गुरु की लाडली फौज:-निहंग सिंह

Edited By Punjab Kesari,Updated: 03 May, 2018 02:58 PM

ladli army of the guru  nihang singh

सिख पंथ न्यारा,प्यारा तथा दीन-दुखियों का सहारा पंथ है। इस निर्मल पंथ के सृजनहार श्री गुरू नानक देव जी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा जन-साधारण को बदी से तोडऩे,नेकी की ओर मोडऩे तथा सत्य (परमात्मा) से जोडऩे...

सिख पंथ न्यारा,प्यारा तथा दीन-दुखियों का सहारा पंथ है। इस निर्मल पंथ के सृजनहार श्री गुरू नानक देव जी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा जन-साधारण को बदी से तोडऩे,नेकी की ओर मोडऩे तथा सत्य (परमात्मा) से जोडऩे में लगाया है। गुरू साहिब की इस लागत ने सिक्खी (एक उत्तम जीवन जाच) में निखार लाने के साथ- साथ इसके पासार में भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान डाला है। इस पंथ के न्यारे तथा सतिकारित अस्तित्व को कायम रखने के लिए शेष नौं गुरू साहिबान तथा उनके परम सेवकों ने भी अपने-अपने समय में भारी व सराहनीय योगदान डाला है। 1708 ई0 में श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी ने गुरू ग्रंथ साहिब को गुरिआई बखश कर जहां पंथ को सदीवी तौर पर शब्द-गुरू के सिद्धान्त के साथ जोड़ दिया वहां साथ ही इस (पंथ) की चढ़ती कला के लिए कुछ जत्थेबन्दियों (संगठनों) की स्थापना भी की। इन जत्थेबन्दियों में से ही एक सिरमौर जत्थेबंदी (संगठन) निहंग सिंघों की है,जिसको गुरू की लाडली फ़ौज के नाम से भी जाना जाता है।

 

निहंग सिंघ सिख पंथ का अभिन्न तथा महत्वपूर्ण अंग हैं। बाणी तथा बाणे के साथ जुड़े होने के कारण इनकी एक अलग तथा विल्क्षण पहचान है। पुरातन जंगी स्वरूप तथा आचार-व्यवहार को सम्भालने में निहंग सिंघों की विशेष भूमिका रही है।

 

‘निहंग’ शब्द फारसी भाषा में से लिया गया है जिसके अर्थ है:-
 


खडग़,तलवार,कलम,मगरमच्छ,घडिय़ाल,घोड़ा,दलेर,निरलेप,आत्म ज्ञानी जिसको मृत्यु का भय न हो। 

 

पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी निहंग सिंघों की निर्भयता के बारे में गुरू ग्रंथ साहिब के अंग 392 पर इस प्रकार फुर्माते हैं:-

 

निरभउ होइओ भइआ निहंगा।।

 

पंथ के प्रसिद्ध लेखक रतन सिंह भंगू ‘श्री गुरू पंथ प्रकाश’ में निहंग सिंघों का जिक्र करते हुए लिखते हैं:-

 

निहंग कहावै सो पुरश,दुख सुख मंने न अंग।

 

‘महान कोष’ के पृष्ठ 704 पर निहंग सिंघों के बारे इस प्रकार लिखा है: 

 

‘निहंग सिंघ,सिक्खों का एक साम्प्रदाय है,जो शीश पर फरहे वाला  दुमाला,चक्र,तोड़ा,कृपान,खंडा,गजगाह,आदि शस्त्र तथा नीला बाणा पहनता है।’

 

पंथ की शस्त्रधारी धिर निहंग सिंघों को अकाली भी कहा जाता है क्योंकि वे एक अकाल (वाहिगुरू) के पुजारी हैं तथा अकाल-अकाल जपते हैं। इनके विल्क्षण स्वरूप के बारे में बहुत सी अवधारणाएं प्रचलित हैं। यादि ‘मालवा इतिहास’ के पृष्ठ नं. 436 हवाले से बात की जाए तो वह प्रष्ठ कहता है कि जब छठे गुरू हरिगोबिंद जी ग्वालियर के किले में नज़रबंद किए गए थे तो उस समय गुरू नानक नाम-लेवा संगत बाबा बुड्ढा जी के नेतृत्व में गुरू दर्शन के लिए किले की ओर जाया करती थी। बाबा जी निशान साहिब लेकर संगत के आगे-आगे चला करते थे। उनकी इस प्रेम तथा दीदार भावना से प्रसन्न होकर छठे पातशाह ने कहा था कि,‘बाबा जी कुछ समय के बाद तेरा यह निशानों वाला पंथ अपनी विल्क्षण पहचान स्थापित करेगा।’ एक और अवधारणा के अनुसार साहिबज़ादा फतह सिंह शीश पर दुमाला सजा कर कलगीधर पातशाह के सम्मुख हुए जिसको देख कर गुरू साहिब ने फुर्माया,कि इस बाणे के धारणी निहंग होंगे।

 

एक और विचार के मुताबिक गुरू गोबिंद सिंह जी ने माछीवाड़े से (उच्च का पीर बन कर) चलते समय जो नीला बाणा धारण किया था,जब उसको आग में जलाया गया तो उसकी एक लीर (टुकड़ा) भाई मान सिंघ ने अपनी दस्तार में सजा ली थी जिससे निहंग सिंघों के बाणे की आरम्भता मानी जाती है। जब मुगलों ने ख़ालसा पंथ को समाप्त करने के लिए हर प्रकार का अत्याचारी साधन प्रयोग करना आरम्भ किया तो उस संकटकालीन स्थिति कæ टाकरा करने के लिए खालसा हर समय तैयार-बर- तैयार रहने लगा। इस टाकरे के लिए उस (ख़ालसे) ने अधिक से अधिक शस्त्र रखने के साथ-साथ अपनी अलग वर्दी भी धारण कर ली जिसमें नीले रंग का लम्बा चोला,कमर के साथ कमरकसा,घुटनों तक कछहरा ,सिर पर ऊंची दस्तार तथा उसके गिर्द चक्र सजाना शामिल है। इस प्रकार शस्त्र तथा बस्त्र (निहंग बाणे) का धारणी होकर खालसा अकाल पुरख की फ़ौज के रूप में मैदान-ए- जंग में जूझता रहा है तथा गुरू घर के शत्रुओं को नाकों चने चबाता रहा है। 

 

सिक्ख धर्म की परम्परा तथा गुरमर्यादा को कायम रखने तथा गुरधामों की सेवा-सम्भाल हित निहंग सिंघों ने अपना बनता योगदान डाला है। निहंग सिंघों में वे सभी खूबियां मिलती हैं ,जिनको कलगीधर पिता प्यारते तथा सतिकारते थे। इन खूबियों के कारण ही निहंग सिंघों को गुरू की लाडली फ़ौज का खिताब मिला हुआ है। पांच शस्त्र निहंग सिंघों को जान से भी प्यारे हैं जिनमें कृपान,खंडा,बाघ-नखा,तीर- कमान तथा चक्र का नाम वर्णनीय है। यह सभी छोटे आकार के होते हैं तथा निहंग सिंह इनको दुमाले में सजा कर रखते हैं। सिक्ख फौज में बड़ी तादाद निहंग सिंघों की ही होती थी। इनके चरित्र का एक तसल्लीबखश पक्ष यह भी रहा है कि जब निहंग जैकारे गजाते किसी नगर में पांव डालते तो लोग स्वयं ही अपनी बहु-बेटियों को कह देते थे: ‘आए नी निहंग, बूहे खोल दो निसंग।’ ऊंचे चरित्र के मालिक निहंग सिंघ बहुत ही भजनीक,शूरवीर,निर्भय,निरवैर तथा अपने वचन के धनी हुए हैं। सिख विश्वास तथा इतिहास को सम्मानपूर्वक बनाने में इनकी भूमिका साकारात्मक रही है। 

 

लम्बे समय से क ई शहीदी स्थानों तथा डेरों की सेवा-सम्भाल का उत्तरदायित्व भी निहंग सिंघों द्वारा निभाया जा रहा है। इनके डेरों को छावनियां कहा जाता है। श्री दमदमा साहिब (तलवंडी साबो) की वैसाखी,श्री अमृतसर साहिब की दीवाली तथा श्री अनंदपुर साहिब का होला-महल्ला निहंग सिंघों की भरपूर तथा मशहूर हाजिरी वाले त्यौहार हैं। होले-महल्ले के रंग तो निहंग सिंघों की उपस्थिति के बिना उघड़ते ही नहीं हैं। सर्ब- लोह के बर्तनों तथा घोड़ों के साथ निहंग सिंघों को विशेष प्रेम होता है। इसके अतिरिक्त यह शस्त्रों को भी अंग लगा कर रखते हैं। निहंग सिंघों की बोल-बाणी भी विलक्षण तथा रौचकता भरपूर होती है। घाटे वाली स्थिति को लाभदायक नज़र से देखना इस बोल-बाणी का एक अहम पक्ष रहा है। इसीलिए इस बोल-बाणी को ‘गडग़ज्ज-बोलों ’ का नाम दिया जाता है। इन गडग़ज्ज-बोलों के अधीन ही एक सिंघ को सवा लाख कहने से शत्रु दंग रह जाते थे तथा मैदान छोड़ जाते थे। वर्तमान समय भी निहंग सिंघों के कई दल मौजूद हैं जो अलग-अलग भिन्नताओं के पथिक होने के कारण कई प्रकार की आलोचनाओं का शिकार होते रहते हैं।

 

रमेश बग्गा चोहला

9463132719

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