पहले पुराने चल रहे ‘एम्स’ को सुधारें फिर बाद में नए ‘एम्स’ बनाएं

Edited By ,Updated: 04 Apr, 2015 01:26 AM

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देशवासियों को सस्ती और स्तरीय शिक्षा एवं चिकित्सा, स्वच्छ पानी तथा लगातार बिजली उपलब्ध करवाना केंद्र और राज्य सरकारों का कत्र्तव्य है परंतु इन सभी मोर्चों पर ये बुरी तरह असफल रही हैं।

देशवासियों को सस्ती और स्तरीय शिक्षा एवं चिकित्सा, स्वच्छ पानी तथा लगातार बिजली उपलब्ध करवाना केंद्र और राज्य सरकारों का कत्र्तव्य है परंतु इन सभी मोर्चों पर ये बुरी तरह असफल रही हैं। 

स्तरीय शिक्षा की बात तो जाने दीजिए, अभी तक तो सरकार द्वारा 6 से 14 वर्ष आयु के सब बच्चों को स्कूलों में भेजने का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो सका है और सरकारी स्कूलों की जो हालत है उससे तो सभी परिचित हैं। 
 
चिकित्सा के क्षेत्र में भी यही स्थिति है। प्रतिवर्ष बजट में केंद्र सरकार द्वारा देश में शिक्षा व चिकित्सा सुविधाओं में सुधार और नए-नए स्कूल एवं अस्पताल खोलने के लिए करोड़ों रुपए जारी करने का फैशन सा बन गया है। 
 
वर्ष 2006 में सरकार ने भोपाल, रायपुर, भुवनेश्वर, पटना, जोधपुर और ऋषिकेश में 6 ‘एम्स’, फिर 2014 में आंध्र, बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में 4 तथा 2015 में जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, बिहार, हिमाचल व असम में 6 एम्स मिलाकर कुल नए 16 ‘एम्स’ खोलने की घोषणा की।
 
2006 में घोषित 6 ‘एम्स’ का निर्माण 2009 में शुरू हुआ था। हालांकि इनका 60 प्रतिशत निर्माण पूरा होने का दावा किया जाता है परंतु इनके लिए तो अभी तक सामान की खरीद भी पूरी नहीं हुई और निर्माण में देर होने से लागत में भी पहले की तुलना में भारी वृद्धि हो गई है।
 
भोपाल स्थित ‘एम्स’ के निर्माण पर 2009 में 682 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान था जिसकी लागत अभी तक दो गुणा बढ़ चुकी है। अस्पताल में न ड्रेन सिस्टम है, न ए.सी. प्रणाली और लगभग 70 करोड़ रुपए के खरीदे हुए उपकरण भी बिल्डिंग अधूरी होने के कारण वैसे ही बेकार पड़े हैं। 
 
पटना वाले ‘एम्स’ की भी यही हालत है। वहां प्रसूति गृह, रक्तबैंक और आपात्कालीन सेवाएं ही उपलब्ध नहीं हैं तथा सिर्फ एक एक्स-रे मशीन है। रायपुर के ‘एम्स’ में 1800 नॄसग की असामियों के मुकाबले ठेके पर रखी गई सिर्फ 200 नर्सें हैं। भुवनेश्वर में सिर्फ 68 फैकल्टी मैम्बरों की भर्ती की गई और उनमें से भी 6 अपनी सेवाओं का इस्तेमाल न होने से छोड़ कर चले गए।  
 
अधिकांश संस्थानों में काडयोलॉजी, नैफरोलॉजी, एंडोक्रीनोलॉजी, न्यूरोसर्जरी, जलने और प्लास्टिक सर्जरी जैसे सुपर स्पैशलिटी विभाग खाली हैं और इनकी बात तो दूर आई.सी.यू. तक नहीं हैं। रायपुर स्थित ‘एम्स’ में भी हालत इतनी ही बुरी है। होस्टल की सुविधाओं का भी अभाव है। 
 
नए ‘एम्स’ की स्थापना और राज्यों के अस्पतालों की अपग्रेडेशन के लिए प्रधानमंत्री स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत इस वर्ष बजट बढ़ाकर 2156 करोड़ रुपए हो गया है लेकिन यह केवल 2015 में घोषित 6 एम्स के लिए नहीं बल्कि सभी 16 एम्स तथा वर्तमान अस्पतालों को अपग्रेड करने के लिए है। 
 
इस समय तो इन संस्थानों को ‘एम्स’ कहना स्वयं को धोखा देने जैसा है। ज्यादा से ज्यादा इन्हें तीसरी श्रेणी के अच्छे अस्पताल कहा जा सकता है। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इन संस्थानों के लिए स्टाफ नहीं मिल रहा और ठेके के कर्मचारियों से ही काम चलाया जा रहा है।
 
नैशनल हैल्थ सिस्टम रिसोर्स सैंटर के पूर्व निदेशक डा. टी. सुंदररमण के अनुसार जिस गति से 2006 में घोषित 6 ‘एम्स’ का निर्माण हो रहा है, उस गति से तो इन्हें दिल्ली के ‘एम्स’ की बराबरी पर आने में 15-20 वर्ष लग ही जाएंगे। 
 
उक्त तथ्यों के आधार पर हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि जब 2006 में घोषित ‘एम्स’ ही अभी किसी किनारे नहीं लग पाए तो 2014 और 2015 में जो 10 एम्स घोषित किए गए थे उनका निर्माण कब पूरा होगा। 
 
हैल्थ बजट के नाम पर मैडीकल कालेज और अस्पताल खोलने पर करोड़ों रुपए डुबोने से तो अच्छा यह है कि पहले से मौजूद अस्पतालों को अपग्रेड किया जाए और प्राइमरी तथा सैकेंडरी स्तर की स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार किया जाए जिनसे इस समय लोग वंचित हैं।
 
आज देश में स्वास्थ्य सेवाओं की भारी कमी है और प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करवाना आम आदमी के वश में नहीं। अत: सरकार को लोक लुभावन घोषणाएं करने से पहले सोचना चाहिए कि पिछली घोषणाएं कितनी पूरी हुई हैं। जब एक दशक पुरानी योजनाएं ही पूरी नहीं हुईं तो बाद में घोषित योजनाओं के पूरे होने की कैसे आशा की जा सकती है।  

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