श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष: जानिए, कैसे आए भगवान धरती पर

Edited By ,Updated: 24 Aug, 2016 02:12 PM

sri krishna janmashtami

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्री हरि ने भगवान श्री कृष्ण के रूप में अवतरित होकर इस धराधाम का मान बढ़ाया और पापियों का

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्री हरि ने भगवान श्री कृष्ण के रूप में अवतरित होकर इस धराधाम का मान बढ़ाया और पापियों का विनाश करके धर्म का साम्राज्य स्थापित किया। अत: इस तिथि को श्री हरि के प्राकट्य महोत्सव श्री कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है। 
 
धरती पर दैत्यों का उपद्रव बढ़ गया, लोग दुखी हो गए पाप बढ़ गया। धरती से यह सब सहा न गया तो उसने ब्रह्मा जी की शरण ली। ब्रह्मा आदि देव नारायण के पास आए और प्रार्थना करने लगे, ‘‘नाथ! अब तो कृपा कीजिए। आप अवतार लीजिए।’’  
 
भगवान ने ब्रह्मा जी से कहा, ‘‘कुछ ही समय में मैं वसुदेव-देवकी के घर प्रकट होऊंगा। मेरी सेवा के लिए तुम सब देव भी अवतार लेना।’’  
 
ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी सुनी और सभी देवों को आश्वस्त किया। इधर मथुरा में विवाह करने के लिए वसुदेव आए। वसुदेव-देवकी का विवाह हुआ। स्वयं कंस ने ही वर-वधू का रथ चलाया।  
 
कंस ने वसुदेव को बहुत सताया तो भगवान का प्राकट्य शीघ्र हो गया। भक्तों के दुख भगवान से सहे नहीं जाते। पापी का दुख भगवान साक्षी के रूप में देख लेते हैं और सह लेते हैं, किन्तु पुण्यशाली का दुख उनसे सहा नहीं जाता। 
 
आकाशवाणी सुनाई दी, ‘‘हे कंस, देवकी की आठवीं संतान तेरी हत्या करेगी।’’ 
 
कंस ने आकाशवाणी सुनी तो वह तलवार लेकर देवकी की हत्या करने के लिए तैयार हो गया। तब वसुदेव उसे समझाने लगे, जो आया है वह जाएगा। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी होगी। इसीलिए तो महात्माजन मृत्यु को टालने का नहीं सुधारने का प्रयत्न करते हैं। वैर न करो। वैर या सुख की वासना मृत्यु को भ्रष्ट करती है। देवकी की हत्या करने से तो तुम अमर हो नहीं सकते और देवकी तो तुम्हारी मृत्यु का कारण है नहीं। 
 
कंस, ‘‘हां यह तो है।’’ 
 
वसुदेव, ‘‘तो मैं देवकी की सभी संतानें तुम्हारे हवाले करता रहूंगा।’’ 
 
कंस ने सोचा कि यह भी ठीक है। स्त्री की हत्या के पाप से तो बच जाऊंगा। उसने कहा, ‘‘अच्छा, मैं देवकी की हत्या नहीं करूंगा।’’ 
 
वसुदेव शुद्ध सत्व गुण का स्वरूप है। विशुद्ध चित्त ही वसुदेव है। देवकी निष्काम बुद्धि है। इन दोनों का मिलन होने पर भगवान का जन्म होता है। वसुदेव-देवकी घर आए। प्रथम बालक का जन्म हुआ। वसुदेव ने कंस को दे दिया। कंस का हृदय पिघला। इस बालक को मारने से मुझे कोई लाभ नहीं होगा। आठवां बालक मुझे मारेगा, यह तो पहला है, मैं इसे मारूंगा नहीं। सातों बालकों को अपने पास ही रखना। मेरा काल होने वाला आठवां बालक ही मुझे देना। वसुदेव जी बालक को लेकर वापस लौटे।  
 
नारद जी ने सोचा कि यदि यह कंस अच्छाई करने लगेगा तो पाप कैसे कर पाएगा और यह पाप नहीं करेगा तो भगवान अवतार नहीं लेंगे। कंस का पाप नहीं बढ़ेगा, तो वह शीघ्र मरेगा भी नहीं। पाप न करने वाले को भगवान जल्दी मारते नहीं हैं। 
 
नारद जी कंस के पास आए और कहा, ‘‘कंस! तू तो बहुत भोला है। देव तुम्हें मारने की सोच रहे हैं। वसुदेव के बालकों को छोड़कर तुमने अच्छा नहीं किया। कोई भी बालक आठवां हो सकता है। यदि आठवें बालक को पहला माना जाए तो यह पहला बालक आठवां माना जाएगा।’’ 
 
कंस, ‘‘तो क्या मैं सभी बालकों की हत्या करता रहूं?’’ 
 
नारद जी ने सोचा कि यदि मैं सम्मति दूंगा, तो मुझे भी बाल हत्या का पाप लग जाएगा। दूसरों को पाप की प्रेरणा देने वाला भी पापी है। नारद जी ने कहा, ‘‘राजन, मैं तो तुम्हें सावधान करने के लिए आया हूं। तुम्हें जो ठीक लगे वह करते रहना।’’ इसके बाद वह ‘नारायण-नारायण’ बोलते हुए चले गए। 
 
नारद ने कंस के पाप को बढ़ाने हेतु ही उसे उल्टा-सीधा पढ़ा दिया। कंस ने वसुदेव-देवकी को कारागार में बंद कर दिया। बिना अपराध ही बंधन में बंध गए, फिर भी उन्होंने मान लिया कि शायद ईश्वर को यही पसंद है। यह तो भगवान की कृपा ही है कि उनका नाम स्मरण करने के लिए एकांतवास मिला है। अतिशय दुख को भी प्रभु की कृपा ही समझना चाहिए। 
 
कंस ने देवकी की छ: संतानों की हत्या कर दी। योगमाया का आगमन हुआ। उन्होंने सातवें गर्भ की स्थापना रोहिणी के उदर में की। रोहिणी सगर्भा हुईं और दाऊ जी महाराज प्रकट हुए। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन। ‘बलदेव’ शब्दब्रह्म का स्वरूप है। पहले शब्द ब्रह्म आता है और बाद में परब्रह्म। बलराम का आगमन होने पर ही परब्रह्म गोकुल में आते हैं। 
 
दाऊ जी ने आंखें खोली ही नहीं। जब तक मेरा कन्हैया नहीं आएगा, मैं आंखें नहीं खोलूंगा। यशोदा जी पूर्णमासी से बलराम की नजर उतारने की विनती करती हैं। पूर्णमासी कहती है कि यह तो किसी का ध्यान कर रहा है। इस बालक के कारण तेरे घर बालकृष्ण पधारेंगे। 
 
यशोदा ने सभी को प्रसन्न किया। जो दूसरों को यश देती है, वह यशोदा है। जो सभी को आनंद देता है वहीं नंद है। विचार, वाणी, आचरण, सदाचार से जो अन्य को आनंद  देता है, उसी के घर भगवान पधारते हैं, जो सभी को आनंद देता है उसी को परमानंद मिलता है। 
 
नंदबाबा ने सभी को आनंद दिया सो उनके घर परमानंद प्रभु आ रहे थे। सभी गोपाल महर्षि शांडिल्य के पास आए और कहा कि महाराज, कुछ ऐसा कीजिए कि नंद जी के घर पुत्र का जन्म हो। शांडिल्य जी के कहने पर सभी एकादशी का व्रत करने लगे। सभी ग्वालों की एक ही इच्छा थी कि परमात्मा प्रसन्न हो जाएं और नंद बाबा के घर पुत्र-जन्म हो। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से सभी गोकुलवासी निर्जला एकादशी आदि व्रत करने लगे। इधर देवकी ने आठवां गर्भ धारण किया, तो उधर कंस ने सेवकों को सावधान कर दिया कि, ‘‘मेरा काल आ रहा है।’’ 
 
सेवकों ने कहा, ‘‘हम तो सदा जागते ही रहते हैं। हम चौकन्ने ही रहते हैं। बालक का जन्म होते ही आपको समाचार दे देंगे।’’ 
 
देवगण देवकी-गर्भवासी भगवान नारायण की प्रार्थना करते हैं, आप तो सत्य स्वरूप त्रिकाल बाधित हैं। अपना वचन सत्य करने हेतु आप पधार रहे हैं। अनेक विद्वानों की अधोगति हमने देखी है किन्तु जो व्यक्ति आपकी लीलाओं का स्मरण और आपके नाम का जप करता है उसकी कभी अधोगति नहीं होती। नाथ! आप कृपा करें।’’ 
 
देवों ने देवकी को भी आश्वासन दिया। नौ मास परिपूर्ण होने को आए। मन, बुद्धि, पंचप्राण आदि की शुद्धि हुई है। इन सबकी शुद्धि होने पर परमात्मा के दर्शन की आतुरता बढ़ती जाती है। ईश्वर के दर्शन के बिना चैन नहीं आता। अत: जब जीव तड़पता है और अतिशय आतुर हो जाता है तभी भगवान अवतार धारण करते हैं।
 
परम शोभायमान और सर्वगुण सम्पन्न घड़ी आई, चंद्र रोहिणी नक्षत्र में आया, दिशाएं स्वच्छ हुईं, आकाश निर्मल हुआ, नदी का नीर निर्मल हुआ, वन-उपवन में पक्षी और भंवरे गुनगुनाने लगे, शीतल, सुगंधित, पवित्र हवा बहने लगी, महात्माओं के मन प्रसन्न हुए, स्वर्ग में दुंदुभि बजने लगी, मुनि और देवगण आनंद से पुष्पवृष्टि करने लगे और परम पवित्र समय आ पहुंचा। भाद्र पद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्य रात्रि में कमलनयन चतुर्भुज  नारायण भगवान बालक का रूप लेकर वसुदेव-देवकी के समक्ष प्रकट हुए। भगवान अपने श्री हस्तों में शंख, चक्र, गदा और पदम धारण किए हुए हैं। चारों ओर प्रकाश बिखर गया। उनका चतुर्भुज स्वरूप यह बताता है कि उनके चरणों की शरण लेने वालों के चारों पुरुषार्थ वह सिद्ध करेंगे। 
 
सम्पत्ति और संतति का सर्वनाश हो गया था, फिर भी वसुदेव-देवकी दीनतापूर्वक ईश्वर की आराधना करते थे। प्रभु ने कहा, ‘‘मेरे चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कर लीजिए और ग्यारह वर्ष तक मेरा ध्यान करते रहिए। मैं अवश्य आपके पास आऊंगा।’’ 
 
भगवान का चतुर्भुज स्वरूप अदृश्य हो गया और दो छोटे-छोटे हाथों वाले बाल कन्हैया प्रकट हुए। 
 
प्रभु ने कहा, ‘‘मुझे गोकुल में नंदबाबा के घर छोड़ आइए।’’  
 
वसुदेव ने उन्हें टोकरी में लिटाया, किन्तु बाहर कैसे निकला जाए? कारागृह के द्वार बंद हैं और बंधन भी टूटते नहीं हैं, किन्तु ज्यों ही टोकरी सिर पर उठाई सारे बंधन टूट गए। जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है उसके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैं। हाथ-पांव की बेडिय़ां टूट जाती हैं, बाढ़ भी थम जाती है। जिसके सिर पर भगवान हैं उसे मार्ग में विघ्न बाधित नहीं कर सकते। मात्र घर में आने से नहीं, मन में भगवान के आने पर ही बंधन टूट जाते हैं। जो व्यक्ति वसुदेव की भांति श्री कृष्ण को अपने मस्तक पर विराजमान करता है, उसके सभी बंधन टूट जाते हैं। कारागृह के सांसारिक मोह के बंधन टूट जाते हैं, द्वार खुल जाते हैं। 
 
वसुदेव जी कारागृह में से बाहर आए। दाऊ जी दौड़ते हुए आए। शेषनाग के रूप में बाल कृष्ण पर छत्र धारण किया। यमुना जी को अत्यंत आनंद हुआ। दर्शन से तृप्त नहीं हो पा रही थीं। मुझे प्राणनाथ से मिलना है। यमुना में जल बढ़ गया। प्रभु ने लीला की, टोकरी में से अपने पांव बाहर की ओर बढ़ा दिए। यमुना जी ने चरण स्पर्श किया और कमल भेंट किया। प्रथम दर्शन और मिलन का आनंद यमुना जी को दिया। धीरे-धीरे जल कम हो गया। 
 
वसुदेव गोकुल में आ पहुंचे। योगमाया के आवरण वश सारा गांव गहरी नींद में डूबा हुआ था। वसुदेव ने श्री कृष्ण को यशोदा की गोद में रख दिया और बालिका स्वरूप योग माया को उठा लिया। वसुदेव ने सोचा कि अब भी उनका प्रारब्ध कर्म बाकी रह गया है तभी तो भगवान को छोड़कर माया को गले लगाने का अवसर आया है। 
 
वसुदेव योगमाया को टोकरी में बिठाकर वापस कारागृह आ पहुंचे। ब्रह्म संबंध होने पर सभी बंधन टूट गए थे। अब माया आई तो बंधन भी आ गए। वसुदेव गोकुल से माया को अपने सिर पर बिठाकर लाए, सो फिर बंधन आ पहुंचा और कारागृह के द्वार बंद हो गए।  
 
अब कारागृह में देवकी की गोद में सोई हुई योगमाया रोने लगी। सेवकों  ने शीघ्र ही कंस को संतान के जन्म का समाचार दिया। कंस दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘कहां है मेरा काल? मुझे सौंप दो उसे।’’ 
 
कंस योगमाया के पांव पकड़कर उन्हें पत्थर पर पीटने लगा, किन्तु माया कभी किसी के हाथ में आई भी है? आदिमाया ने तो कंस के ही सिर पर एक लात जड़ दी और उसके हाथों से छूटकर आकाशगामी हो गई। आकाश में उन्होंने अष्टभुजा जगदंबा भद्रकाली का रूप धारण किया। उन्होंने कंस से पुकारकर कहा, ‘‘अरे पापी, तेरा काल तो अवतरित हो गया है और सुरक्षित है।’’ 
 
कंस ने पश्चात्ताप करते हुए वसुदेव-देवकी से अपने अपराध की क्षमा मांगी। उधर जन्माष्टमी के दिन नंद जी ने बारह बजे तक जागरण किया। महर्षि शांडिल्य के कहने पर सभी सो गए थे और गहरी नींद में डूब गए थे। बाल कृष्ण जब नंद जी के घर में आए तब नंद बाबा सोए हुए थे। नंद बाबा ने स्वप्न में देखा कि कई बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके आंगन में पधारे हुए हैं, यशोदा जी ने शृंगार किया है और गोद में एक सुंदर बालक खेल रहा है। उस बालक को मैं निहार रहा हूं। शिवजी भी उस बालक का दर्शन करने आए हुए हैं। 
 
नंद बाबा प्रात: काल में जागृत होने पर मन में कई संकल्प-विकल्प करते हुए गौशाला में आए। वह स्वयं गौसेवा करते थे। गायों की जो प्रेम से सेवा करता है उसका वंश-नाश नहीं होता। नंद बाबा ने प्रार्थना की, ‘‘हे नारायण! दया करो। मेरे घर गायों के सेवक गोपाल कृष्ण का जन्म हो।’’
  
उसी समय बाल कृष्ण ने लीला की। पीला चोला पहने हुए, कपाल पर कस्तूरी के तिलक वाले बाल कृष्ण घुटनों के बल बढ़ते हुए गौशाला में आए। इस बालक को नंद जी ने देखा तो उनके मन में हुआ कि अरे, यह तो वही बालक है जिसे मैंने स्वप्न में आज ही देखा है। बाल कृष्ण ने नंद बाबा से कहा, ‘‘बाबा, मैं आपकी गायों की सेवा करने के लिए आया हूं।’’ 
 
गौशाला में आए हुए कन्हैया को नंद जी प्रेम से निहारते हुए स्तब्ध से हो गए। उन्हें देहभान तक नहीं रहा। वह बाल कृष्ण के दर्शन से समाधिस्थ हो गए। उन्हें कुछ ज्ञात ही नहीं हो रहा था कि वह जाग रहे हैं या सो रहे हैं। सुनंदा को यशोदा की गोद में बाल कृष्ण की झांकी हुई, तो वह दौड़ती हुई गौशाला में भाई को खबर करने आई, भैया, भैया लालो भयो है।’’
 
आनंद ही आनंद हो गया। श्री कृष्ण हृदय में आ गए। नंद जी ने यमुना जी में स्नान किया। जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में स्नान किया जाता था। उनको सुवर्ण के आसन पर बिठाया गया। महर्षि शांडिल्य ने उनको दान करने को कहा। नंद बाबा ने बड़ी उदारता से दान दिया। दान से धन की शुद्धि होती है। गायों का दान दिया गया। नंद बाबा ने दो लाख गायों का दान दिया। गांव की सभी गोपियों में कन्हैया के जन्म की बात फैल गई, तो वे सब भी उसके दर्शन के लिए दौड़ चलीं, मानो नवधा भक्ति दौड़ती हुई ईश्वर से मिलने के लिए जा रही हो। गोपियों की वेणी से फूल नीचे झर रहे हैं और कह रहे हैं, तुम कृष्ण के दर्शन के लिए आतुरता से दौड़ रही हो। तुम भाग्यशाली हो। तुम्हारे सिर पर रहने के लिए हम योग्य नहीं हैं। हम तो तुम्हारे चरणों में गिर कर तुम्हारी चरणरज के स्पर्श से पावन हो जाएंगे।
 
यशोदा की गोद में खेलते हुए सर्वांगसुंदर बाल कृष्ण को गोपियां दही का अभिषेक करने लगीं। निर्धन गोपियां दूध और दही लेकर आई हैं। कृष्ण के दर्शन होने पर आनंद के आवेश से वे सानभान भूल गईं और स्वयं को ही दूध-दही से नहलाने लगीं। सभी गोपियों का मन कन्हैया ने आकर्षित कर लिया। हृदय में आनंद का पारावार उमड़ रहा है। गोपियां जितना लेकर आई हैं उसका दस गुना बढ़ाकर वापस लौटाना है। किसी को चांदी की थाली दी गई तो किसी को चंद्रहार। यशोदा जी ने सोच लिया था कि घर का सर्वस्व क्यों न चला जाए किन्तु सभी का आशीर्वाद और शुभेच्छा पाना है। गोपियां जो कुछ मांगें, दिया जाए।
 
आनंद में पागल गोपियां कन्हैया की जयकार कर रही हैं। एक ने तो कहा-यदि देना है मुझे तो कन्हैया ही दीजिए। यशोदा ने उसे अपने पास बिठाकर उसकी गोद में लाला को बिठाया। हजारों जन्मों से बिछड़ा हुआ जीव आज प्रभु से मिल पाया। ईश्वर से मिलन होने पर जीव आनंद से झूम उठता है, ईश्वर से मिलन होने पर अन्य कोई भी आकांक्षा शेष नहीं रह जाती, जीव धन्य हो उठता है।

 

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