कृष्णावतार

Edited By ,Updated: 24 Jul, 2016 02:03 PM

sri krishna

घटोत्कच ने उछल कर अपनी गदा से जटासुर के सिर पर जोर से प्रहार किया। चोट खाकर राक्षस जटासुर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसके सिर से

घटोत्कच ने उछल कर अपनी गदा से जटासुर के सिर पर जोर से प्रहार किया। चोट खाकर राक्षस जटासुर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसके सिर से खून बहने लगा। 

 

युधिष्ठिर, सहदेव और नकुल आदि उसकी पकड़ से निकल गए और घटोत्कच से बोले, ‘‘शाबाश बेटा, जीते रहो।’’

 

तभी उन लोगों को मेघों जैसी गरजना सुनाई दी। महाबली भीमसेन चले आ रहे थे। उनके नेत्र ज्वाला बरसा रहे थे। 

 

इधर वह घायल राक्षस भी उठ कर खड़ा हो गया और द्रौपदी को पकडऩे के लिए झपटा। भीम भी मस्त हाथी की भांति लंबे-लंबे पग भरते हुए उस ओर लपके। उन्होंने उस राक्षस को दबोच लिया और घटोत्कच से कहा, ‘‘तुम एक ओर हट जाओ, मैं इसे भी ठिकाने लगा देता हूं।’’

 

‘‘पिता जी, आप क्यों कष्ट करते हैं। इसे यमलोक पहुंचाने का मुझे ही अवसर दें।’’ घटोत्कच ने कहा।

 

इस पर भीमसेन ने घटोत्कच के गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम्हें अभी हमारे बहुत से शत्रुओं से निपटना है। वे इस राक्षस से कहीं अधिक बलशाली हैं क्योंकि उनके पास दिव्य अस्त्र हैं। इसलिए तुम अपनी शक्ति ऐसे तुच्छ व्यक्तियों पर नष्ट न करो।’’ 

 

बहुत देर तक भीमसेन तथा जटासुर में बाहुयुद्ध होता रहा और अंतत: जटासुर गिर पड़ा। भीमसेन के एक मुक्के ने उसे यमलोक पहुंचा दिया। 

 

भीमसेन के हाथों जटासुर के मारे जाने के पश्चात युधिष्ठिर ने अपने तीनों भाइयों, द्रौपदी तथा ब्राह्मणों के साथ बद्रिकाश्रम में कुछ दिन और निवास किया जहां भगवान नारायण रूप में विराजमान हैं। वहां उपस्थित रहने वाले ऋषियों और पंडितों से धर्म चर्चा करते रहे और फिर वहां से आगे जाने के लिए प्रस्थान किया।

 

जहां मार्ग समतल होता वहां तो सब लोग पैदल चलते मगर जहां चढ़ाई-उतराई सीधी होती वहां घटोत्कच और उसके राक्षस सरदार एवं सैनिक उन लोगों को अपने कंधों पर उठा लिया करते और चलते रहते। 

 

इस प्रकार रास्ते में कैलाश पर्वत, मैनाक पर्वत, गंधमादन की तलहटी तथा ऊपर-ऊपर के पहाड़ों की अनेक नदियों को देखते हुए हिमालय के क्षेत्र जोकि पिछली तरफ था, जा पहुंचे। वहां मानसरोवर पर उन्होंने राजऋषि वृषपर्वा का आश्रम देखा। 

(क्रमश:)

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