ममतामयी ‘मां’ के लिए कुछ श्रद्धासुमन

Edited By ,Updated: 09 Jul, 2015 12:48 AM

article

हमारी संस्कृति में ‘मातृ ऋण’ की अत्यधिक महिमा है और इसीलिए आज हमारे मन में यह भावना बलवती हो उठी कि हमें अवश्य ही अपने मातृ ऋण से उऋण होने की कुछ कोशिश करनी चाहिए।

हमारी संस्कृति में ‘मातृ ऋण’ की अत्यधिक महिमा है और इसीलिए आज हमारे मन में यह भावना बलवती हो उठी कि हमें अवश्य ही अपने मातृ ऋण से उऋण होने की कुछ कोशिश करनी चाहिए।

वैधानिक रूप से तो वह (श्रीमती स्वदेश चोपड़ा) हमारी सासू मां थीं, जो हमारे जीवन में तब आईं जब उनकी पुत्रवधुओं के रूप में हम इस परिवार की सदस्य बनीं परंतु उनके लिए ‘सासू मां’ शब्द तो हमारे स्मृति पटल से कभी का मिट चुका है। 
 
हमारी दृष्टि में तो उन्हें ‘सासू मां’ कहना उचित नहीं होगा। वह तो हमारी मां थीं। उनका शांत, सौम्य व्यक्तित्व अप्रतिम था। सामान्यत: लोग समझ बैठते थे कि शायद वह दब्बू थीं परंतु उनका यह शांत व सौम्य व्यक्तित्व उनकी आंतरिक शक्ति से उपजा था। वह प्राय: कहा करती थीं, ‘‘कुछ कहना बहुत आसान है परंतु सत्य पथ पर चलने में ही वास्तविक शक्ति निहित है।’’
 
उनकी सहनशीलता और दूरदशता का अनुभव हमें बार-बार हुआ। जब कभी भी वह हमें किसी बात पर परेशान देखतीं तो वह इतना ही कहा करती थीं, ‘‘मैं नहीं चाहती कि मेरा कोई बच्चा इस बात को लेकर अपना समय बर्बाद करे कि दूसरे उसके विषय में क्या कहते हैं। आगे बढ़ो और अपने कार्यों से उन्हें गलत सिद्ध कर दो।’’  हर किसी को खुले मन से स्वीकार करने और फिर उस रिश्ते को सजीव रखने के लिए शायद यही उनका मूल मंत्र था।
 
उनका अपनी सासू मां के साथ कभी भी कोई विवाद न होना और उनकी 8 ननदों, 1 जेठानी तथा उनके बाद हम दोनों बहुओं के साथ भी उनकी कभी किसी भी बात पर कोई असहमति न होना स्पष्ट करता है कि उनके भीतर इस बात को भांपने का विरल गुण था कि कब किसे क्या कहना या न कहना उचित है। 
 
बहुत अच्छी वक्ता होने के बावजूद वह बहुत कम बोलती थीं। हम न सिर्फ उनसे उनके भाषण के विषय में विचार सांझे करती थीं बल्कि हमारा पढऩे का शौक भी सांझा था। वह हर काम इतने सलीके से करने की अभ्यस्त थीं कि अपने लेखों और भाषणों को भी सूचीबद्ध करके रखती थीं। 
 
त्यौहार के दिनों में भी जब समूचा परिवार इकट्ठा होता था तो उनकी हमेशा तैयार रहने वाली ‘कार्यसूची’ उनके पास होती थी जो आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है। उनकी वेशभूषा की समझ त्रुटिहीन थी और उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी गरिमा थी, जिसकी बराबरी करना तो किसी के लिए संभव ही नहीं। 
 
यह उनका बाहरी रूप था और भीतर से वह एक दयालु आत्मा थीं जो परिश्रम को ही सफलता का मार्ग मानती थीं। यही बात उन्होंने अपने बेटों अविनाश जी और अमित जी को भी सिखाई कि वे व्यर्थ की बातों और परनिंदा से दूर रह कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करें।
 
वह एक उत्कृष्ट अध्यापिका थीं जिन्होंने न सिर्फ अपने दोनों बेटों के स्कूल के दिनों में उन्हें पढ़ाया बल्कि अपने पोतों और पोती को भी। चाहे फिजिक्स, कैमिस्ट्री या बायोलॉजी जैसे विषय हों या भाषा विषयक, सब पर उनकी समान रूप से पकड़ थी। 
 
2008 में उनके बीमार होने के कुछ ही समय बाद अमृतसर से एक युवती ने आकर कहा कि वह ‘बीजी’ से मिलना चाहती है। जब हमने उसे मम्मी की अस्वस्थता के विषय में बताया तो वह उदास हो गई क्योंकि वह नई-नई इंजीनियर बनी थी और ‘मम्मी’ को अपनी डिग्री दिखाने आई थी जिनकी सहायता से वह अपनी मंजिल पाने में सफल हो सकी थी।
 
उस युवती के पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसके परिवार वाले उसकी शादी करने को बेचैन थे परंतु वह अभी पढऩा चाहती थी और जब उसने स्वदेश जी से मिल कर उन्हें अपनी व्यथा बताई थी तो उन्होंने उससे कहा था कि ‘‘मैं तुम्हारी पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाऊंगी। बशर्ते पढ़-लिख कर जब तुम कमाने लगो तो तुम भी दूसरे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में सहायता दो।’’ 
 
असंख्य लड़कियों को उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने में सहायता दी, उनके विवाह करवाए, उनके लिए धन एकत्रित किया, लड़कियों के माता-पिताओं ने जो कुछ कहा उसके अनुसार उनके कपड़ों और अन्य वस्तुओं की व्यवस्था की। वह लड़कियों को शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर देखना चाहती थीं-यही उनका स्वप्न था और यही उनका लक्ष्य। 
 
यही कारण था कि जब परिवार में उनकी पोती के रूप में कन्या आमिया ने जन्म लिया तो वह उसे भी वही सुविधाएं देने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थीं जो उन्होंने अपने पोतों को दीं। इसी कारण आमिया की पहली लोहड़ी और मुंडन पोतों जैसी धूमधाम से ही मनाया गया। यह किसी भी रूप में ‘महिलाओं की स्वतंत्रता’ वाली अवधारणा से नहीं बल्कि कन्या संतान के प्रति समानता की गहरी भावना से प्रेरित थी क्योंकि वह अपने पोते-पोतियों से भी समान रूप से स्नेह करती थीं। 
 
यह हमारे लिए संतोष का विषय है कि न सिर्फ उनके जीवनकाल में ही ‘पंजाब केसरी’ ने अपनी स्वर्ण जयंती मना ली बल्कि उनके तीनों पोतों अभिजय, अरूष और अविनव तथा पोती आमिया ने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्वदेश आकर कार्यालय में काम भी सम्भाल लिया। 
 
परिवार में आज भी कोई उनके विषय में ‘भूतकाल’ में बात नहीं कर पा रहा क्योंकि वह हमारे मन-मस्तिष्क और हमारे विचारों में हमेशा मौजूद हैं और अपनी दयालुता, उदारता और परिश्रम जैसे गुणों के कारण सदैव हमारे लिए मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ बनी रहेंगी।      

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!