गांवों से निकली कला की असलियत

Edited By vasudha,Updated: 21 Aug, 2019 04:52 PM

art originated from villages

मधुबनी लोक कला बिहार के मधुबनी स्थान से संबन्धित है. मधुबन का अर्थ है ''शहद का वन'' और यह स्थान राधा कृष्ण की मधुर लीलाओं के लिये प्रसिद्ध है. मधुबनी की लोक कला में भी कृष्ण की लीलाओं को चित्रित किया गया है...

मधुबनी लोक कला बिहार के मधुबनी स्थान से संबन्धित है. मधुबन का अर्थ है 'शहद का वन' और यह स्थान राधा कृष्ण की मधुर लीलाओं के लिये प्रसिद्ध है. मधुबनी की लोक कला में भी कृष्ण की लीलाओं को चित्रित किया गया है. यह कला आम और केलोंके झुरमुट में कच्ची झोपड़ियों से घिरे हरे भरे तालाब वाले इस ग्राम में पुश्तों पुरानी है और मधुबन के आसपास पूरे मिथिला इलाके में फैली हुई है.विद्यापति की मैथिली कविताओं के रचनास्थल इस इलाके में आज मुज़फ़्फ़रपुर, मधुबनी, दरभंगा ,समस्तीपुर, सुपौल और सहरसा ज़िले आते हैं.

मधुबनी की कलाकृतियों को तैयार करने के लिये हाथ से बने कागज़ को गोबर से लीप कर उसके ऊपर वनस्पति रंगों से पौराणिक गाथाओं को चित्रों के रूप में उतारा जाता है. कलाकार अपने चित्रों के लिये रंग स्वयं तैयार करते हैं और बाँस की तीलियों में रूई लपेट कर अनेक आकारों की तूलिकाओं को भी स्वयं तैयार करते हैं .इन कलाकृतियों में गुलाबी, पीला, नीला, सिंदूरी (लाल) और सुगापंखी (हरा) रंगों का प्रयोग होता है. काला रंग ज्वार को जला कर प्राप्त किया जाता है या फिर दिये की कालिख को गोबर के साथ मिला कर तैयार किया जाता है, पीला रंग हल्दी और चूने को बरगद की पत्तियों के दूध में मिला कर तैयार किया जाता है पलाश या टेसू के फूल से नारंगी, कुसुम के फूलों से लाल और बेल की पत्तियों से हरा रंग
बनाया जाता है. रंगों को स्थायी और चमकदार बनाने के लिये उन्हें बकरी के दूध में घोला जाता है.

मानव और देवी देवताओं के चित्रण के साथ साथ पशुपक्षी, पेड़ पौधे और ज्यामितीय आकारों को भी मधुबनी की कला में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है. ये आकार भी पारंपरिक तरीको से बनाए जाते हैं . तोते, कछुए, मछलियाँ, सूरज और चांद मधुबनी के लोकप्रिय विषय हैं. हाथी, घोड़े, शेर, बाँस, कमल, फूल, लताएँ और स्वास्तिक धन धान्य की समृद्धि के लिये शुभ मानकर चित्रित किये जाते हैं. कागज़ पर बनी कलाकृतियों के पीछे महीन कपड़ा लगा कर इन्हें पारिवारिक धरोहर के रूप में सहेज कर रखा जाता है. यही कारण है कि हर परिवार में मधुबनी कलाकृतियों के आकार, रंग संयोजन और विषय वस्तु में भिन्नता के दर्शन होते हैं. यह भिन्नता ही उस परिवार की विशेषता समझी जाती है. पारंपरिक रूप से विशेष अवसरों पर घर में बनाई जाने वाली यह कला आज विश्व के बाज़ारों में लोकप्रिय हो चली है. हालाँकि इसके कलाकार आज भी अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन बिता रहे हैं. दीवार और कागज़ के साथ यह कला मिट्टी के पात्रों, पंखों और विवाह के अवसर पर प्रयुक्त होने वाले थाल और थालियों पर भी की जाती है. आज मधुबनी कलाकृतियाँ कला दीर्घाओं, संग्रहालयों और हस्तकला की दूकानों के साथ विश्वजाल पर भी खरीदी जा सकती हैं.

मधुबनी चित्रकारी, जिसे मिथिला की कला (क्‍योंकि यह बिहार के मिथिला प्रदेश में पनपी थी) भी कहा जाता है, की विशेषता चटकीले और विषम रंगों से भरे गए रेखा-चित्र अथवा आकृतियां हैं. इस तरह की चित्रकारी पारम्‍परिक रूप से इस प्रदेश की महिलाएं ही करती आ रही हैं लेकिन आज इसकी बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए पुरूष भी इस कला से जुड़ गए हैं. ये चित्र अपने आदिवासी रूप और चटकीले और मटियाले रंगों के प्रयोग के कारण लोकप्रिय हैं. इस चित्रकारी में शिल्‍पकारों द्वारा तैयार किए गए खनिज रंजकों का प्रयोग किया जाता है. यह कार्य ताजी पुताई की गई अथवा कच्‍ची मिट्टी पर किया जाता है. वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए चित्रकारी का यह कार्य अब कागज़, कपड़े, कैनवास आदि पर किया जा रहा है. रंगों का प्रयोग सपाट रूप से किया जाता है जिन्‍हें न तो रंगत (शेड) दो जाती है और न ही कोई स्‍थान खाली छोड़ा जाता है.

प्रकृति और पौराणिक गाथाओं के वही चित्र उभारे जाते है जो इनकी शैली से मेल खाते हों. इन चित्रों में जिन प्रसंगों और डिजाइनों का भरपूर चित्रण किया गया है वे हिन्‍दू देवी-देवताओं से संबंधित हैं जैसे कि कृष्‍ण, राम, शिव, दुर्गा, लक्ष्‍मी, सरस्‍वती, सूर्य और चन्‍द्रमा, तुलसी के पौधे, राजदरबारों के दृश्‍य, सामाजिक समारोह आदि. इसमें खाली स्‍थानों को भरने के लिए
फूल-पत्तियों, पशुओं और पक्षियों के चित्रों, ज्‍यामितीय डिजाइनों का प्रयोग किया जाता है. यह हस्‍तकौशल एक पीढ़ी को सौंपती आई है, इसलिए इनके पारम्‍परिक डिजाइनों और नमूना का पूरी तरह से सुरक्षित रखा जाता है.

कृषि के अलावा आमदनी का एक साधन बनाए रखने की दृष्टि से "अखिल भारतीयहस्‍तशिल्‍प बोर्ड" और भारत सरकार महिलाओं को हाथ से बने कागज़ पर अपनी पारम्‍परिक चित्रकारी करके उसे बाज़ार में बेचने के लिए प्रोत्‍साहित करते रहे है. आज मधुबनी चित्रकारी अनेक परिवारों की आमदनी का एक मुख्‍य साधन बन गया है. पूरे विश्‍व में इस कला के चलते बाजार मिथिला की महिलाओं की उपाय कुशलता के लिए एक प्रशस्ति है, जिन्‍होंने भित्तिचित्र की अपनी तकनीकियों का कागज़ पर चित्रकारी के लिए सफल प्रयोग किया है. यह कला प्रकृति और पौराणिक कथाओं की तस्वीरों विवाह और जन्म के चक्र जैसे विभिन्न घटनाओं को चित्रित करती हैं. मूल रूप से इन चित्रों में कमल के फूल, बांस, चिड़िया, सांप आदि कलाकृतियाँ भी पाई जाती है. इन छवियों को जन्म के प्रजनन और प्रसार के प्रतिनिधित्व के रूप में दर्शाया गया हैं.

मधुबनी पेंटिंग सामान्यतया भगवान कृष्ण, रामायण के दृश्यों जैसे भगवान की छवियों और धार्मिक विषयों पर आधारित हैं. इतिहास के अनुसार, इस कला की उत्पत्ति रामायण युग में हुई थी, जब सीता के विवाह के अवसर पर उनके पिता राजा जनक ने इस अनूठी कला से पूरे राज्य को सजाने के लिए बड़ी संख्या में कलाकारों का आयोजन किया था. आइए जानते हैं इस कला के सम्बन्ध मे कुछ खास और विशेष बातें : मधुबनी पेंटिंग को प्राकृतिक रंगों के साथ चित्रित किया जाता है, जिसमें गाय का गोबर और कीचड़ का उपयोग किया जाता है ताकि दीवारों में इन चित्रों को बेहतर बनाया जा सके. मूल रूप से इन पेंटिंग को झोपड़ियों की दीवार पर किया जाता था, लेकिन अब यह कपड़े, हाथ से बने कागज और कैनवास पर भी की जाती है.

मधुबनी चित्रों की खोज कैसे हुई थी: 1930 से पहले मधुबनी क्षेत्र के बाहर कोई भी इस दुर्लभ सजावटी पारंपरिक कला को नहीं जानता था. 1934 में बिहार को बड़े भूकंप का सामना करना पड़ा था. मधुबनी क्षेत्र के ब्रिटिश अधिकारी विलियम जी आर्चर जो भारतीय कला और संस्कृति के बहुत शौकीन थे, ने निरीक्षण के दौरान मधुबनी की क्षतिग्रस्त दीवारों पर इस अनूठी कला को देखा था. उनको जैसे इसमे मानव सभ्यता की झलक दिखाई दी और उन्होंने इसको प्रचारित करने की कोशिश की .इसी का परिणाम है कि आज यह कला विश्व कला जगत मे अपना नाम अंकित करवा पाई .मधुबनी पेंटिंग दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन. भित्ति चित्र विशेष रूप घरों में तीन स्थानों पर मिटटी से बनी दीवारों पर की जाती है: परिवार के देवता / देवी, नए विवाहित जोड़े (कोहबर) के कमरे और ड्राइंग रूम में. अरिपन (अल्पना) कमल, पैर, आदि को चित्रित करने के लिए फर्श पर लाइन खींच कर बनाई जाने वाली एक कला है. अरिपन कुछ पूजा-समारोहों जैसे पूजा, व्रत, और संस्कार आदि विधियों पर की जाती है.

पेंटिंग को कमरों की बाहरी और आंतरिक दीवारों पर और मरबा पर, शादी में, उपनायन (पवित्र थ्रेडिंग समारोह) और त्यौहार जैसे दीपावली आदि कुछ शुभ अवसरों पर किया जाता हैं. सूर्य और चंद्रमा भी चित्रित किये जाते हैं क्योंकि यह माना जाता है कि वे परिवार में समृद्धि और खुशी लाते हैं. वनों की कटाई की रोकथाम में यह पेंटिंग महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इस
अद्भुत कला के बारे में यह एक ऐसा तथ्य है जो इन चित्रों को अद्वितीय बनाता है. मधुबनी कलाकार मधुबनी चित्रों का उपयोग पेड़ों को काटने से रोकने के लिए करते हैं. मधुबनी कला केवल सजावट के लिए ही नहीं है क्योंकि इन चित्रों में से अधिकांश चित्र हिंदू देवताओं को चित्रित करते हैं. कलाकार हिंदू देवताओं के चित्र को पेड़ों पर बनाते हैं, जिसके कारण लोग पेड़ों को काटने से रुक जाते है या फिर उन्होंने पेड़ों को काटना बंद कर दिया है.

इस पारंपरिक मधुबनी कला को बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएं किया करती थी. लेकिन आज, चीजें बदल गई हैं और अब यह शैली न केवल भारत के लोगों के बीच लोकप्रिय है, बल्कि अन्य देशों के लोगों, खासकर अमेरिका और जापान के बीच भी लोकप्रिय है. पारंपरिक समय के दौरान, इस प्रकार की पेंटिंग को मिटटी से बनी दीवारों पर किया जाता था जिन पर ताज़ा प्लास्टर होता था. अब, इसे कैनवास, कुशन, कागज यहां तक कि कपड़े पर मधुबनी पेंटिंग को किया जाता हैं. अब तो लोग बर्तनों और यहां तक कि चूड़ियों पर भी मधुबनी कलाकृति को कर रहे हैं. मधुबनी पेंटिंग की अंतर्राष्ट्रीय मांग भी हैं. जापान के लोग भारत की मधुबनी कला से बहुत परिचित हैं और यह कई अन्य देशों में प्रसिद्ध और सराही जाती है. एक 'मिथिला संग्रहालय', जापान के निगाटा प्रान्त में टोकामाची पहाड़ियों में स्थित एक टोकियो हसेगावा की दिमागी उपज है, जिसमें 15,000 अति सुंदर, अद्वितीय और दुर्लभ मधुबनी चित्रों के खजाने को रखा गया है. इस कला को समर्पित संगठन: भारत की इस दुर्लभ कला के समर्थन में काम करने वाले कई संगठन हैं. भारत और विदेशों में मधुबनी चित्रों का संग्रह युक्त कई अनन्य गैलरी हैं बेंगलुरु में, दिल्ली और बिहार में कई गैर-लाभकारी संगठन मधुबनी कलाकारों के साथ काम करने और उनकी सहायता करने के लिए काम कर रहे हैं. मधुबनी शहर में एक स्वतंत्र कला विद्यालय मिथिला कला संस्थान (एमएआई) की स्थापना जनवरी 2003 में ईएएफ द्वारा की गई थी, जो कि मधुबनी चित्रों के विकास और युवा कलाकारों का प्रशिक्षण के लिए है. "मिथीलासिमिता" एक ऐसा संगठन है, जो कुछ उद्यमियों द्वारा बनाई गई एक संस्था बेंगलुरु, भारत में स्थित है.

(अनिल अनूप)

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