सुप्रीमकोर्ट द्वारा गंभीर अपराधों के लिए अलग जांच इकाई गठित करने का सही सुझाव

Edited By ,Updated: 18 Jan, 2015 05:14 AM

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देश की स्वतंत्रता के बाद यहां लोकतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था तो लागू की गई परंतु नौकरशाही या पुलिस के स्वरूप और उसकी भूमिका को लोकतांत्रिक बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई।

देश की स्वतंत्रता के बाद यहां लोकतांत्रिक-राजनीतिक व्यवस्था तो लागू की गई परंतु नौकरशाही या पुलिस के स्वरूप और उसकी भूमिका को लोकतांत्रिक बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। कई पुलिस सुधार आयोग भी गठित किए गए लेकिन उनकी सिफारिशें लागू न हो सकीं। 

एक ओर देश में हत्या, डकैती और बलात्कार जैसे अपराधों में वृद्धि हो रही है और दूसरी ओर आम आदमी थाने में जाने से भी डरता है क्योंकि उसे कतई भरोसा नहीं है कि वहां उसकी फरियाद सुनी जाएगी। 
 
हालत यह है कि आमतौर पर पुलिस थाने में छोटी-बड़ी किसी भी किस्म की शिकायत लेकर जाने वाले का अक्सर उत्पीडऩ ही होता है और संभावना ज्यादातर इसी बात की होती है कि रिपोर्ट लिखी ही नहीं जाएगी। 
 
पुलिस का जनता की शिकायतों के प्रति रवैया भी लापरवाही वाला ही होता है क्योंकि रिपोर्ट लिखने से उस थाने के अधिकार क्षेत्र में होने वाले अपराधों की संख्या बढ़ जाती है जिसे थानाध्यक्ष के रिकार्ड के लिए अच्छा नहीं समझा जाता। 
 
12 नवम्बर, 2014 को ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्यों के मुकद्दमे में फैसला सुनाते हुए सुप्रीमकोर्ट ने कहा था कि प्रतिवर्ष देश में संज्ञेय अपराधों के 60 लाख मामलों में पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जो नागरिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। ललिता कुमारी के पिता ने आरोप लगाया था कि उसने अपनी नाबालिग बेटी के अपहरण की रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की थी जो नहीं लिखी गई।
 
एक ओर तो न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है और दूसरी ओर पुलिस द्वारा जेब तराशी जैसे मामूली व बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर सब तरह के मामलों को एक ही नजर से देखने व जांच समय पर नहीं होने के कारण बड़ी संख्या में लोग न्याय से वंचित हो रहे हैं।
 
इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हत्या और बलात्कार जैसे वीभत्स अपराधों के मामलों की तीव्र तथा वैज्ञानिक आधार पर पड़ताल के लिए अलग से एक पुलिस कैडर या यूनिट स्थापित करने की सलाह दी है। 
 
न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने 15 जनवरी 2015 को कुछ जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए जिनमें विभिन्न मामलों की जांच-पड़ताल कर रहे पुलिस अफसरों को विभिन्न प्रकार के दबाव से मुक्त करने की मांग की गई है, कहा कि मामूली अपराधों से लेकर समाज को झकझोर देेने वाले वीभत्स अपराधों के मामले एक या दो सब-इंस्पैक्टरों को सौंपना उचित नहीं है। 
 
अपराधों  में अंतर स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि सक्षम पुलिस अफसरों का समय कम महत्वपूर्ण अपराधों को सुलझाने में व्यर्थ न जाए जिनकी वजह से महत्वपूर्ण मामलों में उनकी पड़ताल भी रास्ते से भटक जाती है। 
 
विद्वान न्यायाधीशों ने कहा कि गंभीर मामलों की पड़ताल के लिए अलग से कैडर या यूनिट तैयार करने से न्याय प्रक्रिया में जनता का विश्वास पैदा होगा और इससे पुलिस की तरफ से कार्रवाई न करने के आरोपों सहित हर मामले में सी.बी.आई. से जांच करवाने की मांग भी खत्म हो सकेगी।
 
इसके उत्तर में सॉलीसिटर जनरल रंजीत कुमार ने कहा कि ऑल इंडिया पुलिस कांग्रेस ने अलग से जांच करने वाली यूनिट की जरूरत पर गौर करके चरणबद्ध तरीके से इसे लागू करने की सलाह दी थी तथा 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में इनकी स्थापना को कहा गया था परंतु स्टाफ तथा धन की कमी इसमें बाधा बन रही है और वैसे भी कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है।
 
यह बात तो सर्वविदित है कि देश में न सिर्फ पुलिस बलों बल्कि न्यायालयों में न्यायाधीशों तक की कमी है परंतु यदि पुलिस विभाग और न्यायपालिका में जरूरी भर्तियां न करके, इसी प्रकार मामलों को लटकते जाने दिया जाएगा तब तो पुलिस विभाग और न्यायालयों पर काम का बोझ बढ़ता ही जाएगा और आम आदमी के लिए न्याय पाने की बची-खुची आशा भी समाप्त हो जाएगी। 
 
अत: हत्या व बलात्कार जैसे वीभत्स अपराधों के मामलों की तीव्र तथा वैज्ञानिक आधार पर पड़ताल के लिए अलग से एक पुलिस कैडर या यूनिट स्थापित करने की सुप्रीम कोर्ट की सलाह बिल्कुल सही है तथा इसे जल्द से जल्द लागू किया जाए।  

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