शेखियों के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार का मुकाबला नहीं कर पाई मोदी सरकार

Edited By Punjab Kesari,Updated: 18 Dec, 2017 03:53 AM

modi government was unable to meet manmohan singh despite the sheikhas

राहुल गांधी इंडियन नैशनल कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले अपने खानदान के छठे व्यक्ति हैं। सबसे पहले मोती लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मौका मिला और उसके बाद उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरू, फिर क्रमश: इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी इस पद...

राहुल गांधी इंडियन नैशनल कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले अपने खानदान के छठे व्यक्ति हैं। सबसे पहले मोती लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मौका मिला और उसके बाद उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरू, फिर क्रमश: इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी इस पद पर सुशोभित हुए। मोती लाल नेहरू 1919 में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे और इस प्रकार अगले वर्ष कांग्रेसी बागडोर संभालने की इस परिवार की एक शताब्दी पूरी हो जाएगी। 

वैसे इस बीच अन्य लोग भी अध्यक्ष बनते रहे हैं लेकिन मोती लाल नेहरू के एक दशक बाद जब उनके बेटे ने पार्टी की कमान संभाली तो भारत में ‘राजनीतिक राजवंश’ की अवधारणा पहले ही जड़ें पकड़ रही थी। प्रारम्भ में कांग्रेस अध्यक्ष का पद किसी व्यक्ति को केवल एक वर्ष के लिए मिलता था। लेकिन मेरा मानना है कि जब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बन गए तो वह अधिक लंबी अवधि तक इस पद पर डटे रहे। इंदिरा गांधी के अभ्युदय के बाद यह पद किसी न किसी हद तक एक ही व्यक्ति के लिए स्थायी हो गया। सबसे लंबे समय यानी 20 वर्ष तक वह इस पद पर डटी रहीं। इस अवधि को इस रूप में याद किया जाएगा कि कांग्रेस की छवि भारतीयों की नजरों में बिल्कुल ही बदल गई। 

बहुत से युवा पाठक यह जानकर आश्चर्य चकित होंगे कि कांग्रेस को इसके इतिहास के ज्यादातर दौर में एक हिन्दू पार्टी के रूप में ही देखा गया। इसके नेतृत्व में जो विभूतियां थीं उनके विचार बहुत परम्परावादी थे और आज वे भाजपा से संबद्ध हैं जबकि वास्तव में वे कांग्रेस से आए हुए हैं। जैसे कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय। जिन्नाह की मुस्लिम लीग यह महसूस करती थी कि भारत के अल्पसंख्यक कांग्रेस के तत्वावधान में न्याय हासिल नहीं कर सकते और इसी तथ्य ने देश विभाजन का मार्ग प्रशस्त किया। सोनिया गांधी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने पार्टी को इस छवि से इतना दूर खींचा कि आज बहुत से लोग इसे हिन्दू विरोधी मानने लगे हैं जोकि वास्तव में यह नहीं है। 

पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनका 2 दशक का कार्यकाल भारत के इतिहास के सबसे दिलचस्प कालखंडों में से एक है। राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस की कमान एक रहस्यमय व्यक्तित्व के मालिक लेकिन बहुत प्रबुद्ध राजनीतिक हस्ती पी.वी. नरसिम्हा राव के हाथों में आई लेकिन उन्हें भी सोनिया गांधी की परछाईं में ही शासन करना पड़ा। उन दिनों सोनिया नितांत निजी जीवन जीने वाली हस्ती थीं- आज से कहीं अधिक। इसलिए बहुत कम मौकों पर उन्हें सार्वजनिक मंचों पर देखा जाता था। इसी कारण वह कभी-कभार ही अपने विचार व्यक्त करती थीं। ऐसे में समाचार पत्रों द्वारा उनके एक-एक शब्द तथा संकेत की गहन व्याख्या की जाती थी। इसे आप गलत समझें या सही लेकिन वास्तव में लोगों का यह दृढ़ विश्वास था कि सोनिया के पास बेशक कोई पद नहीं है और न ही सरकार के साथ उनका कोई वास्तविक संबंध है तो भी देश की सत्ता का केन्द्र वही हैं। 

यदि कांग्रेस के लिए ‘राजवंश मुक्त’ पार्टी बनने का अवसर था तो यही था। इस समय पर वरिष्ठ नेता इस काम को अंजाम दे सकते थे लेकिन बाबरी आंदोलन ने हमारे समाज और हमारी राजनीति में जिस ङ्क्षहसा का समावेश किया उसने कांग्रेस को बहुत असुरक्षित बना दिया और पार्टी ज्यादा मजबूती से नेहरू-गांधी खानदान को समॢपत हो गई। जब सोनिया ने वास्तव में नेतृत्व संभालने का प्रयास किया तो इसमें उन्हें कोई कठिनाई नहीं आई बल्कि उन्होंने पदासीन अध्यक्ष सीताराम केसरी को ऐसे एक तरफ धकेल दिया जैसे झाड़ू से कचरा हटाया जाता है। वह हमेशा साड़ी ही पहनती आई थीं लेकिन अब उन्होंने इसे एक तरह से यूनिफार्म ही बना लिया। छोटी-छोटी बातों का संज्ञान लेने वाले भारतीयों ने यह अवश्य ही नोट किया होगा कि वह साडिय़ों का चयन जितनी होशियारी से करती हैं उतनी ही सलीके से साड़ी पहनती भी हैं। हमारी राजनीति में यह एक असाधारण बात है। 

उन्होंने केवल हिन्दी में ही बोलना शुरू कर दिया। उनके भाषण रोमन हिन्दी में लिखे होते थे और इनका उपहास उड़ाया जाता था। कई समाचार पत्रों में इस संबंध में तस्वीरें भी छपती रही हैं लेकिन बाद में एक तस्वीर से यह खुलासा हुआ कि अब वह रोमन हिन्दी की बजाय देवनागरी में ही भाषण पढ़ती हैं। कुछ समय और बीतने के बाद उन्होंने लिखित भाषण पढऩे का सिलसिला ही त्याग दिया। वह करिश्माई भाषणकत्र्ता नहीं और उन्होंने कभी करिश्माई होने की नौटंकी भी नहीं की। उनकी जिंदगी में 2 उल्लेखनीय पल आए थे पहला था 2004 में, जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इन्कार कर दिया था हालांकि संवैधानिक तौर पर ऐसे करने की पात्रता रखती थीं। सुषमा स्वराज ने तो यहां तक धमकी दे दी थी कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वह मुंडन करवा लेंगी। उनका आरोप था कि सोनिया विदेशी हैं। 

सोनिया पर इस तथ्य को लेकर हमले किए गए कि उन्होंने अपनी यूरोपीय नागरिकता त्यागने में इतनी अधिक देर क्यों लगाई। मुझे यह आरोप बहुत अजीब लगता है। ‘ग्रीन कार्ड’  के लिए पगलाए हुए इस देश में कितने भारतीय हैं जिन्होंने देशभक्ति का प्रमाण देते हुए अमरीकी व यूरोपीय नागरिकता का परित्याग किया है? मैं तो ऐसे किसी भारतीय को नहीं जानता लेकिन इस महिला ने ऐसे भारतीयों से बिल्कुल अलग रवैया अपनाया, फिर भी उन पर हमले किए गए। अक्षय कुमार ने कनाडा की नागरिकता के लिए अपनी भारतीय नागरिकता का परित्याग कर दिया लेकिन फिर भी वह भारतीय टी.वी. चैनलों पर देशभक्ति का प्रचार करते अभी दिखाई देते हैं। दूसरा काम सोनिया ने किया मनमोहन सिंह को सरकार में लाने का, जिन्होंने पहले नरसिम्हा राव सरकार के दौर में आॢथक सुधारों का सिलसिला शुरू किया था। 

प्रधानमंत्री के रूप में उनके दो कार्यकालों को गलत रूप में भ्रष्टाचार का पर्याय माना जाता है जबकि सही अर्थों में इसी दौर ने भारत का कायाकल्प किया था। सूचना अधिकार अधिनियम तथा नरेगा जैसे कुछ अन्य मानवीय कानूनों ने सरकार को वामपंथी एवं समाजवादी आभा प्रदान की। फिर भी, जैसा कि मनमोहन सिंह ने खुद बताया कि गठबंधन सरकार का मुखिया होने के बाद 10 वर्ष के कार्यकाल दौरान उनकी गतिविधियां बहुत सीमित थीं और उनके कार्यकाल के दौरान जी.डी.पी. की वृद्धि दर भी औसत ही रही लेकिन वर्तमान सरकार तो अपनी सब प्रकार की शेखियों के बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार की उपलब्धियों का मुकाबला भी नहीं कर पाई। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा लड़े गए पिछले आम चुनाव के नतीजे इसके लिए बदतरीन सिद्ध हुए थे लेकिन फिर भी इतिहास सोनिया को उनके चरित्र और उपलब्धियों के मद्देनजर सकारात्मक रूप में ही आंकेगा।-आकार पटेल

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