‘राजनीतिक दलों के नेतृत्व के विरुद्ध’ ‘बढ़ रही बेचैनी’ : ‘घट रहा लोकतंत्र’

Edited By ,Updated: 14 Mar, 2021 02:25 AM

growing restlessness against the leadership of political parties

कुछ वर्षों से देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में दल-बदली का रुझान बढ़ गया है। इन दिनों जबकि अगले महीने पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं इसमें और भी तेजी आई हुई है जो मात्र एक सप्ताह के निम्र उदाहरणों से स्पष्ट है :  * 6 मार्च को

 कुछ वर्षों से देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में दल-बदली का रुझान बढ़ गया है। इन दिनों जबकि अगले महीने पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं इसमें और भी तेजी आई हुई है जो मात्र एक सप्ताह के निम्र उदाहरणों से स्पष्ट है : 

* 6 मार्च को तृणमूल कांग्रेस के पूर्व सांसद और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी भाजपा में शामिल हो गए। ममता बनर्जी पर परिवार पोषण का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘राजनीति कोई ‘खेला’ नहीं बल्कि गंभीर विषय है परंतु ममता बनर्जी खेलते-खेलते अपने आदर्श भूल गई हैं जिस कारण तृणमूल कांग्रेस में मेरा दम घुट रहा था।’’ रेल मंत्री रहते हुए दिनेश त्रिवेदी द्वारा किराया बढ़ानेसे नाराज ममता बनर्जी के कथित रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दबाव के चलते दिनेश त्रिवेदी के 18 मार्च, 2012 को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था और तभी से इन दोनों के बीच संबंध अच्छे नहीं रहे थे। 

* 6 मार्च को ही बिहार में पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की ‘रालोसपा’ के प्रदेश प्रभारी और अध्यक्ष वीरेंद्र कुशवाहा समेत 41 नेताओं ने नीतीश कुमार के साथ उपेंद्र कुशवाहा की बढ़ती नजदीकियों और ‘कुशवाहा समुदाय’ की उपेक्षा के विरुद्ध रोष स्वरूप पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और इनमें से 35 नेता 11 मार्च को ‘राष्ट्रीय जनता दल’ (लालू) में शामिल हो गए। 

* 8 मार्च को पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के 6 विधायकों सोनाली गुहा, दीपेंदु बिश्वास, रविंद्रनाथ भट्टाचार्य, जातू लाहिड़ी, शीतल कुमार व सरला मुर्मू तथा अभिनेत्री तनुश्री चक्रवर्ती ने भाजपा का दामन थाम लिया।
* 10 मार्च को कांग्रेस के भरोसेमंद तथा गांधी परिवार के नजदीकी माने जाने वाले वरिष्ठ नेता पी.सी. चाको ने पार्टी में व्याप्त ‘गुटबाजी और अंतर्कलह’ के विरुद्ध ‘रोषस्वरूप’ पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।
पार्टी में स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे चाको ने इसकी मौजूदा बदहाली के लिए सीधे तौर पर राहुल गांधी को जिम्मेदार ठहराया और कहा, ‘‘राहुल गांधी स्वयं जिम्मेदारी न लेकर दूसरों को आगे कर रहे हैं और पिछली सीट पर बैठ कर गाड़ी चलाना चाहते हैं।’’ 

दिल्ली में पार्टी के इंचार्ज रहे चाको का कहना है कि पार्टी में सुधारों की मांग करने वाले ‘जी-23’ समूह के सदस्यों ने कुछ भी गलत नहीं कहा है। मैं पार्टी के लोकतांत्रिक ढंग से काम करने के पक्ष में हूं और यदि ऐसा नहीं है तो मेरे सामने पार्टी को अलविदा कहने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। 

* 10 मार्च को ही तृणमूल कांग्रेस में मंत्री बच्चू हांसदा और विधायक गौरीशंकर दत्ता सहित बड़ी संख्या में पार्टी के अन्य नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया। गत डेढ़ वर्ष में 6 सांसदों व लगभग 3 दर्जन विधायकों ने विभिन्न कारणों से तृणमूल कांग्रेस छोड़ी है। इनमें पूर्व मंत्री और ममता का ‘दायां हाथ’ समझे जाने वाले शुभेंदु अधिकारी तथा दिनेश त्रिवेदी भी शामिल हैं।
* और अब 13 मार्च को पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, जिन्होंने भाजपा नेतृत्व के साथ नाराजगी के चलते 2018 में पार्टी छोड़ दी थी, तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। यशवंत सिन्हा ने कहा, ‘‘प्रजातंत्र की ताकत उसकी संस्थाएं होती हैं परंतु आज लगभग हर संस्था कमजोर हो गई है।’’‘‘अटल जी के समय में भाजपा आम सहमति पर विश्वास करती थी परंतु आज की सरकार केवल कुचलने और जीतने पर विश्वास करती है।’’ 

* इसी दिन गोवा में ‘राकांपा’ के नेता नजीर खान पार्टी से त्यागपत्र देकर कांग्रेस में शामिल हो गए। वह पहले कांगे्रस छोड़ कर राकांपा में चले गए  थे और अब फिर पार्टी में लौट आए हैं।
ये तो दलबदली के चंद उदाहरण मात्र हैं। यह समस्या कितनी बढ़ चुकी है इसका अनुमान अभी हाल ही में ‘एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफॉम्र्स’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है जिसमें कहा गया है कि :
‘‘2016 से 2020 के बीच चुनाव लडऩे के लिए दल-बदली करने वाले 405 विधायकों में से सर्वाधिक 182 भाजपा में, 38 कांग्रेस  व  25 टी.आर.एस. में शामिल हुए। इस अवधि में कांग्रेस के सर्वाधिक 170 विधायक चुनाव लडऩे के लिए अपनी मूल पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए।’’ 

उक्त रिपोर्ट तथा अपनी मूल पार्टियां छोड़ कर दूसरी पार्टियों में शामिल होने वाले उक्त नेताओं के बयानों से भी स्पष्ट है कि मूल पार्टी के नेतृत्व द्वारा अपने सदस्यों की उपेक्षा, उनकी बात न सुनने आदि के कारण स्वयं राजनीतिक दलों में लोकतंत्र का क्षरण होने से दल-बदल को बढ़ावा मिल रहा है। अत: राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व का कत्र्तव्य है कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि पार्टी में कर्मठ वर्करों की अनदेखी न हो, उनकी आवाज सुनी जाए और उन्हें उनका अधिकार दिया जाए। तभी दल-बदली रुकेगी और राजनीतिक पार्टियों में सच्चा लोकतंत्र आएगा। 

चूंकि मूल पार्टी में उपेक्षा होने के कारण ही कोई व्यक्ति दूसरी पार्टी में जाता है अत: इसे रोकने के लिए सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए कि एक पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल होने वाला कोई भी राजनीतिज्ञ एक निश्चित अवधि तक चुनाव भी न लड़ सके।—विजय कुमार   

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