दलितों के पानी और वाणीदाता

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Apr, 2018 03:27 PM

dalit ke water aur vani daata

भारतीय दलित आंदोलन सवर्ण वर्चस्ववादी मानसिकता के गर्भ की उपज है। दलित आंदोलन जातिवाद और छुआछुत के विरोध में खड़ा हुआ; जिनसे मुक्ति दिलाने के लिए डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन भर दलितों के प्रति सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया। उनका...

भारतीय दलित आंदोलन सवर्ण वर्चस्ववादी मानसिकता के गर्भ की उपज है। दलित आंदोलन जातिवाद और छुआछुत के विरोध में खड़ा हुआ; जिनसे मुक्ति दिलाने के लिए डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन भर दलितों के प्रति सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया। उनका सारा जीवन दलितों के लिए स्वाधीनता, समता और सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए किये गए संघर्ष दलित जाति, वर्ण और वर्ग विशेष के लिए किये गए संघर्ष की कहानी है। इस रूप में वह सामाजिक न्याय के मसीहा और अग्रदूत थे। भीमायन, अस्पृश्यता के अनुभव' यह किताब एक दस्तावेज है, जिसमें डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर अपनी जीवनगाथा को, जीवन में मिली भेदभाव की पीड़ा को, तिरस्कार को बयान करते हैं। 

 

आज जब जातिगत भेदभाव एक विशाल पेड़ की तरह मजबूती से समाज में अपनी जड़ें जमाये हुए है, ऐसा बहुधा सुनने को मिलता है कि अब पहले जैसे स्थितियां नहीं रहीं। पर सच्चाई यह भी है कि जातियों के बीच असमानता और तिरस्कार का भाव साफ तौर पर वर्तमान में भी दिखाई देता है। नन्हे भीम को कक्षा में बैठने के लिए बोरा घर से लाना पड़ता है। स्कूल में पीने के पानी के लिए तरसना पड़ता है। उसकी पीड़ा को इन शब्दों से समझा जा सकता है,

 

कुएं पर बच्चे और हौद पर जानवर,
पेट फूटने तक पी सकते हैं पानी।
पर तब गांव रेगिस्ता न बन जाता है
जब प्यास बुझाना चाहूं अपनी।

 

भेदभाव का दंश केवल स्कूल तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर एक छोटी-बड़ी बात में यह बना रहता है। अपने पिता से मिलने जा रहे बच्चों को मसूर स्टेशन से गोरेगांव जाने के लिए बैलगाड़ी बड़ी मुश्किल से मिलती है। अछूत होने के कारण गाड़ीवान गाड़ी चलाने से इंकार कर देता है और दोगुने किराये पर मानता है। जो स्थिति दो सौ साल पहले थी, वह अब भी कायम है। डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में छेड़ा गया सामाजिक युद्ध अछूतोद्धार का लम्बा सफर है। बाबा साहब अम्बेडकर कहते हैं -अगर समाजवादी समाजवाद को वास्तविकता में लाना चाहते हैं तो उन्हें यह मानना पड़ेगा कि सामाजिक सुधार बुनियादी जरूरत है और वे इससे भाग नहीं सकते; कि भारत में पहले से मौजुद सामाजिक व्यवस्था, एक ऐसा मामला है जिससे समाजवादियों को निपटना ही पड़ेगा। 

 

(अम्बेडकर डॉ. भीमराव, जातिभेद का बीजनाश (जातिवाद का उच्छेद ), अनुवादक: डॉ. अनिल गजभिये, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 40) वे महाड़ सत्याग्रह के द्वारा डॉ. अंबेडकर ने सार्वजनिक जैसे कुओं, जलस्रोतों, हौद से दलितों को पानी मिलने के संघर्ष की शुरुआत की थी। अछूत समाज का जातिभेद की मार से पेय जल (पीने का पानी) के बारे में बुरा हाल था। वे सार्वजनिक कुओं से खुले तौर पर पानी नहीं भर सकते थे। पूणे में पेशवाओं ने स्थान-स्थान पर हौज बनवाये थे, पर वहां अछूतों को पानी नहीं मिलता था। चैत्र-वैशाख में पानी की बड़ी किल्लत हो जाया करती थी, तब दो-दो, तीन तीन मील से आये हुए अछूतों को पानी भरने वाले अन्य स्त्री-पुरुषों से पानी की भीख माँगनी पड़ती और उनकी ओर किसी के ध्यान न देने पर उन्हें कई बार पानी को बिना व्याकुल होकर खाली हाथ लौटना पड़ता था। 

 

हिन्दू जाति प्रथा में दलितों (जिन लोगों को दबाया गया हो समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से) को समाज से पृथक करके रखा जाता था। उन लोगों को सार्वजनिक नदी, तालाब और सड़कें इस्तेमाल करने की मनाही थी। हौज से हिंदुओं के साथ- साथ बाकी धर्म के लोगों को पानी लेने की इजाजत थी। यहां तक कि पशु-पक्षी भी पानी पी सकते थे लेकिन अछूतों को इससे वंचित किया गया था। सन् 1926 में, वो बंबई विधान परिषद्के  एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन् 1927 में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महाड़ में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया। 

 

सन् 1927 को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक में एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। सन् 1927 में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की । बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल के द्वारा एक प्रस्ताव लाया गया था, कि वे सभी जगह जिनका निर्माण और देख-रेख सरकार करती है, ऐसी जगहों का इस्तमाल हर कोई कर सकता है। महाराष्ट्र की विधान परिषद् के एक सदस्य‍ ने प्रस्ताव रखा कि ;महाराष्ट्र के दलित सभी सार्वजनिक स्थानों के पेयजल का उपयोग कर सकते हैं, कुओं और धर्मशालाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं जिनका नियंत्रण सार्वजनिक संस्थाओं के हाथ में है तथा जिनका रख रखाव जनता के पैसे से होता है, इसके साथ सार्वजनिक स्कूल, कोर्ट, कार्यालय और अस्पतालों में भी दलित समान रूप से जा सकते हैं।

 

महाराष्ट्र की सरकार ने उक्त प्रस्ताव के अनुपालन में एक निर्देश सभी स्थानीय निकायों को भेजकर आदेशित किया कि दलित समाज को सार्वजनिक स्थल की सभी प्रकार की सुविधाओं से किसी हालत में वंचित न कराया जाये। किन्तु सरकार के उक्त आदेश का पालन नहीं होता था। फिर उन्हीं माननीय सदस्य ने एक दूसरा प्रस्ताव रखा कि ऐसे किसी भी म्युानिसिपल बोर्ड अथवा जिला उन्हें पीड़ित करते हैं। इन उपेक्षित जनों की निर्धनता व मालि जीवन के साथ उन पर ऊपर से थोपी हुई अयोग्यताओं तथा सामाजिक असुविधाओं के अभेद दुष्चक्र को देखकर रामस्वामी का बालहृदय करुणा से परिपूर्ण हो जाता। उनहोंने निदान स्वरूप उसने दृढ़ निश्चय किया कि वे इस स्थिति से लड़ेंगे। परिस्थितियों ने स्वयं बगावत का रास्ता दिखाया और उनका विद्रोही मन रूढ़िवादी समाज से टक्कर लेने के लिए तैयार हो गया। रामस्वामी निर्भीक होकर समाज के इन तिरस्कृत लोगों के बीच अपना समय बिताने लगे। 

 

रूढि़वादी लोगों की परंपरा के विपरीत वे अछूतों के साथ न केवल उठने-बैठने लगे बल्कि असंकुचित और उदार भाव से उनके हाथ का भोजन तथा जल भी खाने-पीने लगे। उनके इन कृत्यों से कट्टरपंथियों का चिढ़ना तथा उत्तेजित होना स्वाभाविक था। रामस्वामी यह भली भांति जानते थे कि इस प्रकार का जीवन एक फूलों की शय्या न होकर अनेक कठिनाइयों, दुख तथा विषमताओं की सेज होगा। अत: महाड़ सत्याग्रह डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड़ स्थान पर दलितों को सार्वजनिक जगहों में जाना तथा पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया प्रभावी सत्याग्रह था।
डॉ. अम्बेडकर कर्म में आस्था रखते थे। कर्म सिद्धि के लिए नीति तथा वैधात्मक पक्ष का अनुगमन करते थे। उनका सत्य यथार्थ था। जिसे उन्होंने भोगा था और गहरा अनुभव किया था। वे मानते थे कि लोकतंत्र बदलता रहता है और वह सदा गतिशील बना रहता है। 

 

वह न तो स्थिर रह सकता है और नहीं अपरिवर्तित समाज धर्म लोकतंत्र की अस्मिता को अभिव्यक्त करता है। दलितों के मसीहा डॉ. अम्बेडकर ने दलितों से उद्धार के लिए महान क्रांतिकारी कार्य किये। वे स्वयं दलित वर्ग से थे और दलित वर्ग पर होते अत्याचारों और शोषण से परिचित थे। डॉ. अम्बेडकर ने सबसे बड़ा विरोध मनुरचित वर्ण व्यवस्था का किया तथा उससे उत्पन्न जातिभेद का जो सदियों बीत जाने पर भी मनुष्य जाति को पशुतुल्य जीवन जीने के लिए मजबूर करती है। दलित समाज को योजनाबद्ध ढंग से दबाया, कुचला जाता था। दमन की प्रक्रिया व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता के बाद भी खत्म न हुई उनके अधिकार राजनीति के शिकार बन गए। भारत स्वतंत्र हो गया। पर आजादी सवर्ण को मिली। दलित फिर भी शोषित एवं उपेक्षित ही था। डॉ.अम्बेडकर ने दलितों को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, न्याय प्राप्ति और अधिकार दिलाने के लिए; दिल दहलाने वाले विचारों और प्रयत्नों से एक क्रांतिकारी स्थिति उत्पन्न कर दी थी। 

 

दलितों के उद्धार करने तथा उसे न्याय दिलाने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने तत्कालीन सरकार को विवश कर दिया था जिसके लिए सरकार को दलित वर्ग के हितार्थ कानून बनाने पड़े। बाबा साहब द्वारा रचित भारतीय संविधान का तीसरा हिस्सा बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की चर्चा करते हुए अस्पृश्यता के बारे में भी एक धारा में प्रावधान किया गया है कि अस्पृश्यता पूरी तरह नष्ट की गयी है और दण्डनीय अपराध माना गया है। डॉ. अम्बेडकर केवल किसी जाति या वर्ण के विरोधी नहीं थे। वे पूरी जाति प्रथा एवं वर्णव्यवस्था के कट्टर विरोधी थे। उनकी सामाजिक विचारधारा का केन्द्रबिन्दु मनुष्य है। वे मनुष्य मनुष्य के प्रति प्रेम-भावना, आदर, सम्मान, स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व एवं मानवता चाहते थे।

 

आनंद दास

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