यह कंपनी दे रही है बिना काम के सैलरी, जानें क्यों

Edited By ,Updated: 21 Apr, 2017 02:44 PM

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अगर आपको बताया जाए कि अगर आप काम नहीं करेगें तो भी आपको सैलरी ...

नई दिल्ली : अगर आपको बताया जाए कि अगर आप काम नहीं करेगें तो भी आपको सैलरी दी जाएगी, तो आप उस व्यक्ति की बात पर यकीन नहीं करेंगे और उसका मजाक  बनाएं, लेकिन यह सच है। एक समय था कि जब बिना काम किए किसी को वेतन देना उसे बिगाड़ने का तरीका माना जाता था। हालांकि नए दौर की सोच में इसे किसी परिवार यहां तक की पूरी इकनॉमी को बेहतर बनाने का जरिए माना जा रहा है। जर्मनी का एक स्टार्टअप इसी पॉलिसी पर काम कर रहा है। ये स्टार्ट अप लोगों को सैलरी पर रख रहा है लेकिन उनसे कोई काम नहीं लिया जा रहा।

बिना काम के यहां मिलती है सैलरी
जर्मनी का एक स्टार्टअप साल 2014 से लोगों को सैलरी दे रहा है, हालांकि इन लोगों से कोई काम नहीं लिया जाता हर महीने इन लोगों को एक हजार यूरो यानि करीब 70 हजार रुपए की सैलरी एक साल के लिए दी जा रही है। स्टार्टअप चुने हुए 85 लोगों को ये सैलरी दे रहा है। ये लोग लॉटरी के जरिए चुने गए हैं।  खास बात ये है कि इस रकम को तकनीकी भाषा में भी सैलरी ही माना जाता है। ये रकम सहायता, उधार या अनुदान नहीं मानी जाती। यानि मिलने वाला पैसा पूरी तरह से आय में गिना जाता है।

क्यों स्टार्टअप दे रहा है बिना काम के सैलरी
यह स्टार्ट अप यूनिवर्सल बेसिक इनकम के एक प्रयोग के लिए सैलरी दे रहा है।यूनिवर्सल बेसिक इनकम की थ्योरी में आम लोगों तक एक निश्चित रकम सीधे सरकार या किसी प्राइवेट इंस्टीट्यूशन के जरिए पहुंचाई जाती है। यह रकम उनके द्वारा कमाए जा रहे पैसों से अलग होती है। नोबल पुरुस्कार जीत चुके इकोनॉमिस्ट मिल्टन फ्रीडमेन के द्वारा दी गई हेलिकॉप्टर मनी सिद्धांत पर आधारित यूनिवर्सल बेसिक इनकम में माना जाता है कि लोगों तक सीधे पैसा पहुंचाने से आम लोगों को अपनी लाइफ को और बेहतर बनाने में मदद मिलती है। इसके साथ ही इंडस्ट्री के लिए मांग अपने आप बढ़ती है। वहीं इससे सरकारी योजनाओं में पैसों का दुरुपयोग भी कम होता है।

बिना काम की सैलरी ने कैसे बदली जिंदगी
जर्मनी का स्टार्ट अप बेसिक इनकम के जरिए लोगों को एक परिवार के लिए जरूरी न्यूनतम खर्च दे रहा है। स्टार्ट अप के मुताबिक सर्वे में निकल कर आया है कि हर महीने जरूरत की रकम आने के बाद परिवार अब खुद पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। वे घूमने लगे हैं और बाहर खर्च करने लगे हैं। इस दौरान इन परिवारों के मुखिया का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है क्योंकि न्यूनतम आय की गारंटी से उन्हें बीमारी से रिकवरी के लिए वक्त मिला। इससे पहले उन्हें घर खर्च चलाने के लिए ठीक होने से पहले काम पर लौटना पड़ता था।  परिवारों के मुताबिक बेसिक आय सुनिश्चित होने से उन्होंने कम कमाई की नौकरी को छोड़कर ज्यादा कमाई की नौकरी पर फोकस किया। इसके लिए इन परिवारों स्किल डेवलमेंट पर भी जोर दिया। 

यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर चल रही बहस
जर्मनी में इस स्टार्टअप के प्रयोग से बेसिक इनकम के पक्ष में माहौल बनने लगा है।खुद स्टार्ट अप को इस प्रोजेक्ट की शुरुआत के लिए 55 हजार लोगों से रकम मिली थी,जिससे इन 85 लोगों को सैलरी दी जा रही है।फिनलैंड में भी 2 हजार बेघर लोगों को इसी तरह से बेसिक इनकम की योजना पर काम चल रहा है। हालांकि 2009 में जर्मन संसद ऐसे ही एक प्रस्ताव को खारिज कर चुकी है। प्रस्ताव के विरोधियों के मुताबिक इससे काम न करने की सोच को बढ़ावा मिल सकता है। वहीं प्रस्ताव के समर्थकों के मुताबिक ये बेसिक इनकम है जिससे सबसे बुनियादी जरूरते हीं पूरी होंगी, लाइफ को और बेहतर बनाने के लिए लोगों को काम करना पड़ेगा,लेकिन बुनियादी जरूरतों की चिंता नहीं रहेगी।

भारत में इस थ्योरी पर किस दिशा में हो रहा है काम
भारत में भी यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर बहस चल रही है, पिछले साल ही सरकार के एक सर्वे में सामने आया है कि इससे गरीबी खत्म करने में मदद मिल सकती है।हालांकि मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने बुधवार को संकेत दिए कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम को अन्य योजनाओं के साथ चलाना आसान नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक आधार के जरिए कैश ट्रांसफऱ के इस्तेमाल से देश में गरीबी मिटाई जा सकती है। सुब्रमण्यन के मुताबिक अफ्रीकी देशों से अलग भारत में ये योजना पूरी तरह से सरकार के द्वारा ही संचालित हो सकती है, वहीं भारत की जनसंख्या भी ज्यादा है। ऐसे में बजट पर नजर रखना जरूरी है। उनके मुताबिक देश देश में यूबीआई के लिए जीडीपी के 4-5 फीसदी के बराबर रकम की जरूरत होगी। जो सरकार फिलहाल वहन नहीं कर सकती। ऐसे में यूनिवर्सल इनकम पर किसी भी फैसले के लिए मौजूदा योजनाओं की समीक्षा की जरूरत होगी

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