Edited By Vatika,Updated: 13 Sep, 2018 05:43 PM
आज इंसान खुद की सहायता नहीं कर पा रहा हम सब अपनी सहूलियत के परदों में इस कदर छिपे हुए हैं कि हर नई चुनौती हमें मज़बूरी लगती है
हम अभ्यस्त हो गए हैं
आज इंसान खुद की सहायता नहीं कर पा रहा
हम सब अपनी सहूलियत के परदों में इस कदर छिपे हुए हैं कि
हर नई चुनौती हमें मज़बूरी लगती है
हम अभ्यस्त हो गए हैं
बासी ज़िन्दगी जीने के लिए
जिसमें ताज़ा कुछ भी नहीं
ना ही सांस और ना ही उबांस
हमें तकलीफ होती है
जब रोज़मर्रा की लीक से
कुछ अलग हो जाता है
और हमें अपनी ही कूबत पर
शर्म आने लगती है और
कई बार हैरानी भी होती है
किक्या हम सचमुच
इंसान कहलाने के लायक भी हैं
जिसका धर्म है परोपकार
जबकि आज इंसान खुद की सहायता नहीं कर पा रहा है
सलिल सरोज