संन्यासी के बगीचे में खिलता था स्वर्ण पुष्प लेकिन एक दिन हुआ कुछ ऐसा...

Edited By ,Updated: 28 Jun, 2016 03:32 PM

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किसी गांव के समीप संन्यासी का आश्रम था। उसे गांव वालों से जो भिक्षा मिलती उससे वह भोजन बनाता और अपने लिए थोड़ा रख कर बाकी गरीबों में बांट देता।

किसी गांव के समीप संन्यासी का आश्रम था। उसे गांव वालों से जो भिक्षा मिलती उससे वह भोजन बनाता और अपने लिए थोड़ा रख कर बाकी गरीबों में बांट देता। एक दिन कुछ देवताओं ने संन्यासी को दर्शन दिए और कहा, ‘‘तुम सच्चे संन्यासी हो। हम तुम्हें एक बीज देते हैं इसे बो देना। इसके पौधे से पुष्प खिलने पर तुम्हें कभी कोई कठिनाई नहीं रहेगी।’’

 

यह कह कर देवता अंर्तध्यान हो गए। संन्यासी ने आश्रम के बगीचे में बीज बो दिया। कुछ दिन बाद एक पौधा उग आया। एक दिन उस पर पुष्प खिल उठा। वह सामान्य पुष्प नहीं, स्वर्ण पुष्प था। प्रतिदिन एक पुष्प खिलता, संन्यासी उसे बेचकर प्राप्त धन से अधिकाधिक निर्धनों-निराश्रितों को भोजन कराता। संन्यासी ने कुछ दिन पश्चात तीर्थ यात्रा का निश्चय किया। उसने अपने एक शिष्य को स्वर्ण पुष्प के बारे में बताया और तीर्थ यात्रा पर चला गया। आश्रम की भोजन व्यवस्था पूर्ववत रही। 

 

कुछ समय बाद शिष्य के मन में कपट आ गया। उसने भोजन व्यवस्था में कमी कर दी और तय किया कि वह संन्यासी के लौटने से पूर्व अधिक से अधिक धन जमा कर आश्रम छोड़ देगा। अगली सुबह उसने देखा कि स्वर्ण पुष्प खिला ही नहीं। पौधा कुम्हलाने लगा। रोजाना सींचने के बाद भी न पौधा हरा हुआ और न ही पुष्प खिला। जमा धन समाप्त हो गया। उसे भी प्राय: भूखा रहना पड़ता। 

 

गांव वालों ने भी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। चार माह पश्चात संन्यासी लौटा। शिष्य ने प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘गुरु जी आपके जाने के बाद पुष्प खिला ही नहीं।’’ 

 

संन्यासी ने इसकी वजह पूछी तो वह बोला, ‘‘पता नहीं।’’ 

 

संन्यासी को देख ग्रामीणों व गरीबों की भीड़ जमा हो गई तथा शिष्य के बर्ताव की शिकायत संन्यासी से की। शिष्य की दृष्टि नीचे झुक गई। वह बोला ‘‘मुझसे भूल हो गई गुरु जी।’’ 

 

संन्यासी ने कहा, ‘‘देवताओं की कृपा से यह पौधा मिला था परंतु तुम्हारे अनुचित व्यवहार के कारण स्वर्ण-पुष्प खिलना बंद हो गया।’’

 

संन्यासी ने कहा, ‘‘कल से पुन: निर्धन, निराश्रितों के लिए भोजन व्यवस्था पूर्ववत् आरंभ हो जाएगी।’’ 

 

अगले दिन जब संन्यासी उठा तो उसने देखा कि पौधा फिर हरा-भरा होकर स्वर्ण पुष्प खिलाए खड़ा है। संन्यासी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने शिष्य से कहा, ‘‘देखो स्वर्ण-पुष्प पुन: खिल उठा है। तुम दरिद्र नारायण का आदर करना सीखो इसी में तुम्हारा भी कल्याण है।’’    

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