Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Jun, 2017 10:34 PM
पैरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की घोषणा करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड....
पैरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की घोषणा करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दो और बयान दिए। इस समझौते को अपने देश के लिए बुरा और भारत तथा चीन का अनुचित ढंग से पक्ष लेने वाला बताते हुए उन्होंने भारत की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि पैरिस समझौते में बने रहने के लिए भारत अरबों-खरबों रुपए की सहायता चाहता है।
विदेशी मदद के मुद्दे पर किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की यह अब तक की सबसे तीखी आलोचना है। हालांकि, कुछ ऐसी ही बातें गत वर्ष ब्रिटिश अखबारों में पढऩे को मिली थीं व ब्रैग्जिट के दृष्टिगत ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के दबाव में आ जाने के कारण यह प्रश्न फिर से उठने लगा है। कुछ ब्रिटिश सांसदों तथा प्रैस के अनुसार भारत विश्व की 10 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, ‘परचेजिंग पावर पैरिटी’ के मामले में यह विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसके पास विश्व की तीसरी सबसे बड़ी सेना व चौथी बड़ी वायुसेना है। इसका सालाना बजट खरबों डालर का है, यह एक परमाणु शक्ति है जो अंतरिक्ष जगत में भी मंगल यान भेज कर तथा अनेक उपग्रह लांच करके तेजी से तरक्की कर रहा है। ऐसे देश को आखिर सहायता क्यों दी जाए? वल्र्ड बैंक की वैबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2011 में भारत को 3.2 बिलियन, 2012 में 1.6 बिलियन, 2015 में 3.1 बिलियन सहायता प्राप्त हुई।
इसे सहायता देने वालों में प्रमुख थे वल्र्ड बैंक, जापान, जर्मनी, एशियन डिवैल्पमैंट बैंक, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, ग्लोबल फंड (टी.बी., मलेरिया तथा एड्स से निपटने के लिए), अमरीका तथा यूरोपियन यूनियन। अमरीका तीन प्रकार की सहायता - आर्थिक, सम्पूर्ण तथा सैन्य सहायता- देता है। भारत को सैन्य सहायता मुख्यत: 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद प्राप्त हुई परंतु 1946 से 2012 के मध्य अमरीका से 65.1 बिलियन डालर की सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता प्राप्त करने वाला देश रहा। यह इसराईल को 65 बिलियन डालर तथा पाकिस्तान को 44.4 बिलियन डालर की अमरीकी सहायता से भी अधिक है।
नई दिल्ली द्वारा 1990 के दशक में सहायता के स्थान पर व्यापार की ओर बढऩे के चलते इस समय भारत को मिलने वाली अमरीकी सहायता सिर्फ 100 मिलियन डालर के लगभग है। यदि वर्तमान आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो भारत को वर्ष 2015 में कुल 3.1 बिलियन डालर सहायता मिली। अमरीका से हथियार खरीदने में भारत अरबों डालर खर्च करता है। यह 100 मिलियन डालर तो सिर्फ कैलीफोॢनया के बादाम खरीदने में ही खर्च कर देता है। इसलिए भला भारत को अमरीका से सहायता क्यों लेनी चाहिए और इसका इस्तेमाल कहां किया जाना है? सहायता बंद करने के इच्छुक विभिन्न देशों का एक पहलू उनका यह महसूस करना भी है कि शिक्षा और स्वच्छता जैसे जिन क्षेत्रों के लिए सहायता भेजी गई उन क्षेत्रों में बहुत कम सुधार ही हुआ है।
कुछ लोगों का यह विचार भी है कि विदेशी सहायता केवल चैरिटी नहीं है। आज के जमाने में यह विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक रणनीतिक औजार है। डेवेक्स के एक विश्लेषण के अनुसार भारत को दी जाने वाली 1.6 बिलियन सहायता का 84 प्रतिशत हिस्सा इसके द्वारा अन्य दक्षिण एशियाई पड़ोसियों को दिया जाता है जिसमें भूटान को सर्वाधिक हिस्सा प्राप्त होता है। यहां भारत द्वारा दी जाने वाली अधिकांश सहायता जल विद्युत सैक्टर को जाती है। इसके बाद सर्वाधिक भारतीय सहायता प्राप्त करने वाला अफगानिस्तान है जहां भारत सरकार बड़े पैमाने पर वहां की संसद की इमारत के निर्माण तथा हेरात में सलमा डैम जैसे आधारभूत ढांचे के निर्माण संबंधी परियोजनाओं में सहायता दे रही है।
सहायता के अन्य प्राप्तकत्र्ताओं में श्रीलंका, नेपाल, बंगलादेश, म्यांमार तथा मालदीव शामिल हैं। इसके अलावा अफ्रीकी देश भी भारत से सहायता प्राप्त करते हैं। भारत की विदेशी सहायता पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ती जा रही है जो 2009 में 442 मिलियन डालर से बढ़कर 2015-16 में 1.6 बिलियन डालर हो गई है। यदि ऐसा ही मामला है तो भारत को ‘ग्लोबल एड’ मांगने या अपनी प्रतिष्ठïा को ठेस लगाने की क्या आवश्यकता है और या क्या इसने पहले कभी और अभी भी सहायता स्वीकार करते समय राष्ट्रीय हित के साथ समझौता किया है?