चीन : इस दर्द की दवा क्या है?

Edited By Riya bawa,Updated: 24 Jun, 2020 04:59 PM

pain medicine around the world

रूस में साम्यवाद के अंत के बाद दुनिया ने कितनी राहत की सांस ली उसकी कल्पना वही पीढ़ी कर सकती है जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में चार दशकों तक चले शीतयुद्ध में रूसी खेमे और अमेरिकी खेमे की तनातनी को ...

रूस में साम्यवाद के अंत के बाद दुनिया ने कितनी राहत की सांस ली उसकी कल्पना वही पीढ़ी कर सकती है जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में चार दशकों तक चले शीतयुद्ध में रूसी खेमे और अमेरिकी खेमे की तनातनी को झेला। रूसी साम्यवाद के पतन में आंतरिक परिस्थितियां तो जिम्मेवार थी हीं परंतु वहां इस फासिस्ट विचारधारा के उन्मूलन में विश्व समुदाय ने जो भूमिका निभाई उसको भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। लेकिन दुर्भाग्य कि आधुनिकता व लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा आधुनिक समाज चीन में ऐसा करने में चूक गया और उसी की विभीषीका झेलने को विवश हो रहा है। अगर चीन में उठी लोकतंत्र की आवाज को विश्व समुदाय जिसमें सबसे बड़ी जिम्मेवारी हम भारतीयों की थी, नजरअंदाज न करता तो शायद आज दुनिया ड्रैगन जनित वर्तमान खतरों से मुक्त होती। न तो भारत को घेरने की 'स्टिंग आफ पल्र्सÓ की रणनीति होती और न ही बेल्ट ऐंड रोड योजना के जरिये वैश्विक संसाधनों पर नियंत्रण का अभियान चलता। वैश्विक विरोध के बावजूद चीन सागर पर चीनी सेना का वर्चस्व कायम न हो पाता। 

हमने देखा है कि साम्यवादी सोवियत रूस के विखंडन के बाद दुनिया एक बेहतरी की ओर बढ़ी है। चीन का लोकतंत्र की दिशा में बढऩे को बाध्य होना विश्व के लिए एक शुभ समाचार होता। चीन यदि लोकतांत्रिक देश होता तो आज तिब्बत की यह दशा न होती। भारत के साथ गढ़े गए सीमा विवाद न होते। 'पंचशीलÓ समझौते का सम्मान होता। जिस तरह चीन अपनी भुगोलिक विस्तरवादी नीति के चलते भारत समेत अपने पड़ोसी देशों और हड़पने वाली आर्थिक नीतियों के चलते गरीब देशों के लिए खतरा बनता जा रहा है उससे निपटने के लिए माओ जेत्सुंग की कंटीली जमीन पर लोकतंत्र के पुष्प पल्लवित होने जरूरी हैं। लोकतंत्र की बसंत चीन को उसकी नीतियों की अमानवीयता से अवश्य मुक्त कर देगी। 

याद करें 3-4 जून, 1989 को चीन ने थियानमेन चौक में लोकतंत्र की मांग कर रहे हजारों छात्रों को अपनी निर्मम सेना के बूट तले रोंद दिया। ये प्रदर्शन अप्रैल 1989 में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के पू्र्व महासचिव और उदारवादी हू याओबांग की मौत के बाद शुरू हुए। हू चीन के रुढि़वादियों व सरकार की नीति के विरोध में थे और चुनाव हारने के कारण उन्हें हटा दिया गया था। छात्रों ने उन्हीं की याद में मार्च आयोजित किया। दुर्भाग्य की बात रही कि लोकतंत्र के लिए उठी इस आवाज को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत व सबसे सफल लोकतंत्र कहे जाने वाले पश्चिमी समाज समेत दुनिया ने नजरअंदाज सा कर दिया। हजारों नौजवानों की हत्या वैश्विक मंचों से गायब रही, मानो दुनिया ने उभर रही इस वैश्विक शक्ति के आगे बेबसी जता दी हो। इसी बीच 1997 को 99 साल का पट्टा खत्म होने के बाद ब्रिटेन ने हांगकांग शहर चीन के सुपुर्द कर दिया। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में पलाबढ़ा हांगकांग का समाज चीन के फासीवादी चंगुल में आते ही आजादी के लिए छटपटाने लगा। 

आधुनिकता में सराबोर हांगकांग की पीढ़ी ने चीन के खिलाफ शुरू में ही आवाज उठानी शुरू कर दी परंतु उनका संगठित विरोध तब सामने आया जब चीन ने प्रत्यार्पण विधेयक लाने का प्रयास किया। लोगों ने चीन का अकल्पनीय विरोध किया। 75 लाख की आबादी में से 20 लाख लोग सड़क पर आ गए। लोकतंत्र के लिए हांगकांग का संघर्ष नया नहीं था। 2014 में 'अम्ब्रेला आंदोलनÓ के नाम से लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जोशुआ वांग, नाथन ला, एलेक्स चाऊ जैसे छात्र नेताओं के नेतृत्व में सशक्त आंदोलन चलाया गया था। इस आंदोलन ने मिस्र में हुए स्प्रिंग आंदोलन की याद दिला दी, जब काहिरा के तहरीर चौक पर लाखों आंदोलनकारियों ने आवाज उठाई और होस्नी मुबारक की सरकार को बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन ऐन मौके पर दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियां हांगकांग के इस आंदोलन को भी समर्थन देने में चूक गईं और चीनी नेतृत्व का दमन और बढ़ता गया। उस समय शायद दुनिया ने सपना लिया होगा कि जब राष्ट्रों में समृद्धि आती है, तो नागरिकों की महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि के साथ अधिनायकवाद नकारा होने लगता है। चीन समृद्धि की ओर बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहा देश है। लेकिन दुनिया ने चीन में सुधार की आंतरिक प्रक्रिया के फलीभूत होने का जो स्वप्न देखा वो धूलधुसरित होता दिख रहा है। तानाशाही कम्यूनिस्ट व्यवस्था के हाथों में आरही संपन्नता दुनिया के लिए अभिशाप बनती प्रतीत हो रही है। उसकी ताजा उदाहरण है भारत-तिब्बत सीमा पर गलवान घाटी पर हुई दुर्घटना जिसमें हमारे 20 जांबाज सैनिकों को बलिदान देना पड़ा और चीन पूरी घाटी निगलने को आतुर दिखने लगा है।

प्रसन्नता की बात है कि चीन में साम्यवादी कंस अभी तक लोकतंत्र रूपी कृष्ण के वध में सफल नहीं हो पाया है। थियानमेन चौक, 2014 के छात्र आंदोलन और हांगकांग के लोकतंत्र के संघर्ष से जगी भावना अभी जिंदा है, मरी नहीं। आंदोलनकारी आज भी लिबरेट हांगकांग के प्लेकार्ड लिए कहीं-कहीं दिख जाते हैं जो दुनिया को यह कहते हुए महसूस होते हैं कि उनकी आवाज भी विश्व मंचों पर उठाई जाए। लोकतांत्रिक चीन अभी बहुत दूर की परिकल्पना है, लेकिन विचारों की शक्तियों को एक सीमा से अधिक नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होता। जनांदोलन अपनी विराटता में बहुत कुछ समेट लेते हैं। हमारे सामने वह घट जाता है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होती। चीन जैसे गैर-•िाम्मेदार साम्यवादी देश का आर्थिक व सामरिक रूप से शक्तिशाली होना मानवता के लिए अशुभ है लेकिन कोई ये भी कामना नहीं कर सकता कि दुनिया का कोई देश गरीबी से मुक्त न हो। इसके लिए यही प्रयास किए जा सकते हैं कि उस देश का नेतृत्व वैश्विक शांति व सह-अस्तित्व के लोकतांत्रिक सिद्धांतों को मानने वाला हो जो केवल एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है। मानव भक्षी साम्यवादी विचारधारा से मुक्त लोकतांत्रिक चीन केवल एशिया या हमारे लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए भी कल्याणकारी साबित होगा।
- राकेश सैन

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!