Edited By ,Updated: 13 Jan, 2015 05:27 AM
आज देश की स्वतंत्रता को 67 वर्ष होने को हैं परंतु देश के शासनतंत्र में आई गिरावट व अन्य बुराइयों के कारण कार्यपालिका और विधायिका निष्क्रिय होकर रह गई हैं।
आज देश की स्वतंत्रता को 67 वर्ष होने को हैं परंतु देश के शासनतंत्र में आई गिरावट व अन्य बुराइयों के कारण कार्यपालिका और विधायिका निष्क्रिय होकर रह गई हैं। ऐसे में आम जन से जुड़े मुद्दों पर केवल न्यायपालिका और मीडिया ही सरकार को झिंझोडऩे का काम कर रहे हैं।
इसी कारण हम समय-समय पर लिखते रहते हैं कि यदि न्यायपालिका और मीडिया भी अपने कत्र्तव्य से विमुख हो जाएं तो देश को रसातल में जाने से कोई नहीं रोक सकता।
36 वर्ष पूर्व 1979 में सुप्रीमकोर्ट में पहली जनहित याचिका दायर करने वाली ‘कपिला हिंगोरानी’ की याद में नई दिल्ली में आयोजित ‘प्रथम कपिला हिंगोरानी यादगारी भाषण’ में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने भी अब हमारे उक्त विचारों की पुष्टि कर दी है।
इसी वर्ष दिसम्बर में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभालने जा रहे न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने कहा कि ‘‘न्यायपालिका हद से ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं है और न ही यह ‘गवर्नैंस’ को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है लेकिन यदि गवर्नैंस का पूरी तरह भठ्ठा बैठ गया हो...हर ओर अंधकार दिखाई दे रहा हो तो जन-हित में इसे हस्तक्षेप करना ही पड़ता है।’’
कार्यपालिका में काम करने की इच्छा शक्ति के अभाव की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘देश में सुधारों के प्रति न्यायपालिका की प्रतिबद्धता निविवाद है और जब कभी भी देश की जनता न्याय की आशा से इसका द्वार खटखटाएगी तो यह कभी भी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ेगी।’’
‘‘जनता के हितों के प्रति न्यायपालिका की यह प्रतिबद्धता इसलिए नहीं है कि हम गवर्नैंस को अपने अधिकार में लेना चाहते हैं या न्यायपालिका हद से अधिक महत्वाकांक्षी हो गई है। ऐसा इसलिए भी नहीं है कि हमारे मन में सत्तारूढ़ लोगों के प्रति विद्वेष की कोई भावना है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि हालात की यही मांग है।’’
न्यायमूर्ति ठाकुर ने आगे कहा, ‘‘यदि शासन प्रणाली पूर्णत: असफल हो जाए और नागरिकों के लिए कोई आशा न रहे, यदि गवर्नैंस का पूरी तरह भठ्ठा बैठ जाए तो फिर आम आदमी कहां जाएगा?’’
‘‘जब जनता पीड़ा में हो और सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार लगाने की स्थिति में भी न हो तो ऐसे में क्या अदालतों को विभिन्न कठोर सिद्धांतों की ओर से आंखें मूद लेनी चाहिएं? जब हर ओर निराशा का अंधकार छाया हो तो क्या आप नहीं समझते कि हमें गवर्नैंस के लिए आगे आना होगा?’’
उन्होंने कहा कि ‘‘न्यायपालिका जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए निर्देश जारी करने में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाती रही है परंतु इन निर्देशों पर कार्यान्वयन तो अफसरशाही और सरकार में बैठे लोगों ने ही करना है।’’
‘‘न्यायालयों द्वारा अनेक फैसले सुनाने और आदेश देने के बावजूद यदि हालात में कोई बदलाव न आए तो क्या यह न्यायपालिका की असफलता है या सरकार की? यदि कानून किसी मुद्दे पर स्पष्ट है और न्यायपालिका ने समुचित निर्देश जारी किए हैं तो न्यायपालिका ने अपना दायित्व निभा दिया है।
तब प्रशासन और गवर्नैंस के लिए तैनात लोगों की जिम्मेदारी है कि वे दूसरे लोगों की गलतियों को दूर करके हालात को सुधारें क्योंकि समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए सभी का मिल कर काम करना जरूरी है।’’
गंगा की स्वच्छता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इस बारे जनहित याचिका 15 वर्षों से अधिक से लंबित है। इस केस की सुनवाई के दौरान मैंने महसूस किया कि अदालत के अनेक आदेशों के बावजूद आज भी गंगा उतनी ही अस्वच्छ है जितनी इस केस की सुनवाई शुरू होने के समय थी।’’
उन्होंने फिर कहा कि कार्यपालिका में इच्छाशक्ति का अभाव है और जिन लोगों से इस दिशा में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है उन्हें अब उनकी निष्क्रियता के लिए अवश्य जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।
समय-समय पर न्यायपालिका ने अपने ऐतिहासिक निर्णयों और आदेशों से सरकारों को झिंझोड़ा और हरकत में आने के लिए मजबूर किया है। अब एक बार फिर न्यायमूर्ति ठाकुर ने यही बात कह दी है, इसलिए जितनी जल्दी सत्ताधारी लोग यह आवाज सुनेंगे, देश-हित में उतना ही अच्छा होगा।