आखिर सोनिया को ही संभालनी पड़ी ‘ड्राइवर वाली सीट’

Edited By ,Updated: 02 May, 2017 11:08 PM

after all sonia had to handle the driver seat

2013 से अपने बेटे राहुल गांधी को पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में आगे बढ़ाती आ.....

2013 से अपने बेटे राहुल गांधी को पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में आगे बढ़ाती आ रहीं कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने फिर से ड्राइवर की सीट संभाल ली है? आज कांग्रेस में कोई भी राहुल गांधी को पदोन्नति देने की बातें नहीं कर रहा और पार्टी में गहरी हताशा व्याप्त हो गई है। पार्टी के अंदर राहुल के विरुद्ध खुसर-फुसर बढ़ती जा रही है और अभी भी इस सवाल का निर्णय  नहीं हुआ कि सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस की कमान किसके हाथों में होगी। पार्टी की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी (यानी राहुल ब्रिगेड) के बीच लड़ाई थम नहीं रही है। 

सोनिया गांधी पिछले अगस्त से बीमार थीं और किसी प्रकार की गतिविधि नहीं कर पा रही थीं। पिछले महीने वह न्यूयार्क से मैडीकल चैकअप करवा कर लौट आई हैं। तब से वह पार्टी मामलों के साथ-साथ विपक्षी एकता में भी रुचि ले रही हैं। कांग्रेस की आंतरिक बेचैनी के चलते उन्हें फिर से केन्द्रीय भूमिका अपनाने को मजबूर होना पड़ा है। पहले तो 5 विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस हतोत्साहित महसूस कर रही थी और बची-खुची कसर तब पूरी हो गई जब दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी उसे मुंह की खानी पड़ी।

यह तो स्पष्ट था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गत 3 वर्षों से एक के बाद एक राज्य में जीत दर्ज करती आ रही भाजपा को चुनौती देने के लिए विपक्ष को एक मजबूत नेता की जरूरत है। एस.एम. कृष्णा जैसे वरिष्ठ नेताओं द्वारा भाजपा का दामन थामने के कारण कांग्रेस के अंदर स्थिति बहुत ही हताशापूर्ण बन गई है। यह निराशा उन राज्यों तक फैल गई है जहां शीघ्र ही चुनाव होने वाले हैं और भाजपा भी इन राज्यों में कांग्रेस के नेताओं को ‘आयातित’ करने के लिए उन्हें पद, टिकट और पैसा प्रस्तुत कर रही है। 

पार्टी का क्षरण बिल्कुल वैसा ही था जैसा 1997 में सीता राम केसरी के कार्यकाल दौरान हुआ था। सोनिया को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने वैधव्य की पीड़ा को भुलाते हुए न केवल इस क्षरण पर अंकुश लगाया बल्कि 2004 के बाद पार्टी को दो बार सत्ता के सिंहासन पर आसीन किया। उनकी तुलना में राहुल गांधी पार्टी के समक्ष अपनी नेतृत्व क्षमता को प्रमाणित नहीं कर पाए हैं और पार्टी लगातार नीचे फिसलती जा रही है। जैसा कि एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने हाल ही में प्राइवेट बातचीत में कहा है कि पार्टी के पास न तो नेतृत्व है, न पैसा, न कार्यकत्र्ता और न ही कार्यकत्र्ताओं के साथ संवाद, जबकि पार्टी के स्वस्थ अस्तित्व के लिए ये चारों चीजें बेहद जरूरी हैं। 

सुधार की कोई आशा न दिखाई देने के कारण पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के चेहरे से हताशा झलकती है, खास तौर पर यू.पी. चुनाव के बाद। पी. चिदम्बरम, कपिल सिब्बल एवं सलमान खुर्शीद जैसे कुछ पूर्व मंत्री तो व्यावहारिक रूप में फिर से अपने वकालत के धंधे की ओर लौट गए हैं। अंबिका सोनी, जनार्दन द्विवेदी तथा दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जैसे कुछ वरिष्ठ नेता तथा कई अन्य अपने-अपने स्थान पर रुदन कर रहे हैं। वैसे सामूहिक नेतृत्व की भी बात चली थी लेकिन सोनिया गांधी ने स्पष्ट तौर पर इसमें रुचि ही नहीं दिखाई। 

वर्तमान में पार्टी को अन्य किसी चीज की तुलना में नेतृत्व की कमी खल रही है क्योंकि राहुल गांधी अपनी मां और पार्टी द्वारा हौसला-अफजाई किए जाने के बावजूद उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं। ऐसे छुटभैए नेताओं को पार्टी में जिम्मेदारियां दी गई हैं जिन्हें न तो अतीत की कोई समझ है और न ही भविष्य की। पार्टी नेतृत्व एक तरह से उखड़ चुका है और आम जनता के साथ इसका कोई संबंध नहीं रह गया। 

जहां तक वैचारिक एजैंडे का सवाल है वहां भी नोटबंदी और कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से भाजपा गरीब लोगों को इसके पाले में से छीन कर ले गई है। भाजपा के हिन्दुत्व के विरुद्ध कांग्रेस ने सैकुलरवाद का जो पत्ता खेला था वह सफल नहीं हो पाया और अब इसे भाजपा का विस्तार रोकने के लिए अन्य मुद्दे तलाशने पड़ रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व करने की काबिलियत नहीं जुटा पा रही। राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ऐसा नेतृत्व प्रदान करने के योग्य नहीं हैं और शायद इसी कारण सोनिया गांधी को दोबारा ड्राइवर की सीट संभालनी पड़ी है। 

उदाहरण के तौर पर उन्होंने विपक्षी पार्टियों को गतिशील करने के लिए सबसे पहले कदम उठाया है। उनकी इस पहल की सबसे प्रथम परीक्षा तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों के लिए सांझे उम्मीदवार तय करते समय होगी। क्या सोनिया गांधी इस काम में सफल होंगी? सोनिया ने शरद पवार (राकांपा), नीतीश कुमार जद(यू), ममता बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस), सीता राम येचुरी (माकपा) सहित भाकपा और अन्य पार्टियों से भी सांझा उम्मीदवार तलाश करने के लिए परामर्श किया है जबकि वह जानती हैं कि संख्या बल भाजपा के पक्ष में है और विपक्ष की लड़ाई केवल संकेतात्मक ही होगी। विपक्ष के अनेक नेता राहुल से उम्र और अनुभव में वरिष्ठ हैं। इसलिए वे सीधे सोनिया गांधी से बात करने को वरीयता देते हैं। 

लेकिन ये सब कुछ करने के लिए कांग्रेस को सबसे पहले अपना घर सुधारना होगा और पार्टी का मनोबल ऊंचा उठाना होगा। सबसे पहला मुद्दा तो है नेतृत्व। शायद सोनिया गांधी को यह महसूस हो गया है कि राहुल को नेतृत्व क्षमता विकसित करने के लिए अभी कुछ और समय की जरूरत है लेकिन वह यह स्वीकारोक्ति करने को तैयार नहीं कि राहुल कांग्रेस और विपक्ष का नेतृत्व करने की क्षमता ही नहीं रखते। इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी कार्यकत्र्ताओं की नजरों में सोनिया की बुक्कत आज भी बहुत अधिक है। इसके बावजूद नेतृत्व का हस्तांतरण अभी तक सही ढंग से नहीं हो पाया है।

दूसरी बात यह है कि 2014 के आम चुनाव और इसके बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी ने संगठन का निर्माण करने के लिए कुछ नहीं किया। यह उन लोगों को दंडित करने में भी विफल रही जिन्होंने अच्छे नतीजे नहीं दिखाए। अभी इसी सप्ताह कांग्रेस अध्यक्षा ने दिग्विजय सिंह से गोवा और कर्नाटक का प्रभार छीन लिया है और इसके साथ ही दो महासचिवों गुरुदास कामत और मधुसूदन मिस्त्री की भी छुट्टी कर दी है। दिग्विजय सिंह इसलिए आलोचना का निशाना बने थे कि गोवा में कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद वह सरकार नहीं बना पाई थी। लेकिन ये घोषणाएं किसी समुचित रणनीति का अंग महसूस नहीं होतीं बल्कि कामचलाऊ-सी लगती हैं। 

पार्टी के अंदर की जानने वालों की मानें तो सोनिया गांधी की योजना यही है कि प्रत्येक राज्य के लिए अलग-अलग प्रभारी हों। शीघ्र ही चुनाव की ओर बढ़ रहे गुजरात में जहां वह राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को प्रभारी बना रही हैं, वहीं कर्नाटक में पूर्व मंत्री वेणुगोपाल को मौका देकर सोनिया ने यह संकेत दिया है कि उनकी नई टीम में पुरानी और नई पीढ़ी की चाशनी होगी। वेणुगोपाल, सुष्मिता सेन तथा कुछ अन्य नेता संसद में राहुल की पीठ थपथपाने वालों में से एक हैं और उनके पीछे ही बैठते हैं। 

कांग्रेस की योजनाएं चाहे कुछ भी हों, एक बात स्पष्ट है कि फिलहाल सोनिया ही पार्टी का नेतृत्व करेंगी। इससे कार्यकत्र्ताओं के चेहरे खिले हुए हैं और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ गया है लेकिन जब तक पार्टी के पुनर्गठन और नेतृत्व के नवसृजन जैसे ठोस कदम नहीं उठाए जाते, कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं। 

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