संगीन हकीकत है ये कोई ख्वाब नही••••

Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 May, 2018 02:07 PM

there is no real hope for you

राजधानी दिल्ली की उस बदनाम गली का ज़िक्र भूले से भी लोग ज़ुबान पर लाने से कतराते हैं।आप समझ ही गए होंगे कि आखीर हम किस जगह की चर्चा कर रहे हैं।जी हां जीबी रोड़ की।जिस्मफरोशी की दास्तान तो आपने सुनी होगी लेकिन उसके पीछे की कहानी किसी नासूर की तरह...

राजधानी दिल्ली की उस बदनाम गली का ज़िक्र भूले से भी लोग ज़ुबान पर लाने से कतराते हैं।आप समझ ही गए होंगे कि आखीर हम किस जगह की चर्चा कर रहे हैं।जी हां जीबी रोड़ की।जिस्मफरोशी की दास्तान तो आपने सुनी होगी लेकिन उसके पीछे की कहानी किसी नासूर की तरह है।गरीबी से तंग आकर एक बेटी कैसे अपना जिस्म बेचने को मजबूर हो जाती है,जिस्म के भूखे भेड़ियों के सामने,लेकिन ये सब सुनने और जानने की कौन करता है कोशिश।गिनती के ऐसे लोग हैं जो इस दर्द भरी दास्तां की गहराई में जाकर उसकी आवाज़ को बुलंद करने की कोशिश करते हैं।आज दुनिया तरक्की की राह पर अग्रसर है,लेकिन जीबीरोड़ की तंग कोठरीयों में रहनें वालों की जिंदगी में सिर्फ एक ही रंग है जो खिड़की से शुरू होती है और बिस्तर पर खत्म हो जाती है। कहते हैं हर सिक्के में दो पहलू होते हैं।

 

अगर समाज में सफेद पोश सभ्रांत लोग रहते हैं तो समाज के किसी कोने में एक अंधेरी जगह भी होती है।जहां दिल में हज़ार हसरतें और ग़म का समंदर लिए कुछ ऐसे चेहरे भी होते हैं जो पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने की खातिर अपने शरीर तक का सौदा कर डालते हैं।सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लगता है पर जिंदगी हर किसी के लिए कोलाज़ नहीं होती। यही कड़वी हकीकत अपनें जहन में दफ्न किए हुए हर उस लड़की को जबरन धकेल दिया जाता है जिस्म के बाजार में।बदनाम कोठो के झरोखों से झांकती हुई सड़क पर तलाशती हैं हर राहगीर में अपने जिस्म का खरीददार।इनके हंसीन चेहरे ने तो ना जाने कितनी ही शामें रंगीन की होंगी और रातें गुलजार।लेकिन एक बात तो तय है कि हर शाम इनके अरमानों का खून होता है और हर रात ज़िंदगी के हकीकत का दीदार होता होगा।यकीन मानिए जनाब ये तो महज़ एक झलक है इन हंसीन चेहरों के पीछे की।

 

असल जिंदगी देखकर तो होश फाख्ता हो जाते हैं। लेकिन शहर के उस गली की यही है हकीकत जहां सजते हैं हर शाम जिस्म के बाज़ार।हमारे समाज की काली गलियों की यही है कड़वी सच्चाई।ये दर्द आपको सोचने पर मजबूर कर देगा कि क्या हमारे समाज में इतनी गरीबी है कि किसी बाग की कली ये लड़कियां महज चन्द रुपयों की खातिर किसी को भी अपने शरीर को चील कौए की मानिंद नोचने देती है ? मंटो साहब लिखते हैं कि “ दुनिया में जितनी लानते हैं भूख उनकी मां है... भूख गदागरी सिखाती है भूख ज़रायम की तरगीब देती है... भूख इश्मत फरोशी पर मजबूर करती है...भूख इन्तिहापसंदी का सबक देती है.... भूख दीवाने पैदा करती है...दीवानगी भूख पैदा नहीं करती ।” मुझे ऐसा लगता है कि कोई महिला वेश्या नहीं बनना चाहती होगी ।अपना जिस्म बेचना किसे गवांरा होगा।लेकिन मजबूरी और समाज की बेरुखी ही नर्क में जाने के लिए मजबूर कर देती है।

 

क्योकि समाज मे रहने वाली अकेली लड़की को लोग शक की नज़र से हमेशा देखते हैं और हवस के दरिंदों की ललचाई नज़रें उसका पीछा करती रहती हैं।कई बार तो मजबूरी में जिस्म बेचना पड़ता है कई बार मजबूरी का फायदा उठा कर जिस्म के सौदागर मासूम को लेजाकर खड़ा कर देते हैं जिस्म के बाज़ार में।वजह चाहे जो भी हो पर उसमे कही न कही बेबसी और लाचारी साफ नज़र आती है।जिसके चलते ये महिलाएं ऐसे घिनौने काम को करने के लिए मजबूर होती है।हुकूमतें बदलती रहती हैं।इनके उद्धार के लिए नए-नए कानून भी बनाए गए।लेकिन इन्हें देखकर तो लगता है वो सारे कानून सिर्फ खाली कागजो तक ही सिमट कर रह गए हैं,असल जिंदगी मे तो इन्हें ये खिड़की ही नसीब होती है। 

 

एक दौर था जब हुस्न की यह बस्ती घुंघरुओं की झनकार और बेले के गजरे की खुश्बू से गुलज़ार होती थी।ये बस्ती तब भी बदनाम ही थी।लेकिन तब लंपट रईस आज की तरह इस बस्ती का नाम सुनकर नाक भौं सिकोडऩे की बजाय लार टपकाते थे।गर्म गोश्त का व्यापार यहां तब भी होता था और देश के छोटे शहरों की तवायफें यहां आकर अपने हुस्न और हुनर..हुनर इसलिए क्योंकि तब तवायफ के लिए अच्छी नृत्यांगना होना पहली शर्त थी और इस बाजार में अपना सिक्का जमाने का ख्वाब देखती थीं। लखनऊ, कोलकाता और बनारस के कोठों का हर घुंघरू यहां आकर छनकने की तमन्ना रखता था।सूरज ढलते ही पनवाडिय़ों की दुकानें आबाद हो जातीं।तांगों और मोटर गाडिय़ों में सवार हो कर इत्र-फुलेल में डूबे शहर के रईस, अंग्रेज अफसर, ठेकेदार, छोटी-बड़ी रियासतों,बिगड़ैल नवाबजादे यहां पहुंचने लगते। 

 

कोठेवालियों पर बरसने वाले सिक्कों के वजन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि तवायफों की बांदियों के पास भी सेर दो सेर सोने के जेवरात होना आम बात थी। हालांकि कहते हैं उस जमाने में अंग्रेज फौजी भी शरीर की गर्मी शांत करने के लिए अक्सर यहां आते थे।लेकिन उस ज़मानें में भी जीबीरोड की तवायफों का एक स्तर होता था। किसी जमाने में भी जीबीरोड की तवायफों का एक स्तर होता था। दूर असम और बंगाल से लाई गई तवायफें अक्सर गोरे फौजियों को रियायती दर पर अपनी सेवाएं देती थीं।लेकिन उस दौर का सस्ता भी फौजियों की एक-एक हफ्ते की तनख्वाह के बराबर हो जाता था।लोहे की पटरियों पर लगातार दौड़ते रेल के इंजन थककर जैसे कोयला पानी लेने के लिए नई, पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर रुकते, ठीक वैसे ही समाज को चलाने वाला तबका जब थक जाता तो जीबी रोड के कोठों पर दमभर के लिए सुकून की तलाश में चला आता था।

 

लेकिन वक्त किसी का गुलाम नहीं है।समय का पहिया घूमता है तो हुस्न की चकाचौंध बिखेरने वाले नूरानी चेहरों पर झुर्रियों का घना अंधेरा छा जाता है।ठीक यही हाल इन दिनों दिल्ली के इस लाल बत्ती इलाके का हो गया है।तवायफोंकी की ये बस्ती दरअसल बुढ़ा गई है जिसकी ओर अब रईस कतई नहीं देखते और उसके हिस्से में आते हैं सिर्फ पुराने और फटेहाल ग्राहक। देशभर में करीब 1100 बदनाम बस्तियां साल 2001तक थी जो आज 1974 हैं।जिन्हें रेड लाईट एरिया कहा जाता है।दिल्ली की इन बदनाम बस्तियों में 54 लाख बच्चे रहते हैं। इन 54 लाख बच्चों में कोई 60 फीसदी लड़कियां हैं।बदनाम बस्तियों की ये बेटियां होनहार तो हैं लेकिन लाचार हैं।वे पढ़ना तो चाहती हैं और मुख्यधारा का जीवन भी जीना चाहती हैं।लेकिन परिस्थियां उनके लिए सबसे बड़ी बेड़ी नजर आती है।यहां पैदा होने वाली बेटियों की मां भी अपनी बेटियों को सम्मान की जिंदगी देना चाहती हैं लेकिन एक सीमा के बाद उनके हाथ भी बंधे नजर आते हैं।इन इलाकों में वेश्यावृत्ति में शामिल महिलाएं न केवल अपने बच्चों को पालना चाहती हैं बल्कि उनको एक बेहतर भविष्य देना चाहती हैं।

 

अपवाद स्वरूप ऐसे उदाहरण भी नजर आते हैं जब बदनाम बस्तियों की बेटियों ने नाम कमाया है।लेकिन यह महज अपवाद ही है। मंटो साहब लिखते हैं “वेश्या का मकान खुद एक ज़नाज़ा है जो समाज अपने कंधों पर उठाये हुए है। वह उसे जब तक दफ़न नहीं करेगा उससे मुताल्लिक बातें होती रहेंगी। भ्रूण हत्या का दंश झेल रहे हमारे समाज में कम से कम एक जगह ऐसी भी है जहां बेटी पैदा होने पर खुशियां मनाई जाती है और बेटा पैदा होने पर मुंह सिकुड़ जाता है।ये बदनाम गलियों की दास्तां है।दिल्ली के जी बी रोड की अंधेरी गलियों को ही लें,जहां कि जर्जर खिड़कियों में पीली रोशनी से इशारा करती लड़कियों के विषय में जानने की फुर्सत शायद ही आज किसी के पास हो।गाड़ियों का शोर,भीड़भाड़ भरा इलाका और भारी व्यावसायिक गतिविधियों में इस बाजार के व्यापारियों के लिए यह कुछ भी नया नहीं है।आलम ये है कि इस इलाके के दुकानदार शर्म-ओ-हया से अपना पता बताने में भी गुरेज करते हैं।

 

खुद को शरीफ कहने वाले लोग यहां मुंह ऊपर उठाकर भी नहीं देखते और महिलाएं तो शायद ही ऐसा करती हों। जी हां इसी कड़वी सच्चाई को जीने को मजबुर है इन तंग गलीयों की वो स्त्रियां...जिन्हें समाज घ्रणा की नज़रों से देखता है। जीबी रोड में रह रहीं इन महिलाओं के नाम और चेहरे भले ही अलग-अलग हों।लेकिन इनकी तकलीफें और संघर्ष एक जैसे ही हैं।वेश्या जिसे हमारे समाज मे गिरी हुई नजरो से देखा जाता है और अगर किसी वेश्या के बारे मे समाज के लोगो को पता चल जाए तो लोग फौरन उससे किनारा कर लेते है। आपको जानकर हैरानी होगी कि वैश्याओं की वैश्यावृत्ति से होने वाली कमाई का एक चौथाई भाग ही जिस्म बेचने वालों तक पहुंच पाता है।बाकी का तिहाई हिस्सा दलाल, मकान मालिक और पुलिस के पास चला जाता है। 

 

दरसअल जो ग्राहक दलाल अपने साथ लेकर आते है ग्राहक की कमाई का एक हिस्सा वो ले जाता है और एक हिस्सा जहां पर देह व्यापार होता है वहां के मालिक का होता है और बचा हुआ तीसरा हिस्सा इलाके की पुलिस को बतौर मंथली दिया जाता है।यानि अगर देखा जाए तो एक महिला के हिस्से 200 रू में से महज 50 रुपए ही आते हैं और बाकी के 150 रू दलाल, पुलिस, और मकान मालिक को चले जाते है।ये सुन कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोई महिला 50 रू की खातिर अपनी इज्जत का कैसे सौदा कर लेती है। आधुनिकता की अंधी दौड़ बदस्तुर जारी है।युग बदला,लोग बदले,रहन सहन बदला,अगर कुछ नहीं बदला तो ये बदनाम सड़क।आज भी हर बुनियादी सुविधाओं से महरूम है इस सड़क पर जींदगी तलाशते लोगों की दुनिया।

 

इन कोठों पर रहने वालों की नजर में तो सड़क पर चलने वाला हर शख्स इन्हें ग्राहक ही नज़र आता है।आखीर पेट की भूख जो मिटानी है।ये अपने तन का सौदा ना करें तो अपनी भुख और जरुरतों को कैसे पूरा करें..। अंतत: सवाल ये है कि आखीर कब रुकेगा ये सिलसिला...क्या यूं ही बदनाम होती रहेंगी ये बेबस जिंदगियां...कब होगी एक ऐसी पहल जिसका सार्थक परिणाम हमारे सामने आयेगा...और कोठों की ये बदनाम तबायफ सम्मान से हमारे समाज में सिर ऊंचा कर जी सकेंगी...या यूं ही गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो जाएंगी...कब मिलेगा उन्हें उनका हक...आखीर कब इनके दामन से छुटेगी गरीबी की कालिख....आखिर कबलगेगी इसपर बंदिश......अगर वेश्या का ज़िक्र हमारे समाज में निषिद्ध है तो उसका पेशा भी निषिद्ध होना चाहिए... यकिन मानिए वेश्यावृत्ती को मिटाइए उसका ज़िक्र खुद ब खुद मिट जायेगा...।

 

अनिल अनूप

9779592058

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