Edited By ,Updated: 20 Mar, 2017 10:09 PM
आज जबकि कार्यपालिका और विधायिका निष्क्रिय हो रही हैं, केवल न्यायपालिका ....
आज जबकि कार्यपालिका और विधायिका निष्क्रिय हो रही हैं, केवल न्यायपालिका और मीडिया ही जनहित के मुद्दों पर सही राह दिखा रहे हैं। यह भी अच्छी बात है कि एक ओर न्यायपालिका जनहितकारी फैसले सुना रही है तथा दूसरी ओर इसे अपनी ‘खामियों’ का भी एहसास हो रहा है।
इसका प्रमाण सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर और इसके वरिष्ठïतम जजों में से एक न्यायमूॢत दीपक मिश्रा ने 18 मार्च को ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा अथारिटी’ के सम्मेलन में दिया तथा ‘विभिन्न वीभत्स अपराधों के मामले में पीड़ितों की न्याय प्रणाली से दूरी’ पर चिंता व्यक्त करने के अलावा न्याय प्रक्रिया से जुड़े सब लोगों को पूर्ण समर्पण और ईमानदारी से कार्य करने के लिए कहा। जस्टिस खेहर ने न्यायिक सेवा के लोगों से अपराध के पीड़ितों के लिए काम करने का आह्वïान करते हुए 1993 के मुम्बई धमाके के आरोपी याकूब मैमन (जिसके केस के सभी कानूनी विकल्प समाप्त हो जाने के बावजूद 29 जुलाई 2015 की आधी रात को सुनवाई की गई थी) का नाम लिए बिना कहा :
‘‘हमने न्यायिक सेवा को तो विस्तार दिया परंतु हमने पीड़ितों के लिए क्या किया? हमारा देश भी विचित्र है, यहां अपराधी जितना बड़ा होता है उसकी पहुंच भी उतनी ही होती है और उस पर हंगामा भी उतना ही बड़ा होता है।’’ ‘‘यहां आतंकवादी मामलों के दोषी के लिए कानून के अंतर्गत अंतिम क्षण तक हर जरूरी कानूनी सहायता उपलब्ध है परंतु मैं वर्षों से आतंकवाद पीड़ित परिवारों के बारे में सोचता आ रहा हूं।’’
‘‘बलात्कार या एसिड अटैक पीड़ित या जिन्होंने अपने घर चलाने वालों को खो दिया है, न्याय उनके हिस्से में भी आना चाहिए। मैं वर्षों से उन एसिड अटैक या बलात्कार पीड़ितों के बारे में और उनकी जिंदगी के बारे में सोचता हूं कि आखिर हम उन तक क्यों नहीं पहुंचे?’’ ‘‘उन एसिड अटैक पीड़ितों का क्या हुआ जिन्होंने अपना चेहरा खो दिया और समाज में जिनका चलना-फिरना कठिन हो गया? अत: न्यायाधीश पीड़ितों तक पहुंचें और उन्हें क्षतिपूर्ति मिलना सुनिश्चित करें जिसके वे अधिकारी हैं।’’
इसी समारोह में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा कि ‘‘न्याय पाना लोगों का संवैधानिक ही नहीं बल्कि बुनियादी मानवीय अधिकार भी है। अत: न्याय प्रक्रिया से जुड़े सब लोगों को पूर्ण समर्पण और ईमानदारी से कार्य करना चाहिए।’’ देश की अदालतों में वर्षों से अटके मुकद्दमों के अम्बार और पीड़ित पक्ष को न्याय मिलने में विलंब पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने न्याय के लिए अदालतों में कतार लगाने की बजाय इन्हें परस्पर सहमति से निपटाने की संस्कृति पैदा करने की आवश्यकता पर बल दिया।
जहां न्यायमूर्ति खेहर और न्यायमूर्ति मिश्रा ने देश की न्यायप्रणाली में ‘सुधार’ के लिए अत्यंत उपयोगी सुझाव दिए हैं, वहीं इसी दौरान दिल्ली न्यायपालिका ने दो महत्वपूर्ण जनहितकारी प्रशंसनीय फैसले भी सुनाए। पहले निर्णय में 18 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति मनमोहन ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि ‘‘यदि वयस्क बच्चे अपने मां-बाप से अभद्र व्यवहार, गाली-गलौच आदि करते हैं तो उन्हें घर से निकाला जा सकता है। यह जरूरी नहीं है कि घर उन्होंने खुद बनाया है या इसके मालिक मां-बाप हैं।’’
इसी प्रकार अपने एक अन्य निर्णय में दिल्ली की एक अदालत ने लापरवाही से ट्रक चलाने के कारण वर्ष 2000 में 9 वर्षीय एक बच्चे की मौत के मामले में प्रतापगढ़ के सुनील कुमार मिश्रा का ड्राइविंग लाइसैंस उम्र भर के लिए रद्द करने का आदेश देते हुए कहा कि उसे कोई नया लाइसैंस जारी न किया जाए। उन्होंने इस आदेश को देश भर के सभी पंजीकरण प्राधिकरणों को भेजने का भी आदेश दिया ताकि इसका पालन सुनिश्चित हो सके।
सुप्रीमकोर्ट के दो मान्य न्यायाधीशों की टिप्पणियों और हाईकोर्ट के दो जनहितकारी निर्णयों से स्पष्टï है कि न्यायपालिका को अपने नैतिक और सामाजिक दायित्वों तथा सामाजिक सरोकारों की भी समान रूप से चिंता है। जब तक न्यायपालिका में यह चिंता कायम रहेगी, देश में हाशिए के अंतिम छोर पर खिसके हुए सर्वहारा के लिए भी उम्मीद की किरण टिमटिमाती रहेगी। यदि न्यायपालिका में ऊपर से नीचे के स्तर तक मान्य न्यायाधीश, वकील तथा न्यायप्रणाली से जुड़े अन्य सब लोग विचाराधीन आने वाले मामलों के त्वरित और निष्पक्ष निपटारे के लिए निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर सकारात्मक सोच अपना लें तो देश में कोई भी पीड़ित न्याय से वंचित न रहेगा। —विजय कुमार