देश में चिकित्सा की दयनीय हालत 11,000 रोगियों पर 1 एलोपैथिक डाक्टर

Edited By ,Updated: 06 Oct, 2015 02:28 AM

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केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढा ने 24 फरवरी, 2015 को राज्यसभा में एक प्रश्र के उत्तर में स्वीकार किया कि ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डाक्टर- रोगी का अनुपात 1000 तय किया है

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढा ने 24 फरवरी, 2015 को राज्यसभा में एक प्रश्र के उत्तर में स्वीकार किया कि ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डाक्टर- रोगी का अनुपात 1000 तय किया है परंतु भारत में यह अनुपात बहुत कम है। देश भर में 14 लाख डाक्टरों की कमी है और प्रतिवर्ष लगभग 5500 डाक्टर ही तैयार हो पाते हैं।’’ 

एक ओर जहां देश के अनेक सरकारी अस्पताल स्टाफ के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, वहीं स्टाफ न होने के कारण ही अनेक रोगियों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। यहां तक कि एम्स जैसे देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में चिकित्सकों की कमी के कारण गंभीर रोगों से पीड़ित रोगियों को आप्रेशन के लिए लम्बा इंतजार करने को कहा जा रहा है। कुछ रोगियों को तो 6 से 10 वर्ष तक बाद की तारीखें दी जा रही हैं।
 
देश में इस समय 412 मैडीकल कालेज हैं। इनमें से 45 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में और 55 प्रतिशत निजी क्षेत्र में हैं। एम.बी.बी.एस. की सिर्फ 53,000 सीटें ही हैं। देश भर के सरकारी अस्पतालों में इस समय विशेषज्ञ डाक्टरों के 80 प्रतिशत, डाक्टरों के 70 प्रतिशत, टैक्नीशियनों के 60 प्रतिशत से अधिक तथा नर्सों और ए.एन.एम. के 50 प्रतिशत से अधिक पद रिक्त हैं। 
 
केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2014 में भारत में कुल एलोपैथी डाक्टरों की संख्या 9,38,861, आयुष डाक्टरों की 7,36,538, दंत चिकित्सकों की 1,54,436, नर्सों की 25,66,067 व फार्मासिस्टों की संख्या 6,64,176 थी।
 
उक्त रिपोर्ट के अनुसार देश में 61,011 रोगियों पर एक सरकारी अस्पताल, 1833 रोगियों पर एक बैड, औसतन 11528 रोगियों पर एक एलोपैथिक डाक्टर है। सर्वाधिक प्रभावित राज्य बिहार, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट हैं।
 
शहरों की तुलना में गांवों में तो चिकित्सा सेवाओं का और भी बुरा हाल है। एक तरफ बड़ी संख्या में गांव डाक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं तथा दूसरी तरफ डाक्टर शहर छोड़ कर गांवों में जाना ही नहीं चाहते। 
 
कहने को तो देश में 9.4 लाख से अधिक एम.बी.बी.एस. डाक्टर इस समय पंजीकृत हैं परंतु वास्तव में देश में प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों की संख्या 6 से साढ़े 6 लाख के बीच ही है। 
 
जहां तक देश में डाक्टरों की कमी पूरी करने के लिए जिला अस्पतालों को मैडीकल कालेजों के रूप में विकसित करने और नए मैडीकल कालेज खोलने का संबंध है, यह प्रक्रिया अत्यंत कठिन और खर्चीली है। 
 
एक मैडीकल कालेज खोलने पर 200 करोड़ रुपए से अधिक खर्च आता है। इसके लिए 20 एकड़ जमीन व 300 बिस्तरों का चालू अस्पताल भी चाहिए। जमीन महंगी होने के कारण शहरों में मैडीकल कालेज खोलना और भी कठिन है। 
 
अत: डाक्टरों की कमी दूर करने का एक उपाय भारतीय डाक्टरों का विदेशों को पलायन रोकना हो सकता है। उल्लेखनीय है कि 34 पाश्चात्य देशों, जिनमें अमरीका, यूरोपीय संघ के देश, स्विट्जरलैंड और आस्ट्रेलिया शामिल हैं, को भारत सबसे अधिक डाक्टरों की आपूर्ति करता है। 
 
‘इंटरनैशनल माइग्रेशन आऊटलुक (2015)’ के अनुसार उक्त देशों में कार्यरत भारतीय डाक्टरों की संख्या 2000-01 में 56,000 थी जो 2010-11 में 55 प्रतिशत बढ़कर 86,680 हो गई। इनमें से 60 प्रतिशत भारतीय डाक्टर सिर्फ अमरीका में ही कार्यरत हैं। 
 
विदेशों में कार्यरत भारतीय मूल के डाक्टरों को वापस लाना तो किसी भी दृष्टि से संभव प्रतीत नहीं होता, अलबत्ता भारत सरकार  वर्तमान में तैयार हो रहे डाक्टरों को विदेशों को पलायन करने से रोक कर इस कमी को कुछ सीमा तक पूरा अवश्य कर सकती है परन्तु इसके लिए सरकारी अस्पतालों के बुनियादी ढांचे तथा वहां की कार्यस्थितियों में सुधार करना होगा। 
 
तत्काल रूप से तो डाक्टरों की कमी दूर होने की कोई संभावना नजर ही नहीं आती। अत: स्पष्टï है कि रोगी भी  इसी प्रकार इलाज के लिए तरसते रहेंगे और असामयिक मौत के मुंह में जाते रहेंगे।        

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