प्रभाव महिला मताधिकार का

Edited By Pardeep,Updated: 07 Jan, 2019 09:17 PM

effect of female franchise

लिंग समानता के मामले में 169 देशों में भारत का स्थान 130वां है परंतु जब बात महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की आती है तो मामला एकदम अलग हो जाता है क्योंकि यह केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया में हिस्सा लेने, राजनीतिक सक्रियता, राजनीतिक जागरूकता आदि तक ही...

लिंग समानता के मामले में 169 देशों में भारत का स्थान 130वां है परंतु जब बात महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की आती है तो मामला एकदम अलग हो जाता है क्योंकि यह केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया में हिस्सा लेने, राजनीतिक सक्रियता, राजनीतिक जागरूकता आदि तक ही सीमित नहीं है। 

देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बेहद मजबूत तथा सभी क्षेत्रों से जुड़ी थी। अनेक महिलाएं जेल गईं, धरने पर बैठीं और अन्य कई तरह से आंदोलन में भागीदारी की परंतु राजनीतिक भागीदारी का एक महत्वपूर्ण पहलू मताधिकार का पालन भी है। महिलाओं को सर्वप्रथम 1921 में मद्रास में मताधिकार दिया गया परंतु  यह उन्हीं महिलाओं तक सीमित था जिनके पास जमीन या जायदाद थी। 1950 में सब बदल गया जब भारतीय संविधान की धारा 326 ने प्रत्येक बालिग को मताधिकार दे दिया। स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनावों में भी महिलाओं ने मतदान किया परंतु पुरुष मतदाताओं की तुलना में महिलाओं की संख्या लगभग 16.7 प्रतिशत कम थी। 

2012 के विधानसभा चुनावों में 58 से 60 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया परंतु महत्वपूर्ण बदलाव 2014 के आम चुनावों में ही नजर आने लगा जब मतदान लिंगानुपात में अंतर मात्र 1.8 प्रतिशत तक ही रह गया। 2004 में महिला तथा पुरुष मतदाताओं में यही अंतर 8.4 प्रतिशत था। पारम्परिक रूप से महिलाओं द्वारा वोटर सूची में नाम रजिस्टर करवाने की सम्भावनाएं कम रही हैं। फिर मतदान के लिए घर से उनके निकलने पर त्यौरियां चढ़ जाना आम बात थी। इतना ही नहीं, मतदान के लिए जाने पर भी उन्हें परिवार या पति की पसंद से वोट करने को कहा जाता। 

1000 पुरुषों के पीछे केवल 943 महिलाओं (कुछ राज्यों में और भी कम, 843) के तथ्य के बावजूद महिला-पुरुष मतदाताओं में अंतर लगभग 16 प्रतिशत बना रहा परंतु 2012 में विधानसभा चुनावों से महिला मतदाताओं की संख्या ही नहीं बढ़ी, बल्कि वे अधिक आजादी से मतदान करने लगीं। तो आखिर यह बदलाव कैसे हुआ और महिलाओं द्वारा मताधिकार का प्रयोग बढऩे के क्या प्रभाव नजर आ रहे हैं? 

लड़कियों की शिक्षा व साक्षरता में वृद्धि और श्रम बल से उनके जुडऩे का महिलाओं के अधिक संख्या में मतदान केन्द्रों तक पहुंचने से संबंध हो सकता है। दूसरी ओर राजनीतिज्ञों को भी आभास हो चुका है कि यदि उन्हें सत्ता में आना है तो महिलाओं की आवाज सुननी होगी। हालिया चुनावों में वोट सिं्वग 500 से 2000 वोटों तक कम रहा है तो हर मत का महत्व है। महिलाओं पर केन्द्रित मुद्दे परिवारों से जुड़े होते हैं जिनके चलते एक से अधिक वोट घर की स्त्रियों के साथ जा सकते हैं। ऐसे में महिलाओं पर केन्द्रित चुनाव प्रचार कहीं बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

लड़कियों की मुफ्त शिक्षा, शादी पर दुल्हनों तथा लड़की के जन्म पर आर्थिक मदद से लेकर महिला पुलिस स्टेशनों की स्थापना जैसे नेताओं की ओर से किए जाने वाले वायदों का कुछ हद तक असर हुआ है परंतु पुरुष बहुल रूढि़वादी समाज वाला बिहार इस दिशा में मार्ग प्रशस्त करने वाला प्रथम राज्य बन गया जब 2015 में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से 7 प्रतिशत अधिक हो गई। वजह  रही पुन: सत्ता में आने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा शराबबंदी करने का वायदा। गौरतलब है कि महिलाओं के विरुद्ध ङ्क्षहसा के लिए शराब ही सबसे बड़ी वजह रही है। 

उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर तथा अन्य राज्यों में बलात्कार के मामले पहली बार चुनावी मुद्दा बने। जोर पकडऩे वाले ‘मी टू’ आंदोलन को भी नेता पहले की तरह ‘लड़के तो लड़के ही रहेंगे’ जैसी बातें कह कर नजरअंदाज न कर सके। कानून-व्यवस्था बनाए रखने में अब इन मुद्दों को राज्य सरकारों की असफलता के रूप में देखा जाने लगा है। 


अधिक महिलाओं को चुनना लाभकारी हो सकता है परंतु नेता चाहे महिला हो या पुरुष, महिलाओं के मुद्दों पर काम करना महिला सशक्तिकरण की दिशा में बड़ा कदम है। ऐसे में हानिकारक धुएं में सांस लेने या चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी की तलाश में घंटों बाहर गुजारने से महिलाओं को मुक्ति देने के लिए रसोई गैस कनैक्शन देने अथवा लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने जैसी योजनाओं ने भी महिलाओं को आकर्षित किया है। तीन तलाक पर कानून बनाने के प्रयासों को भी इसी नजर से देखा जा रहा है। अनुमान है कि भारतीय चुनावों के इतिहास में पहली बार 2019 के आम चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो सकती है। 

इस रोशनी में देखते हुए दो मुद्दे समझ से परे हैं- कांग्रेस द्वारा तीन तलाक का विरोध तथा भाजपा द्वारा सबरीमाला मंदिर पर महिला विरोधियों का साथ देना। दिलचस्प है कि दोनों ही मामलों में संबंधित पार्टियां अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए प्रयासरत हैं। चूंकि दोनों ही मामले धर्म या रूढि़वादी विचारों से जुड़े हैं, पुरुषों के वोट के अलावा धर्म के नाम पर कुछ महिलाओं से वोट पाने की भी उन्हें आस है। तो महिला मताधिकार सामाजिक मुद्दों को बदलने का एक रास्ता हो सकता है परंतु तभी तक जब वे धर्म से न जुड़ जाएं।     

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!