अयोध्या फैसले से भयभीत शिवभक्त राहुल?

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Apr, 2018 02:10 PM

ayodhya verdict fearing shivbhakt rahul

गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुर्जेवाला ने दावा किया था कि राहुल गांधी केवल हिंदू ही नहीं बल्कि जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त हैं। राहुल की शिवभक्ति व हिंदू होने पर किसी...

गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुर्जेवाला ने दावा किया था कि राहुल गांधी केवल हिंदू ही नहीं बल्कि जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त हैं। राहुल की शिवभक्ति व हिंदू होने पर किसी को एतराज क्यंूकर हो सकता है, परंतु कांग्रेस की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति ताजा कशमकश बताती है कि शायद शिवजी की यह बारात अयोध्या केस पर फैसले की आशंका से भयाक्रांत है। पार्टी को लगता है कि इस मामले में जो भी फैसला आए लाभ अंतत: भाजपा को मिलने वाला है। यही कारण है कि राम मंदिर केस की सुनवाई कर रही मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायाधीश एसए नजीब की पीठ के मुखिया को निरंतर निशाना बनाया जा रहा है ताकि मामले को लटकाया जाए।

 

उक्त आशंका निराधार नहीं, बल्कि पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम की कडिय़ां जोड़ी जाएं तो लगभग साफ ही हो जाता है कि कांग्रेस नहीं चाहती कि अयोध्या मामले पर फैसला जल्द हो और कम से कम साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले तो कतई नहीं। मुख्य न्यायाधीश इस साल 2 अक्तूबर को सेवानिवृत हो जाएंगे। चर्चा है कि वे जाने से पहले इस मसले पर कोई फैसला कर लेना चाहेंगे। आशंकित कांग्रेस मानती है कि राम मंदिर के पक्ष में फैसला आया तो दिसंबर 2018 में तीन बड़े राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा व अगले ही साल होने वाले आम चुनावों में भाजपा को इसका लाभ मिलेगा। अगर अदालत वहां एक मंदिर और एक मस्जिद दोनों बनाने का आदेश दे तो भी इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा और राम मंदिर बनाने के खिलाफ आदेश आया या इसको टाल दिया गया तो हिंदुओं के अंदर गुस्सा काफी बढ़ जाएगा और अंतत: इसका लाभ भी भाजपा ही उठाएगी। यानि कांग्रेस के आगे कुआं और पीछे खाई वाले हालात पैदा हो सकते हैं। शायद यही कारण है कि न्यायाधीश दीपक मिश्रा शिवभक्त कागं्रेसियों के निशाने पर हैं।

 

यह न्यायाधीश मिश्रा को घेरने का ही प्रयास माना जा रहा है कि कुछ अस्पष्ट सी मांगों को लेकर चार न्यायाधीश इतिहास में पहली बार प्रेस के सामने आए और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दी। इन न्यायाधीशों ने न्यायाधीश लोया की मौत की जांच का काम एक कनिष्ठ न्यायाधीश को सौंपने व रोस्टर का मुद्दा उठाया, लेकिन वह ये भूल गए कि जब सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीश बराबर हैं तो भला किसी कनिष्ठ न्यायाधीश को कोई मामला क्यों नहीं सौंपा जा सकता। जहां तक रोस्टर का प्रश्न है वह सर्वविदित है कि मुख्य न्यायाधीश ही इसके अध्यक्ष हैं। न्यायाधीश के इन मुद्दों को कांग्रेस पार्टी ने जोर शोर से उठाया और सर्वोच्च न्यायालय व सरकार के बीच सांठगांठ होने की भावभंगिमा वाले ब्यान जारी किए गए। अभी कुछ दिन पहले ही न्यायाधीश लोया की मौत संबंधी मामले की याचिकाएं खारिज करने के तुरंत बाद कांग्रेस जिस तरीके से अधकचरे आरोपों के आधार पर न्यायमूर्ति मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया के साथ सामने आई उससे साफ है कि पार्टी की निगाहें कहीं व निशाना कुछ और है।

 

उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू द्वारा महाभियोग का नोटिस खारिज किए जाने के बाद कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि अभी उनके सामने अदालत का विकल्प खुला है। यह वही कपिल सिब्बल हैं जो न्यायालय में पेश हो कर सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि अयोध्या मामले पर फैसला आम चुनावों तक रोका जाए। सनद रहे कि यह वैधानिक प्रक्रिया है कि अगर उपराष्ट्रपति किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की सुनवाई की अर्जी स्वीकार कर लेता है या अदालत इस तरह के आवेदन को विचारार्थ स्वीकार कर लेती है तो संबंधित न्यायाधीश किसी केस की सुनवाई तब तक नहीं करता जब तक महाभियोग की प्रक्रिया संपन्न या निरस्त नहीं हो जाती। राममंदिर मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश मिश्रा के खिलाफ महाभियोग को इसी अभियान से जोड़ा जा रहा है अन्यथा क्या कारण है कि कांग्रेस पार्टी यह जानते हुए भी कि सदन में उसके पास इतने सांसद नहीं है कि वह महाभियोग पास करवा सके, तो भी वह तमाम बदनामी झेलने के बावजूद अपनी जिद्द पर अड़ी है।

 

माना कि न्यायपालिका भी लोकतंत्र के अन्य दो स्तंभों विधानपालिका व कार्यपालिका में आई विसंगतियों से निरापद नहीं है, परंतु फिर भी जनसाधारण में अदालतों के प्रति आज भी विश्वास की भावना है। राजनीतिक मंचों व मीडिया चर्चाओं में न्यायापालिका के पक्ष या विपक्ष में दी जाने वाली दलीलों से आम आदमी का इसके प्रति विश्वास डोलना स्वभाविक है। असुखद बात यह भी है कि अदालतें कानून से बंधी होने के कारण सार्वजनिक रूप से अपने ऊपर लगने वाले आरोपों पर ब्यानबाजी भी नहीं कर सकतीं। लोकतंत्र केवल कानूनी दस्तावेज नहीं बल्कि स्वस्थ परंपराओं, लोकलाज और मर्यादाओं से चलने वाली प्रणाली है। ब्रिटेन का संविधान अलिखित है। 

 

कुछ ऐतिहासिक चार्टर अधिनियम हैं जिनमें ब्रिटिश संवैधानिक व्यवस्था के मूल सिद्धांत हैं जैसे मेग्नाकार्टा 1215, पिटिशन क्रमाँक राइट्स (1628),अधिकार बिल (1689) 1832, 1867 और 1884 के सुधार कानून, (1679) बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, जन प्रतिनिधित्व कानून (1918), समान मताधिकार कानून (1928) वेस्टमिनिस्टर अधिनियम 1931 और 1911 व 1949 के संसदीय कानून आदि और इसी के आधार पर वहां की शासन प्रणाली चलती है। हम पश्चिम के लोकतंत्र को आदर्श मानते हैं जहां लोकमर्यादाओं, सामाजिक परंपराओं को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है परंतु आज हमारे यहां देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर देश के संवैधानिक पदों जिनमें रिजर्व बैंक आफ इंडिया, नियंत्रक एवं महाभिलेखागार, चुनाव आयोग, केंद्रीय जांच ब्यूरो, सदन और यहां तक कि न्यायालय का अवमूल्यन करती दिख रही है। न्यायाधीश लोया के मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने ठीक ही कहा है कि राजनेता अपनी लड़ाई अपने मंच पर ही लड़ें, अदालतों को इसका मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए।

 

राकेश सैन

097797-14324

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