महत्वपूर्ण मामलों में गवाहों की रहस्यपूर्ण मौतें

Edited By ,Updated: 13 Jul, 2015 12:03 AM

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देश की स्वतंत्रता के बाद अनेक ऐसे आपराधिक घोटाले हुए हैं जिनकी जांच के दौरान ही अनेक गवाहों की जान चली गई और अनेक लोगों की लाशें संदिग्ध अवस्था में बरामद हुईं।

देश की स्वतंत्रता के बाद अनेक ऐसे आपराधिक घोटाले हुए हैं जिनकी जांच के दौरान ही अनेक गवाहों की जान चली गई और अनेक लोगों की लाशें संदिग्ध अवस्था में बरामद हुईं। 

* 1996-97 के चारा घोटाले जिसमें अन्य के अलावा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी संलिप्त थे, की जांच के दौरान कुल 7 अधिकारियों की रहस्यपूर्ण ढंग से मृत्यु हुई। 
 
* तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की महत्वाकांक्षी योजना ‘स्वॢणम चतुर्भुज योजना’ में धांधली का खुलासा करने वाले अत्यंत ईमानदार अधिकारी सत्येंद्र दुबे की 2003 में गया (बिहार) में हत्या कर दी गई।
 
* 2010-11 में सामने आए उत्तर प्रदेश के 8657 करोड़ रुपए के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम.) घोटाले में सी.बी.आई. जांच के दौरान अनेक राजनेताओं और अधिकारियों के नाम सामने आए और इस घोटाले की जांच के दौरान 3 सी.एम.ओ. सहित 7 लोगों की जान जा चुकी है। 
 
* सितम्बर, 2013 में गिरफ्तार आध्यात्मिक गुरु आसा राम और नारायण साईं के विरुद्ध विभिन्न मामलों में गवाही देने वाले कम से कम 7 लोगों पर हमले हो चुके हैं जिनमें से 3 की जान जा चुकी है। आसा राम के विरुद्ध एक गवाह पर तो मार्च 2014 में तेजाब से हमला किया गया था। 
 
अभी 10 जुलाई को ही उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के कोतवाली सदर क्षेत्र में शाम के समय आसा राम बापू मामले में गवाह कृपाल सिंह पर मोटरसाइकिल सवार 2 लोगों ने ताबड़-तोड़ फायरिंग कर दी। उसे गंभीर अवस्था में जिला अस्पताल ले जाया गया जहां से डाक्टरों ने उसे बरेली रैफर कर दिया और वहां बाद में उसकी मृत्यु हो गई। और इन दिनों चर्चा का केंद्र बने मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले में, जिसकी आंच राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राज्यपाल राम नरेश यादव तक पर आ रही है, इसके उजागर होने के बाद से अभी तक लगभग 40 से अधिक लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो चुकी है।
 
उक्त सभी घटनाक्रम महत्वपूर्ण मामलों में गवाहों की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े करते हैं जबकि सुप्रीमकोर्ट द्वारा अनेक महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के दौरान गवाहों की सुरक्षा का प्रश्न उठाया जा चुका है।
 
वर्ष 2003 में एन.एच.आर.सी. बनाम गुजरात सरकार, 2004 में साक्षी बनाम भारतीय संघ और 2006 में हाजिरा बनाम गुजरात सरकार मामलों में सुप्रीमकोर्ट द्वारा अदालत के बाहर गवाहों की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालने संबंधी निर्णय दिए जा चुके हैं और 16 नवम्बर, 2013 को भी सुप्रीमकोर्ट ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया था। 
 
अपने आदेश में सुप्रीमकोर्ट की न्यायमूर्ति सुश्री रंजना देसाई और मदन बी.लोकुर पर आधारित पीठ ने विशेष रूप से उन संवेदनशील आपराधिक मामलों में गवाहों की सुरक्षा के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार  ठहराया था जिनके विरुद्ध धन बल अथवा बाहुबल का प्रयोग किया जा सकता हो। 
 
सुश्री रंजना देसाई ने अपने फैसले में लिखा था कि ‘‘अभी तक गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने के महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है अत: समय आ गया है कि राज्य सरकारें इस पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दें।’’
 
उन्होंने आगे लिखा था कि ‘‘गवाहों की सुरक्षा करने में निश्चित रूप में राज्य सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है...खासकर उन मामलों में जिनसे सत्ता प्रतिष्ठन से जुड़े लोग संलिप्त हों जिन्हें राजनीतिक संरक्षण  प्राप्त हो और जो सत्य को सामने आने से रोकने के लिए धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल कर सकते हों।’’
 
‘‘नागरिकों के संरक्षक के रूप में इस बात को सुनिश्चित बनाना राज्यों की जिम्मेदारी है कि किसी मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान गवाह उन लोगों के डर के बिना हकीकत बयान करें जिनके विरुद्ध वह गवाही दे रहा है।’’
 
सुप्रीमकोर्ट के उक्त निर्णयों की उपेक्षा से स्पष्ट है कि भले ही भारत सरकार भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने वालों की सुरक्षा के लिए व्हिसल ब्लोअर कानून बनाने जा रही हो, विभिन्न मामलों में महत्वपूर्ण गवाहों की अदालत के अंदर और बाहर सुरक्षा के लिए अभी तक कोई कानून नहीं है जिसकी अविलम्ब जरूरत है ताकि वे बिना किसी डर के किसी भी मामले में गवाही दे सकें।
 
किसी भी मामले में सच-झूठ को उजागर करने में गवाहों की बड़ी भूमिका होती है और इसी कारण इटली, जर्मनी और नीदरलैंड्स जैसे अनेक पाश्चात्य देशों में विभिन्न महत्वपूर्ण मामलों के गवाहों की सुरक्षा के लिए कानून मौजूद हैं। यदि हमारे यहां गवाहों को सुरक्षा नहीं मिलेगी और उन पर हमले होते रहेंगे तो इस तरह न्यायपालिका की संस्था का उद्देश्य ही समाप्त होकर रह जाएगा।
 

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