Edited By ,Updated: 19 Sep, 2019 12:24 AM
इन दिनों देश में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं में दल-बदली का रुझान जोरों पर है। इसका नवीनतम उदाहरण गत 16 सितम्बर को मिला जब राजस्थान में बसपा के सभी 6 विधायकों ने बसपा को अलविदा कह कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया। जहां राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक...
इन दिनों देश में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं में दल-बदली का रुझान जोरों पर है। इसका नवीनतम उदाहरण गत 16 सितम्बर को मिला जब राजस्थान में बसपा के सभी 6 विधायकों ने बसपा को अलविदा कह कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया।
जहां राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि बसपा विधायकों को पार्टी में शामिल करने के लिए कांग्रेस की ओर से कोई दबाव नहीं डाला गया, वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने इसे ‘कांग्रेस का विश्वासघात’ बताते हुए कहा है कि ‘‘कांग्रेस विश्वास के काबिल पार्टी नहीं है और इसके नेता ‘मुख्य प्रतिद्वंद्वी’ का मुकाबला करने की बजाय हमेशा उन लोगों को ठेस पहुंचाते हैं जो इसका समर्थन करते हैं।’’ मायावती ने यह भी कहा कि लोकसभा चुनावों में बसपा द्वारा कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन देने के बावजूद कांग्रेस ने उसके साथ विश्वासघात किया है।
वास्तव में नेतागण सत्ता के मोह में ही अपनी मूल पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं और इन बसपा विधायकों के मामले में भी ऐसा ही हुआ है, जिनमें से 2 विधायकों को मंत्री और 4 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने का प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व ने वादा किया है। इसी संदर्भ में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 1 सितम्बर को कहा था कि ‘‘नेताओं को अपनी विचारधारा पर टिके रहना चाहिए और पार्टी बदलने से बचना चाहिए।’’ हम भी प्राय: लिखते रहते हैं कि अपने सिद्धांतों और आदर्शों को तिलांजलि देकर मात्र सत्ता के लिए किसी दूसरी पार्टी का दामन थामना कदापि उचित नहीं है तथा दल-बदलू नेताओं को दूसरे दलों में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उनकी विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।—विजय कुमार