देश में लटकते आ रहे मुकद्दमों की भरमार अधीनस्थ अदालतों में मुकद्दमे निपटाने में लग जाएंगे 324 वर्ष

Edited By Pardeep,Updated: 02 Jan, 2019 03:22 AM

324 years will be settled in the courts adjourning pending cases pending cases

लम्बे समय से भारतीय अदालतों में जजों की अत्यधिक कमी चली आ रही है। इस समय देश में 6160 से अधिक जजों के पद खाली हैं तथा देश में 10 लाख की जनसंख्या पर सिर्फ 19.46 जज हैं। इस समय निचली अदालतों में 5748, 24 हाईकोर्टों में 406 और सुप्रीमकोर्ट में 6 जजों...

लम्बे समय से भारतीय अदालतों में जजों की अत्यधिक कमी चली आ रही है। इस समय देश में 6160 से अधिक जजों के पद खाली हैं तथा देश में 10 लाख की जनसंख्या पर सिर्फ 19.46 जज हैं। इस समय निचली अदालतों में 5748, 24 हाईकोर्टों में 406 और सुप्रीमकोर्ट में 6 जजों के पद खाली हैं। निचली अदालतों में जजों के 22,474 स्वीकृत पदों के मुकाबले 16,726 जज ही काम कर रहे हैं जबकि हाईकोर्टों में 1079 स्वीकृत पदों की तुलना में 673 जज ही कार्यरत हैं। 

अप्रैल, 2016 में ‘जजों व देश की जनसंख्या का अनुपात’ विषय पर चर्चा के दौरान पूर्व चीफ जस्टिस टी.एस. ठाकुर ने जजों की वर्तमान संख्या बढ़ाकर 40,000 करने की दिशा में सरकार की निष्क्रियता पर दुख व्यक्त किया था। 1987 में विधि आयोग ने जजों की संख्या प्रति 10 लाख आबादी पर 50 करने की सिफारिश की थी लेकिन तब से अब तक कुछ नहीं बदला तथा 40-50 वर्षों से भी अधिक समय से निचली अदालतों में लटकते आ रहे मुकद्दमों की संख्या करोड़ों में हो गई है। आंकड़ों के अनुसार विभिन्न निचली अदालतों में 140 मामले गत 60 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं। कुछ मामले तो 1951 से चले आ रहे हैं। ऐसा ही एक मामला बक्सर के राहुल पाठक का है जो 5 मई, 1951 से चला आ रहा है। इस केस की पिछली सुनवाई 18 नवम्बर, 2018 को हुई थी जबकि सुनवाई की अगली तारीख अदालत ने अभी अपडेट नहीं की है। 

जिला एवं अधीनस्थ अदालतों में 30 वर्ष से अधिक से लटकते आ रहे मुकद्दमों की संख्या 28 दिसम्बर, 2018 को 66,000 थी जबकि 5 वर्ष से अधिक से लटकते आ रहे केसों की संख्या 60 लाख के लगभग है। रिकार्ड के अनुसार लंबित मामलों की संख्या 2.9 करोड़ के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच चुकी है। इनमें से 71 प्रतिशत मामले फौजदारी के हैं अर्थात इन केसों में हिरासत में लिए गए विचाराधीन कैदी वर्षों से जेलों में बंद होंगे। नवम्बर में अधीनस्थ अदालतों ने 8 लाख मामले निपटाए जबकि इस अवधि में 10.2 लाख नए मामले दर्ज हुए। इस प्रकार पहले से लटकते आ रहे मामलों के अलावा प्रतिमास औसतन 2.2 लाख मामलों का बैकलॉग बढ़ रहा है। 1951 के बाद लंबित मामलों के वर्षवार विश्लेषण से पता चलता है कि कम से कम 1800 मामले ऐसे हैं जो पिछले 48-58 वर्षों से अभी तक सुनवाई या बहस की स्टेज में हैं। इसी प्रकार लगभग 13,000 मामले 40 वर्षों से अधिक समय से और 51,000 मामले 37 वर्षों से लटक रहे हैं। 

इनमें से अधिकांश मामलों पर अदालतेें या तो लगातार स्टे दे रही हैं या उनकी सुनवाई के लिए बार-बार तारीख पर तारीख तो दी जा रही है लेकिन अंतिम निपटारे के लिए उन्हें कभी हाथ में नहीं लिया जाता और ऐसा न करने के कारण भी दर्ज नहीं किए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर वाराणसी के किसी भगवान दास द्वारा 2 जुलाई, 1953 को दायर मामले में लगातार स्टे पर स्टे दिया जाता रहा है। इस मामले के इतिहास से पता चलता है कि इसकी पहली सुनवाई 11 अक्तूबर, 2015 को हुई तथा सुनवाई की अगली तारीख 15 जनवरी, 2019 तय की गई है। उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि देश में जजों की कमी से स्थिति कितनी गंभीर हो चुकी है। इस कारण अनेक पीड़ित तो न्याय मिलने से पहले ही संसार से कूच कर जाते हैं। सरकार द्वारा हाल ही में किए गए एक विश्लेषण में भी बताया गया है कि मामलों के निपटारे की वर्तमान रफ्तार से तो अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामले निपटाने में 324 वर्ष लग जाएंगे। 

सरकार भी मान चुकी है कि लंबित मामलों की इतनी बड़ी संख्या का एक कारण जजों की कमी है, अत: आवश्यकता इस बात की है कि इस नए वर्ष में, जोकि संयोगवश चुनावी वर्ष भी है, सरकार चुनावों से पहले-पहले अदालतों में जजों की कमी दूर करने के लिए आपातकालीन पग उठाए तथा नए जजों की भर्ती के अलावा अवकाश प्राप्त जजों की सेवाएं भी ली जाएं। अदालतों में दूसरे स्टाफ की अविलंब भर्ती करने की भी जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो अदालतों में मामले इसी तरह लटकते रहेंगे और न्याय की प्रतीक्षा करते-करते पीड़ित मरते रहेंगे।—विजय कुमार 

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