Edited By Punjab Kesari,Updated: 13 Oct, 2017 10:01 AM
जो भगवान के पास आए, वह महात्मा शुद्ध भक्त कभी भी आध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 7: भगवत ज्ञान
जो भगवान के पास आए, वह महात्मा शुद्ध भक्त कभी भी आध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।
अनुवाद एवं तात्पर्य
नि:संदेह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है उसे मैं अपने ही समान मानता हूं। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
ऐसा नहीं है कि जो कम ज्ञानी भक्त हैं वे भगवान को प्रिय नहीं हैं। भगवान कहते हैं कि सभी उदारचेता हैं क्योंकि चाहे जो भी भगवान के पास किसी भी उद्देश्य से आए, वह महात्मा कहलाता है।
जो भक्त भक्ति के बदले कुछ लाभ चाहते हैं उन्हें भगवान स्वीकार करते हैं क्योंकि इससे स्नेह का विनिमय होता है। वे स्नेहवश भगवान से लाभ की याचना करते हैं और जब उन्हें वह प्राप्त हो जाता है तो वे इतने प्रसन्न होते हैं कि वे भी भगवद् भक्ति करने लगते हैं।
किंतु ज्ञानी भक्त भगवान को प्रिय इसलिए हैं कि उसका उद्देश्य प्रेम तथा भक्ति से परमेश्वर की सेवा करना होता है। ऐसा भक्त भगवान की सेवा किए बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता। इसी प्रकार परमेश्वर अपने भक्त को बहुत चाहते हैं और वह उससे विलग नहीं हो पाते।
श्रीमद्भागवत में (9.4.68) भगवान कहते हैं
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि।।
‘‘भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदयों में वास करता हूं। भक्त मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता। मेरे तथा शुद्ध भक्तों में घनिष्ठ संबंध रहता है। ज्ञानी शुद्धभक्त कभी भी आध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते। अत: वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं।’’