलिए मेरी इस राय का कोई खास मोल नहीं है कि रघुराम राजन को रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में तैनात रहना चाहिए था या नहीं। वैसे इस संबंध में मेरी एक निश्चित राय है, फिर भी मैं यह राय आप पर थोपूंगा नहीं। हालांकि मेरा यह मानना है कि उनके साथ कोई बहुत अच्छा व्यवहार नहीं हुआ था। आज मैं इसी नुक्ते की विस्तार से व्याख्या करूंगा।

 
रघुराम राजन एक लायक तथा आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं, जो अपनी बात स्पष्ट एवं संतोषजनक रूप से व्यक्त कर सकते हैं। जब भी आप साक्षात्कार करने के लिए इस व्यक्ति के समक्ष पहुंचते हैं, तो सबसे पहली जो चीज आपका ध्यान आकर्षित करती है, वह है उनकी अभिव्यक्ति की स्पष्टता। उनकी बात बहुत सरलता से समझ आ जाती है और उनके विचारों का अनुसरण करना भी कठिन नहीं होता। उनकी बातों में कोई शब्दाडम्बर नहीं होता। वह सरल और स्पष्ट वाक्यों में बात करते हैं, हालांकि अधिकतर अकादमिक हस्तियां अकारण ही जटिल शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करती हैं। 
 
जब आप उन्हें डिनर पाॢटयों दौरान मिलते हैं, तो उनकी विनम्रता भरी हाजिर जवाबी और सुखद-सी मुस्कान से स्वत: ही आप उनके साथ बातचीत करने को आकॢषत होते हैं। मुस्कुराहट केवल उनके होंठों पर ही नहीं, बल्कि उनकी आंखों में भी देखी जा सकती है। 
 
जब व्यक्ति लायक हो और बढिय़ा ढंग से बोल सकता हो तो लोग उसकी राय तो पूछेंगे ही, जब भी ऐसा व्यक्ति स्वयं खुल कर बोलेगा तो उसके विचारों का संज्ञान तो लिया ही जाएगा। डा. राजन यह बात जानते हैं और यही कारण है कि वह कभी भी प्रश्रों का उत्तर देने से न तो शर्माते हैं और न ही भयभीत होते हैं, हालांकि कई मौकों पर ये प्रश्र काफी उल्टे-सीधे और असुखद होते हैं या फिर इनको बहुत ध्यान से हैंडल करना पड़ता है। इसलिए जब वह असहिष्णुता के बढ़ते ज्वार या फिर भारत की आॢथक विलक्षणता के संबंध में अवास्तविक उन्माद के बारे में बोले तो यह कोई हैरानी की बात नहीं थी। 
 
हो सकता है यह असाधारण घटनाक्रम हो। उनके पूर्ववर्ती शायद अधिक दबे स्वर में बात करना पसंद करते रहे हैं। लेकिन क्या आप कह सकते हैं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में ऐसे मुद्दों पर बात करना उनके दायरे में नहीं आता? क्या देश का मूड निवेश को प्रभावित नहीं करता? क्या भारत की कारगुजारी के बारे में प्रस्तुत किए गए विचार आलस्य और लापरवाही को बढ़ावा नहीं देते? यदि इन प्रश्रों का उत्तर ‘हां’ में है तो क्या रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अग्रिम चेतावनी नहीं देनी थी? 
 
आखिर बैंक आफ इंगलैंड के कैनेडियन गवर्नर मार्क कार्नी जब  ब्रेक्सिट के विरुद्ध बोले थे और कई लोगों ने उनके इस व्यवहार को पसंद  नहीं किया था तो भी किसी ने उनके इस तरह करने के अधिकार पर प्रश्र नहीं उठाया था, बेशक उस समय ब्रिटेन का भविष्य नतीजों को लेकर अधर में लटका हुआ था। 
 
हमारा दुर्भाग्य ही कहिए कि हम न तो ब्रिटिश लोगों जैसे परिपक्व और उदार हैं और न ही संयमी एवं होशियार। इसीलिए सुब्रह्मण्यम स्वामी ने डा. राजन के विरुद्ध ताबड़तोड़ हल्ला बोल दिया। उन्होंने तो डा. राजन पर ‘जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण ढंग से देश की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने’ का आरोप तक लगा दिया। उन्होंने यह भी दावा किया कि डा. राजन अमरीकी ग्रीन कार्ड होल्डर हैं, इसलिए वह ‘‘मानसिक रूप में पूरी तरह भारतीय नहीं हैं।’’
 
जब वाशिंगटन में एक साक्षात्कार के दौरान रघुराम राजन ने कहा, ‘‘मेरा मानना है कि हमें वह स्थान हासिल करना है, जहां हम खुद को संतुष्ट महसूस कर सकें। अभी तो हमारी हालत लोकोक्तियों के उस काने व्यक्ति जैसी है, जो अंधे लोगों में राजा बन जाता है,’’ तो विदेश व्यापार मंत्री निर्मला सीतारमण ने उन पर चुटकी ली और कहा कि उन्हें बेहतर शब्दों का चयन करना चाहिए था। फिर भी जो कुछ राजन ने कहा, वह बेमिसाल एवं मुहावरेदार तथा देसी जायके से भरा हुआ था। 
 
खेद की बात है कि कोई भी व्यक्ति डा. राजन के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने अपना मौन नहीं तोड़ा, जबकि वित्त मंत्री ने गोल-मोल शब्दों में बात की। दोनों ने ही राजन पर हल्ला बोलने वालों की सहायता नहीं की लेकिन राजन के बचाव में भी नहीं बोले। इसके विपरीत जब डा. स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार को लक्ष्य बनाया तो जेतली की प्रतिक्रिया बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी। 
 
ऐसी परिस्थितियों में यदि रघुराम राजन ने खुद को दूसरी कार्यावधि के लिए उपलब्ध नहीं करवाया तो क्या यह कोई हैरानी की बात है? शायद वह दोबारा रिजर्व बैंक के गवर्नर बनना चाहते थे, लेकिन इससे भी बढ़कर क्या वह अपने स्वाभिमान की कद्र करते हैं? डा. राजन के सही फैसला करने का प्रमाण कहीं और से नहीं बल्कि सुब्रह्मण्यम स्वामी की ओर से आया, जिन्होंने बहुत इतराते हुए टिप्पणी की कि डा. राजन इसलिए छोड़कर जा रहे हैं, ‘‘क्योंकि सरकार ने उन्हें दूसरी बारमौका नहीं दिया।’’
 
इस घटनाक्रम से हमें एक सरल -सा सबक मिलता है : यदि हम सबसे उत्कृष्ट और होनहार लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे तो हम भारत से बाहर गए हुए लोगों को वापस नहीं ला पाएंगे। विदेशों में बहुत से प्रतिभावान भारतीय रहते हैं, जिनकी सेवाओं की हमें जरूरत है। लेकिन हम उन्हें अपने यहां आकॢषत नहीं कर सकेंगे क्योंकि हमें डर है कि उनके साथ भी कहीं डा. राजन जैसा व्यवहार न हो।
 
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