Edited By kirti,Updated: 05 Jul, 2018 09:42 AM
व्यथित हो उठता है मन मेरा
व्यथित हो उठता है मन मेरा
जब देखता हूं बचपन को सड़क पर यूं बिखरते हुए,
सपनों को यूं ही हर दिन भूख के साथ लड़ते हुए
नन्हे पांवों से चल कर हासिल करनी थी जिनको मंजिल,
करता हूं महसूस छोटा मैं खुद को देख
बचपन को नंगे पावं सफर करते हुए
सपनों को यूं ही हर दिन भूख के साथ लड़ते हुए
बनानी थी सुन्दर मूरत उसको तरास कर,
कुंठा घेर लेती मुझ को देख
बचपन को रोज़ यूं जूठन साफ करते हुए
सपनों को यूं ही हर दिन भूख के साथ लड़ते हुए
बच्चे होते हैं भविष्य देश का,
ग्लानि होती खुद पर मुझ को
देख बचपन को कचरे के ढेर में चंद पैसे खोजते हुए
सपनों को यूं ही हर दिन भूख के साथ लड़ते हुए
जब बचपन देश का भूखे पेट सो जाता हो तो
शर्म आती ‘हर्ष” मुझ को खुद पर
बात चांद पर जाने की सुनते हुए
सपनों को यूं ही हर दिन भूख के साथ लड़ते हुए
प्रमोद कुमार "हर्ष"