कविता एक दुखी शिक्षिका की कलम से

Edited By ,Updated: 04 May, 2017 11:57 AM

poem from the pen of a miserable teacher

शिक्षिका हूं, पर ये मत सोचो, बच्चों को सिखाने बैठि हूं

शिक्षिका हूं, पर ये मत सोचो,
बच्चों को सिखाने बैठि हूं
मैं तो डाक बनाने बैठि हूँ ,
मैं कहां पढ़ाने बैठी हूं ?

कक्षा में जाने से पहले
भोजन तैयार कराना है
ईंधन का इंतजाम करना
फिर सब्जी लेने जाना है
गेहूं ,चावल, मिर्ची, धनिया
का हिसाब लगाने बैठि हूं
मैं कहाँ पढ़ाने बैठि हूं

कितने एस.सी. कितने बी.सी.
कितने जनरल दाखिले हुए
कितने आधार बने अब तक
कितनों के खाते खुले हुए
बस यहां कागजों में उलझी
निज साख बचाने बैठि हूं
मैं कहां पढ़ाने बैठि हूं ...

कभी एस.एम.सी कभी पी.टी.ए
की मीटिंग बुलाया करती हूं
सौ-सौ भांति के रजिस्टर हैं
उनको भी पूरा करती हूं
सरकारी अभियानों में मैं
ड्यूटियां निभाने बैठी हूं
मैं कहां पढ़ाने बैठी हूं...

लोगों की गिनती करने को
घर-घर में मैं ही जाती हूं
जब जब चुनाव के दिन आते
मैं ही मतदान करातीा हूं
कभी जनगणना कभी मतगणना
कभी वोट बनाने बैठी हूं
मैं कहां पढ़ाने बैठी हूं ...


रोजाना न जाने कितनी
यूं डाक बनानी पड़ती है
बच्चों को पढ़ाने की इच्छा
मन ही में दबानी पड़ती है
केवल शिक्षण को छोड़ यहां
हर फर्ज निभाने बैठी हूं
मैं कहां पढ़ाने बैठी हूं...



इतने पर भी दुनियां वाले
मेरी ही कमी बताते हैं
अच्छे परिणाम न आने पर
मुझको दोषी ठहराते हैं
बहरे हैं लोग यहां
मैं किसे सुनाने बैठी हूं
मैं कहां पढ़ाने बैठी हूं ..
मैं नहीं पढ़ाने बैठी हूं..

                                                                                                                                                                                     -रेनु जैन


 

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