राजनीति के लिए वंदे मातरम् पर विवाद क्यों ?

Edited By Tanuja,Updated: 27 Jun, 2019 03:19 PM

rajneeti me vande matram par vivad kyu

संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने मंगलवार को वंदे मातरम् पर एकबार फिर विवादित...

संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने मंगलवार को वंदे मातरम् पर एकबार फिर विवादित बयान देकर देश की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी है। बर्क ने संसद में शपथ लेने के बाद कहा था कि “जहां तक वंदे मातरम् का ताल्लुक है, यह इस्लाम के खिलाफ है। हम इसका पालन नहीं कर सकते।” आपको बता दें कि बर्क पहले भी सार्वजनिक रूप से वंदे मातरम् का विरोध कर अपनी मानसिकता का परिचय दे चुके हैं। बर्क के इस बयान के बाद अब वंदे मातरम् पर एकबार फिर राजनीति तेज हो गयी हैं। राष्ट्रभक्ति का प्रमाण पत्र बाट़ने वाले नेता अपने घातक शब्दबाणों के साथ युद्ध के मैदान में हाजिर है वो कह रहे हैं कि बर्क की मानसिकता आजादी से पहले मुस्लिम लीग वाली है। इनके जैसे लोगों के लिए देश में जगह नहीं। वैसे देखा जाये तो अपनी ओछी राजनीति के लिए बार-बार वंदे मातरम् पर विवाद कुतर्कों के साथ बेवजह चंद अज्ञानी वोटरों को खुश करने के लिए खड़ा किया जाता रहा है जो कि बहुत ही निंदनीय है व देशहित में उचित नहीं है। “जहाँ तक मुझे समझ आता है वंदे मातरम् पर सारे विवाद ओचित्य विहीन व बेमानी हैं।

किसी राष्ट्र कि पहचान से जुड़े प्रतीक, राष्ट्रगान, और राष्ट्रगीत हम सभी देशवासियों के लिए सर्वोपरि होते हैं। उसका आदर सम्मान करने में हमें कभी कोई धर्म नहीं रोकता, सभी धर्मों में देशभक्ति और संविधान का दर्जा सर्वोच्च होता है। इसलिए वंदे मातरम् व अन्य राष्ट्रीय प्रतिकों पर बार-बार विवाद खड़ा करने वाले लोगों को कम से कम अब तो समझ लेना चाहिए कि राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत व राष्ट्र प्रतीक विवाद के लिए नहीं होते बल्कि हम सबको गर्व करने के लिए होते है। उन पर विवाद खड़ा करके हम देश की एकता अखंडता व अमनचैन का अहित करने का काम करते है।" इस ताजे विवाद के बाद देश के आम-जनमानस में आज एकबार फिर वंदे मातरम् को लेकर बहस शुरू हो गयी है। अधिकांश आम लोगों का मत है कि हमारे देश के राजनेता आज अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए बार-बार राजनीति में धर्म के नाम पर झूठ-प्रपंच बोलकर जनता को बरगलाने का काम करते हैं।

जो कि देश के सर्वांगीण विकास के लिए ठीक नहीं हैं। आम-जनमानस का मानना है हाल के कुछ वर्षों में देश के कुछ नेता हर मसले में धर्म की आड़ लेकर देश को पाकिस्तान की तरह पिछड़ा बनाने पर तुले हुए है। लेकिन फिर भी देश के भाग्यविधाता हमारे अधिकांश राजनेताओं पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनके बोले गये शब्दबाणों का आम जनता पर बहुत प्रभाव होता हैं। उन्हें तो केवल धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके अपनी राजनीति चमकाना पसंद है। देश का हित व अहित आज के इन तथाकथित नेताओं के लिए कोई मायने नहीं रखता है। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि ये जो अधिकांश कट्टरपंथी जमात के लोग धर्म के नाम पर देश में आयेदिन नौटंकी करते है हकीकत में इनका स्वयं धर्म से कोई नाता नहीं होता है। ये तो इतना भी नहीं जानते हैं कि धर्म हमको जीवन को अनुशासित ढंग से जीना सिखाता है, ना कि अनुशासनहीनता करना सिखाता है। आज हमारे देश में अधिकांश धर्म के ठेकेदार केवल धर्म के नाम पर अनुशासनहीनता ही करके उसको ही धर्म का कार्य बताते हैं। जबकि कटु सत्य यह हैं कि इन चंद लोगों को ना तो धर्म, ना समाज व ना देश की चिंता हैं इनको केवल अपनी चिंता है और ये वो लोग है जो कि अपने निजी ऐजेंडा को पूरा करने के लिए सभी नियम, कायदे, कानून व सिद्धांतों को एक पल में तिलांजलि दे देते है।

उसी तरह से ही इन ठेकेदारों द्वारा वंदे मातरम् पर भी बेवज़ बार-बार विवाद खड़ा किया जाता है जिस आजादी के तराने वंदे मातरम् को कभी देश के गली मोहल्ले गाँव व शहर में गाते हुए, देश की आजादी के सपने को पूरा करने के लिए हमारे अनगिनत देशभक्तों ने अपने प्राण न्योछावर करके स्वतंत्र भारत का सपना साकार किया था। उसी आजादी के तराने वंदे मातरम् पर आज हमारे कुछ राजनेताओं की ओछी हरकत देखकर लगता है कि ये लोग आजादी के तरानों को भी धर्म के चश्मे से देखकर बाट़ने का काम कर रहे हैं। जो वंदे मातरम् , राष्ट्रगान व तिरंगा राष्ट्रध्वज हमारे आजाद भारत देश की विश्व समुदाय में अपनी अलग पहचान या अस्मिता कायम करने के लिए बेहद जरूरी है, जिसको हासिल करने के लिए ना जाने कितने लोगों ने फांसी का फंदा चूमने का काम किया था, जिसके सम्मान को बरकरार रखने के लिए आजाद भारत में ना जाने कितने जाबांज जवान सीमाओं पर हर पल शहीद होने के लिए तत्पर हैं। लेकिन देश की आनबानशान के उन प्रतीकों पर कुछ नेता लोग धर्म की आड़ लेकर बार-बार प्रश्न चिन्ह लगा कर ना जाने क्या साबित करना चाहते है।

आजकल हर काम में विवाद खड़ा करके टीआरपी हासिल करना कुछ नेताओं काम बन गया है। उनके लिए देशहित की जगह निजीहित व राजनैतिक हित सर्वोपरि हो गया है। उसके चलते ही ये लोग वोटों की खातिर देश के चंद अज्ञानी लोगों को खुश करने के लिए व अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश की पहचान वंदे मातरम् , राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज पर भी बार-बार विवाद खड़ा करके सवालिया निशान लगाते हैं जो कि सरासर गलत हैं व देशहित में ठीक नहीं है। यह लोग यह भी समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि देश संसद में बनाये गये नियम, कायदे, कानून व संविधान से चलता है ना कि किसी धार्मिक गुरु व धर्म के ठेकेदार के द्वारा बनाये गये नियम से या उनके द्वारा बताये गये धार्मिक ग्रंथ में लिखे नियमों से चलता हैं। फिर भी जानबूझकर देश में आयेदिन धर्म की ओट लेकर नियम कायदे, कानून की धज्जियाँ उड़ायी जाती है। लेकिन आज हम सभी को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश की एकता अखंडता को बरकरार रखने के लिए मौजूदा दौर में जब देश में राष्ट्रवाद जैसे गम्भीर मामले पर एक अलग ही तरह की हवा चल रही है तो उस समय किसी देश को एकजुटता के सूत्र में पिरोकर रखने के लिए सिर्फ राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत प्रतीक ही काफी नहीं हैं बल्कि प्रत्येक आमजन को इस तरह के बेहद ज्वंलत मसले पर सार्वजनिक रूप से बेहद सोच समझकर बोलने व आचरण करने की आवश्यकता हैं।

अगर कोई किसी से सहमत नहीं हैं तो उसको सार्वजनिक जीवन में ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए कि जिससे किसी दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुंचे। यहाँ हमको यह समझना होगा कि अच्छा देश वह है जिसके निवासी आपस में भावनात्मक रुप से एकदूसरे से जुड़े हो और लोगों के बीच दिल से भावनात्मक जुड़ाव सुख-दुःख की आपसी साझेदारी होना बहुत महत्वपूर्ण है तब ही देश में अमनचैन शांति कायम रह सकती है। किसी भी देश में लोगों का राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान व अन्य राष्ट्रीय प्रतिकों के प्रति श्रद्धा के पीछे भी यहीं जुड़ाव और साझेदारी कार्य करती है। जिसका सभी देशवासियों को समझते हुए सम्मान करना होगा तब ही देश में विकास संभव है। हमारा समाज चूंकि बहुत गतिशील है, इसलिए लोगों में कोई भी आपसी सहमति, समझौता और भावनात्मक एकजुटता सार्वकालिक नहीं रह पाती है। इसलिए देश में सदभावना पूर्ण माहौल लगातार बनाए रखने के लिए देशवासियों में आपसी भाईचारा, प्रेम, विश्वास और आत्मीय संवादों को हमेशा बरकरार रखने के लिए आज हम सभी देशवासियों को प्रतिकों की आवश्यकता होती है। वैसे हमारे देश में नेताओं की मेहरबानी के चलते किसी ना किसी मुद्दे को लेकर आयेदिन गर्मागर्म बहस चलती रहती है लेकिन आजकल देश में ‘वंदे मातरम्’ को लेकर फिर से एकबार बहस चल पड़ी है। लेकिन देशहित के लिए हमको राष्ट्रगान, राष्ट्रीय गीत या देशभक्ति के ऐसे किसी भी प्रतीक पर विचार व्यक्त करते समय हमें गांधीजी की इन विचारों को भी हमेशा याद रखना चाहिए कि "राष्ट्र की असल बुनियाद हैं परस्पर विश्वास, प्रेम, सद्भाव और आपसी संवाद। इसके बिना कोई भी प्रतीक बेमानी है, निरर्थक है, ऊपरी और दिखावटी है।

वह देश को फायदे की जगह केवल नुकसान पहुंचाने वाला ही है।" इसलिए जहर उगलने बाले नेताओं को सार्वजनिक रूप से कुछ बोलने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि उनके बोलने का देश की जनता पर क्या प्रभाव पडे़गा। आपको बता दें कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब बर्क ने वंदे मातरम् का विरोध किया है। इससे पहले भी एक बार उन्होंने वंदे मातरम् के विरोध में संसद से वॉक ऑउट कर किया था। जिसके बाद उन्हें लोकसभा की तत्कालीन स्पीकर मीरा कुमार ने कड़ी नसीहत भी दी थी। वंदे मातरम् को दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया था, बंग-भंग आंदोलन के दौरान देश में ‘वंदे मातरम्’ इतना लोकप्रिय हो गया था कि वह राष्ट्रीय नारा बना गया था। 14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ के साथ और समापन राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के साथ हुआ था। वर्ष 1950 में ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रगान बना दिया गया था। आजादी के संघर्ष के दौरान ही देश में बंकिमचंद्र का यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया था कि बाद में बहुत सारे गीतों को पीछे छोड़ते हुए यह देश का राष्ट्रगीत बन गया था। अन्य राष्ट्रों के गीतों से यह मधुर है और इसमें उत्तम विचारों का समावेश है। इस गीत की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें दूसरे राष्ट्रों के गीतों में जिस प्रकार अन्य राष्ट्रों के बारे में खराब विचार होते हैं ऐसे विचार इस राष्ट्रगीत वंदे मातरम् में नहीं है।

साथ ही साथ यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि इस गीत का मुख्य उद्देश्य केवल देश प्रेम का भाव पैदा करना है। इस गीत में भारत देश को माता का रूप देकर उसका स्तुतिगान किया गया है। जिस प्रकार से हम अपनी माँ में सभी उच्च गुणों के होने वाली भावना रखते हैं, ठीक उसी प्रकार कवि ने भी भारत माता में सभी गुण मानकर वंदे मातरम् की रचना की हैं। देश में 1906 से 1911 तक वंदे मातरम्‌ गीत पूरा गाया जाता था, उस समय इस मंत्र गीत में इतनी जनशक्ति की ताकत थी कि जबरदस्त विद्रोह के भय के चलते बंगाल का विभाजन तक ब्रितानी हुकूमत को वापस लेना पडा था। इस गीत को गाते हुए अनेक भारत माता के लाड़ले सपूत मदनलाल ढींगरा, प्रफुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सूर्यसेन, रामप्रसाद बिस्मिल आदि बहुत से क्रांतिकारियों ने फांसी के फंदे को चूम लिया था। भगत सिंह अपने पिता को पत्र वंदे मातरम्‌ से अभिवादन कर लिखते थे। सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज ने इस गीत को अंगीकार किया और सिंगापुर रेडियो स्टेशन से इसका प्रसारण होता था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में 'वंदे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

उस समय डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है, "शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वंदे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, 24-1-1950)" यह सभी बाते दर्शाती है कि राष्ट्र के निर्माताओं के लिए ‘वंदे मातरम्’ कितना महत्वपूर्ण था और वो इस पर क्या विचार रखते थे जबकि यह ध्यान रहे कि यह वो दौर था जब भारत एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित नहीं हुआ था और इसके लिए संघर्ष ही चल रहा था। तब यह वंदे मातरम् सभी धर्म के लोगों को देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत कर देता था। तो आज इसके गायन से किसी धर्म को परेहज कैसे हो सकता है।

आज भी हमको यही समझना है कि हमें अपने राष्ट्र भारत का नवनिर्माण रोज-रोज करना है। जिसके लिए हमको देश तोड़ने वाले चंद नेताओं की बातों में ना आकर परस्पर प्रेम, विश्वास, सद्भावना और मैत्रीपूर्ण संवाद के साथ, हमें अपनी विभिन्नताओं को देश की एकता अखंडता के एक सूत्र में पिरोकर समझकर और स्वीकार करके कंधे से कंधा मिलाकर चलना है। तभी हम वंदे मातरम् गीत में व्यक्त कवि की भावनाओं को हकीकत में चरितार्थ कर पाएंगे। लेकिन अफसोस की बात यह हैं कि देश की जनता तो सब समझने के लिए तैयार है। लेकिन हमारे हुक्मरान चंद नेताओं को कौन समझाये कि देशहित सर्वोपरि होता हैं ना कि उनका राजनैतिक हित सर्वोपरि है। इसलिए अब समय आ गया है जब देश की समझदार जनता को वंदे मातरम् पर आयेदिन बेवजह विवाद खड़ा करने वाले लोगों की राजनीति की दुकान को बंद करना होगा और देशहित के लिए कार्य करने वाले ईमानदार लोगों व नेताओं को बढ़ावा देना होगा।

दीपक कुमार त्यागी  एडवोकेट                                                                                                                                                                                स्वतंत्र पत्रकार व स्तंभकार                                                                                                                                                                                     अध्यक्ष, श्री सिद्धिविनायक फॉउंडेशन (SSVF)

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