Edited By Pardeep,Updated: 01 Aug, 2018 03:23 AM
जैसा कि हम अक्सर लिखते रहते हैं देश वासियों को सस्ती एवं स्तरीय चिकित्सा एवं शिक्षा, स्वच्छ पानी और लगातार बिजली उपलब्ध करवाना केंद्र एवं राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है परंतु वे इसमें विफल रही हैं। देश में चिकित्सा व्यवस्था किस कदर दयनीय स्थिति में...
जैसा कि हम अक्सर लिखते रहते हैं देश वासियों को सस्ती एवं स्तरीय चिकित्सा एवं शिक्षा, स्वच्छ पानी और लगातार बिजली उपलब्ध करवाना केंद्र एवं राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है परंतु वे इसमें विफल रही हैं। देश में चिकित्सा व्यवस्था किस कदर दयनीय स्थिति में पहुंच चुकी है यह इसी से स्पष्टï है कि जहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के अनुसार 1000 लोगों पर एक सरकारी डाक्टर होना चाहिए वहीं भारत में औसतन 11,082 लोगों पर एक सरकारी डाक्टर उपलब्ध है।
डाक्टरों की यह संख्या विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मापदंडों से 11 गुणा कम है। बिहार में तो यह स्थिति और भी खराब है जहां 28,391 लोगों पर एक ही डाक्टर उपलब्ध है। इसके परिणामस्वरूप देश में मधुमेह और उच्च रक्तचाप के रोगियों की संख्या में 2 गुणा तथा कैंसर के मामलों में 36 प्रतिशत वृद्धि हो गई है। सरकारी अस्पतालों में दंत चिकित्सकों की भी भारी कमी है और उनमें केवल 5614 दंत चिकित्सक ही कार्यरत हैं अर्थात 2,17,448 लोगों पर एक ही दंत चिकित्सक है।
डाक्टरों की इस कमी के चलते ही देश और विशेषकर ग्रामीण इलाकों में झोलाछाप डाक्टरों की संख्या में भारी वृद्धि हो गई है और 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार तो देश में एलोपैथिक डाक्टरों के रूप में प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मैडीकल की डिग्री ही नहीं थी। सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और बुनियादी सुविधाओं की कमी और निजी अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा होने के कारण वहां इलाज करवा पाना एक आम भारतीय नागरिक के वश के बाहर की बात है जिस कारण बड़ी संख्या में लोगों को झोलाछाप डाक्टरों की शरण लेनी पड़ती है।
इसी सिलसिले में विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि आधे से अधिक भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है जबकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने वाले लोग अपनी आय का 10 प्रतिशत से अधिक भाग इलाज पर खर्च कर रहे हैं और बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं जिनका इलाज मौजूद है। चिकित्सा सेवाओं की भांति ही देश के सरकारी स्कूलों में अध्यापकों और बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण शिक्षा की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। लोकसभा में मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने बताया कि देश भर के सरकारी स्कूलों में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के 10 लाख से अधिक अध्यापकों के पद खाली पड़े हैं।
प्राथमिक अध्यापकों की कमी के मामले में उत्तर प्रदेश और माध्यमिक स्तर के शिक्षकों की कमी के मामले में जम्मू-कश्मीर पहले स्थान पर है। गत वर्ष लोकसभा में रखी गई एक रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि देश में आज भी 105630 स्कूल ऐसे हैं जहां मात्र एक ही शिक्षक है। इस कारण देश में सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के सामान्य ज्ञान और शिक्षा का स्तर बहुत नीचा हो गया है। इसी वर्ष के आरंभ में ग्रामीण भारत के लिए देश के 24 राज्यों के 28 जिलों के 30 हजार बच्चों के सर्वे पर आधारित एक रिपोर्ट ‘एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट’-2017 जारी की गई जिसके अत्यंत निराशाजनक नतीजे सामने आए हैं।
उदाहरण के रूप में सर्वे में शामिल 36 प्रतिशत बच्चे अपने देश की राजधानी का नाम तक नहीं जानते थे और आधे से अधिक बच्चे साधारण गुणा-भाग के प्रश्र भी हल नहीं कर सकते थे। हालांकि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है परंतु स्कूलों में अध्यापक ही नहीं हैं और पीने के पानी, शौचालय तथा बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं तक का नितांत अभाव है। यही नहीं सरकारी स्कूलों की 7 प्रतिशत इमारतें बेहद खस्ता हालत में हैं जिनकी व्यापक स्तर पर मुरम्मत करने की जरूरत है। इसीलिए देश में सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में योग्य डाक्टरों और अध्यापकों की कमी जल्द पूरी करना आवश्यक है। एक स्वस्थ और शिक्षित देश ही प्रगति पथ पर बेरोक-टोक आगे बढ़ सकता है।—विजय कुमार