Edited By ,Updated: 24 Dec, 2019 01:34 AM
देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा मार्च, 2018 में स्वयं और अपने सहयोगी दलों के साथ मिल कर देश के लगभग 70 प्रतिशत भू-भाग पर शासन कर रही थी जो अब घट कर 34 प्रतिशत रह गया है।मार्च, 2018 में भाजपा की 13 राज्यों में अपनी अकेली सरकार तथा 6 राज्यों में गठबंधन...
देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा मार्च, 2018 में स्वयं और अपने सहयोगी दलों के साथ मिल कर देश के लगभग 70 प्रतिशत भू-भाग पर शासन कर रही थी जो अब घट कर 34 प्रतिशत रह गया है। मार्च, 2018 में भाजपा की 13 राज्यों में अपनी अकेली सरकार तथा 6 राज्यों में गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलाकर कुल 19 राज्यों में सरकार थी परंतु अब 23 दिसम्बर को झारखंड में पार्टी की हार के बाद 8 राज्यों में इसकी अपनी तथा 8 अन्य राज्यों में सहयोगी दलों के साथ मिल कर गठबंधन सरकारें रह गई हैं और 2 वर्षों में ही इसके हाथ से 6 राज्य आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र तथा झारखंड निकल गए हैं।
झारखंड में विधानसभा के लिए पांच चरणों में 81 सीटों के लिए हुए चुनावों के 23 दिसम्बर को घोषित परिणामों में हार के बाद झारखंड में सबसे बड़ा दल बनने का उसका सपना भी टूट गया। यह लेख लिखे जाने तक वहां ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ तथा कांग्रेस का गठबंधन 42 सीटों पर जीत चुका था और ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ राज्य के इतिहास में सबसे अच्छे प्रदर्शन की ओर अग्रसर है। ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने अपनी और गठबंधन की जीत को जनता का स्पष्टï जनादेश बताया और कहा कि इससे उन्हें जनता की आकांक्षा पूरी करने का संकल्प लेना होगा। उन्होंने विश्वास दिलाया कि वह लोगों की उम्मीदों को टूटने नहीं देंगे।
इन चुनावों में भाजपा को ‘एकला चलो’ की नीति और पार्टी के सदस्यों तथा सहयोगी दलों की नाराजगी महंगी पड़ी। जहां केंद्र में भाजपा नीत राजग की सहयोगी जद (यू) ने इससे अलग होकर अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा कर रखी थी वहीं भाजपा द्वारा अपने 20 वर्ष पुराने गठबंधन सहयोगी ‘आजसू’ की उपेक्षा करने पर ‘आजसू’ द्वारा अलग होकर 53 सीटों पर चुनाव लडऩा भी भाजपा को महंगा पड़ा। झारखंड में राजग की एक अन्य सहयोगी ‘लोक जनशक्ति पार्टी’ (लोजपा) ने भी अकेले ही चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी थी क्योंकि केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पुत्र एवं ‘लोजपा’ के हाल ही में नियुक्त किए गए राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान को इस बार भाजपा द्वारा ‘टोकन’ के रूप में दी गई सीटें स्वीकार नहीं थीं।
इन चुनावों में क्षेत्रीय दलों झामुमो, राजद, आजसू तथा जे.वी.एम. ने अच्छा प्रदर्शन किया है। अत: कहा जा सकता है कि अंतिम समय में यदि आजसू और भाजपा अलग न हुए होते तो परिणाम कुछ भिन्न हो सकते थे। यही नहीं इन चुनावों में अपने प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा कर राष्ट्रीय मुद्दों को ही उभारते नजर आए।
राज्य में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास का तानाशाही रवैया तथा पार्टी में टिकटों को लेकर असंतोष भी भाजपा के पिछड़ने का बड़ा कारण रहा। देश में व्याप्त आर्थिक मंदी, सत्ता विरोधी लहर, झामुमो और कांग्रेस के मजबूत गठबंधन तथा भाजपा के पास मुख्यमंत्री के लिए आदिवासी चेहरे की अनुपस्थिति ने भी पार्टी को क्षति पहुंचाई। कुल मिलाकर इन चुनावों के नतीजों में भी भाजपा के लिए वही सबक छिपा हुआ है जिसकी चर्चा हम आमतौर पर अपने लेखों में करते रहते हैं कि भाजपा व सहयोगी दलों में बढ़ रही दूरी निश्चय ही भाजपा के हित में नहीं है। अत: जितनी जल्दी भाजपा नेतृत्व सहयोगी दलों के साथ आपस में मिल-बैठ कर मतभेद दूर कर सके भाजपा तथा सहयोगी दलों के लिए उतना ही अच्छा होगा।
भाजपा नेतृत्व को मानना होगा कि इस तरह पुराने साथी खोना पार्टी और राजग को कमजोर ही करेगा। ये चुनाव परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि कहीं न कहीं तो कुछ कमी अवश्य है। अत: भाजपा नेतृत्व को इस घटनाक्रम पर मंथन करने की तुरंत आवश्यकता है क्योंकि इसके गठबंधन सहयोगियों की नाराजगी इसके लिए हानिकारक सिद्ध हो रही है।—विजय कुमार